Tuesday, September 25, 2012

शेक्सपीयर का जुलियस सीज़र बनाम अन्ना और उनका पी आर

शेक्सपीयर का लिखा जुलियस सीज़र पढ़ रही थी कल रात ...पूरा नाटक नहीं कहानी रूपांतरण पढ़ा मैंने और पढने के बाद अलग अलग कई विचार मन में आए  सबसे पहले तो जिन लोगो ने इस नाटक को नहीं पढ़ा (मेरे जेसे कई लोग होंगे क्यूंकि मेने कल पहली बार ही पढ़ा ) वो जान ले की पूरी कहानी सीज़र की रोम विजय और उसके विरुद्ध षड़यंत्र रचने वाले विद्रोहियों के आस पास घूमता है ,उसके अपने खास लोग उसे खून से नहला देने  में कसर नहीं छोड़ते और उसका खास विश्वासपात्र ब्रूटस ही उसके खून से अपने हाथ रंगकर उसके मृत शरीर को सभा में ले जाता है और जनता के सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करता है की  सीज़र अतिमहत्वाकांशी था इसलिए उसे मौत के घात उतारा गया ....

जब आप इस नाटक को पढ़ते हैं तो सीज़र की मौत का इक बहुत बड़ा कारण कैसियस  नाम का उसका वो बचपन का मित्र है जिसकी महत्वाकांशाएं काफी बढ़ जाती है और सीज़र के प्रति अपनी जलन के चलते वो उसके कई वफादारों को उसके खिलाफ भड़काता है  और विद्रोह की नीव रखता है और अंत में उसके ही वफादार मित्र ब्रूटस को लोगो के आगे खड़ा कर देता है ये समझा देने के लिए की सीज़र के साथ  जो हुआ वो सही है और उसी की गलतियों का नतीजा है ...अब चूँकि ब्रूटस की जनता के बीच अच्छी साख है और लोग उसे मानते हैं वो उसके शब्दों से प्रभावित हो जाते हैं  और सीज़र की मौत को सही मानने लगते हैं ...

ठीक उसी समय उसका इक सच्चा वफादार "ऐल्बिनस" 
सीज़र की लाश को हाथ में उठाए वहा आता है और लोगो को बताता था की सीज़र ने उनके लिए क्या क्या अच्छा किया है किस तरह उसने अपनी वसीयत में अपने निजी धन का बड़ा हिस्सा अपनी प्रजा के नाम कर दिया है और अपने निजी मनोरंजन  स्थल  जनता के आनंद  के लिए सार्वजनिक कर दिए हैं..किस तरह वो राजमुकुट धारण करने से मना करता है ...और ये सब बताकