ये ख़ामोशी.......
ख़ामोशी मुझे हमेशा से तडपाती रही है चाहे वो आतंरिक हो या बाहरी मुझे अन्दर तक झिंझोड़ देती है...पर तुम ख़ामोशी के पुजारी हो शायद या मजबूर हो खामोश रहने के लिए में नहीं जानती सच क्या है. पर मेरा सच यही है की ख़ामोशी चुभती है मुझे.शायद इसीलिए जब तुम बातें नहीं करते कुछ नहीं बोलते तो खुद से बातें करती हूँ ,अकेले ही, हर काम करते हुए कभी कपड़ो को तह करते हुइ , कभी खाना बनाते हुए ,कभी यूही सड़क पर चलते हुए बस खुद ही प्रश्न करती हु खुद ही उत्तर देती हूँ,जेसे ऐसे बातें करते हुस निकल आउंगी किसी बहुत बड़ी दुविधा से बाहर या फिर जीत जाउंगी अपने अकेलेपन से या शायद कभी उतना भी नहीं सोचती बस बातें करती जाती हूँ.
ख़ामोशी जैसी भी हो मुझे तकलीफ देती है मुंबई जैसे शहर में आकर ये अकेलेपन का दर्द बड़ा तकलीफ देता है. जानती हु तुम भी इसके डसे हुए हो शायद हमारे जैसे बहुत लोग होंगे इस शहर में या हम ही अनोखे है जो भीड़ में तनहा है .मशीनी जिंदगी है ,जहा अपनी परछाई भी अपने साथ चल रही है इसका भी आभास नहीं होता .शाम को ऑफिस से घर जाते समय ये अहसास ही नहीं आता मन में की घर जा रहे है..क्यूंकि वहा ये ख़ामोशी इन्तेजार करती मिलती है..जेसे फन फेलाएँ बेठी हो मेरे लिए ...ये शायद अन्दर का खालीपन है जो मन के झरने को बल खाकर बहने नहीं देता बस कभी कभी थोडा सा रिसाव होता है...अब तो लगता है पानी सड़ने लगेगा कुछ समय बाद जब मुझे ये ख़ामोशी पूरी तरह अपने में समां लेगी....
अजीब सा सच है मेरे बहुत करीबी लोगो में से भी कुछ ही लोग जानते है की में बहुत बोलती हू पर कितने लोगों ने मुझे सुना है ये वही जानते है. तुम भी शायद उनमे से एक हो पर पूरी तरह से नहीं . ये शायद मेरी बदकिस्मती है की मेरी ख़ामोशी को तुम्हारी आवाज नहीं मिली ....सिर्फ एक अजीब से सी चादर मिली ख़ामोशी की .......
जब अकेली होती हूँ किसी सड़क पर या घर पर,तब जाने क्या ताने बाने बुनती रहती हू . नहीं नहीं ये कोई छल प्रपंच नहीं होता, कोई षड़यंत्र नहीं होता बस कुछ यादें ,कुछ बातें ,कुछ भावनाएं,कुछ नफरतें,कुछ मोह्हबतें कुछ मिला जुला सा होता है जिसे शायद दिल से व्यक्त करना चाहती हू पर कर नहीं पाती कभी सामाजिक मर्यादाएं आड़े आ जाती है ,कभी समय निकल जाता है बस एसे ही और ये बातें रह जाती है दिल में कहीं और फिर रह रह कर मेरे सामने आती है अकेलेपन में इसीलिए मुझे डर लगता है ख़ामोशी से .....
सच कहते हो तुम इतना सोचूंगी तो पागल हो जाउंगी पर ये भी उतना ही सच है अगर ये खुद से बातें न होती तो अब तक पागल हो जाती है में....या शायद दम तोड़ देती इसी ख़ामोशी के साथ....मीठी आवाजें भली लगती है मुझे चाहे वो चिडिया की आवाज हो या पानी की बूंदों की या तुम्हारी मुस्कुराहटों की इन्ही आवाजों में जिंदगी समेट लेना चाहती थी में हमेशा से ही पर ये ख़ामोशी जेसे छोडती ही नहीं अब मुझे ...बस बढती जाती है दिन ब दिन ...........बस एक तुम्हारी हसी की आवाज है जो दूर कर देती है इस ख़ामोशी को कभी कभी मुझसे इसीलिए जब तुम हँसते हो सोचती हु एसे ही हँसते रहा करो अच्छा लगता है .......
ख़ामोशी मुझे हमेशा से तडपाती रही है चाहे वो आतंरिक हो या बाहरी मुझे अन्दर तक झिंझोड़ देती है...पर तुम ख़ामोशी के पुजारी हो शायद या मजबूर हो खामोश रहने के लिए में नहीं जानती सच क्या है. पर मेरा सच यही है की ख़ामोशी चुभती है मुझे.शायद इसीलिए जब तुम बातें नहीं करते कुछ नहीं बोलते तो खुद से बातें करती हूँ ,अकेले ही, हर काम करते हुए कभी कपड़ो को तह करते हुइ , कभी खाना बनाते हुए ,कभी यूही सड़क पर चलते हुए बस खुद ही प्रश्न करती हु खुद ही उत्तर देती हूँ,जेसे ऐसे बातें करते हुस निकल आउंगी किसी बहुत बड़ी दुविधा से बाहर या फिर जीत जाउंगी अपने अकेलेपन से या शायद कभी उतना भी नहीं सोचती बस बातें करती जाती हूँ.
आवाजे अच्छी लगती है मुझे पर शोर नहीं,आवाजों और शोर के बीच की इसी महीन रेखा के इस पार रहना अच्छा लगता है मुझे .
कई बार कई लोगो ने देखा है मुझे एसे खुद से बातें करते मेरे होंठो को बुदबुदाते ,मेरे सर को हिलते हुए ,हर बार लोग अलग थे कभी इंदौर में अनु ,कभी भोपाल में पल्लू और हर बार एक यही सवाल ये क्या तू अकेली अकेली क्या बोल रही है?क्या समझाती उन्हें की में खोल देना चाहती हु अपना मन, पर खोल नहीं पाती किसी के सामने कोशिश करती हूँ पर मेरे विचार हवा की मानिंद इतनी तेजी से आते है की शब्द साथ नहीं दे पाते या शायद कई बार सुनने वाले का धेर्य साथ नहीं देता जेसे तुम खो बैठते हो अपना धेर्य मुझे बोलते देखकर ......ख़ामोशी जैसी भी हो मुझे तकलीफ देती है मुंबई जैसे शहर में आकर ये अकेलेपन का दर्द बड़ा तकलीफ देता है. जानती हु तुम भी इसके डसे हुए हो शायद हमारे जैसे बहुत लोग होंगे इस शहर में या हम ही अनोखे है जो भीड़ में तनहा है .मशीनी जिंदगी है ,जहा अपनी परछाई भी अपने साथ चल रही है इसका भी आभास नहीं होता .शाम को ऑफिस से घर जाते समय ये अहसास ही नहीं आता मन में की घर जा रहे है..क्यूंकि वहा ये ख़ामोशी इन्तेजार करती मिलती है..जेसे फन फेलाएँ बेठी हो मेरे लिए ...ये शायद अन्दर का खालीपन है जो मन के झरने को बल खाकर बहने नहीं देता बस कभी कभी थोडा सा रिसाव होता है...अब तो लगता है पानी सड़ने लगेगा कुछ समय बाद जब मुझे ये ख़ामोशी पूरी तरह अपने में समां लेगी....
अजीब सा सच है मेरे बहुत करीबी लोगो में से भी कुछ ही लोग जानते है की में बहुत बोलती हू पर कितने लोगों ने मुझे सुना है ये वही जानते है. तुम भी शायद उनमे से एक हो पर पूरी तरह से नहीं . ये शायद मेरी बदकिस्मती है की मेरी ख़ामोशी को तुम्हारी आवाज नहीं मिली ....सिर्फ एक अजीब से सी चादर मिली ख़ामोशी की .......
जब अकेली होती हूँ किसी सड़क पर या घर पर,तब जाने क्या ताने बाने बुनती रहती हू . नहीं नहीं ये कोई छल प्रपंच नहीं होता, कोई षड़यंत्र नहीं होता बस कुछ यादें ,कुछ बातें ,कुछ भावनाएं,कुछ नफरतें,कुछ मोह्हबतें कुछ मिला जुला सा होता है जिसे शायद दिल से व्यक्त करना चाहती हू पर कर नहीं पाती कभी सामाजिक मर्यादाएं आड़े आ जाती है ,कभी समय निकल जाता है बस एसे ही और ये बातें रह जाती है दिल में कहीं और फिर रह रह कर मेरे सामने आती है अकेलेपन में इसीलिए मुझे डर लगता है ख़ामोशी से .....
सच कहते हो तुम इतना सोचूंगी तो पागल हो जाउंगी पर ये भी उतना ही सच है अगर ये खुद से बातें न होती तो अब तक पागल हो जाती है में....या शायद दम तोड़ देती इसी ख़ामोशी के साथ....मीठी आवाजें भली लगती है मुझे चाहे वो चिडिया की आवाज हो या पानी की बूंदों की या तुम्हारी मुस्कुराहटों की इन्ही आवाजों में जिंदगी समेट लेना चाहती थी में हमेशा से ही पर ये ख़ामोशी जेसे छोडती ही नहीं अब मुझे ...बस बढती जाती है दिन ब दिन ...........बस एक तुम्हारी हसी की आवाज है जो दूर कर देती है इस ख़ामोशी को कभी कभी मुझसे इसीलिए जब तुम हँसते हो सोचती हु एसे ही हँसते रहा करो अच्छा लगता है .......
6 comments:
खामोशी जिन्दगी के सफ़र में मुसाफिर की मंजिल है
खामोशी खुद ही महफ़िल है ख़ामोशी खुद का हांसिल है
in behatareen panktiyon ke lie dhanyawad apoorv ji
wow... so touched,.. jindagi kahin gujar jati hai bich raah me.. hum sayyad samj nahin patee kyun... kyun ki hum us waqt khamosh hote hai...
i wrote below some few years back..
" yun khamosh rehkar, apni juban ko iljaam na do...kuch keh bhi do , jara sa muskura bhi do, jindagi phir se hasin ho jaayegi..."
sahi akah aapne bhargav.hum jindagi ko kai baar wese gujar dete hai jaise nahi gujarna chahte pata bhi nahi chalta ki pal pal karke sab gujar gaya
Hi Kanupriya, Your blog is awesome.You have got unique style...cheers!!!
Interesting site. Great post, keep up all the work.
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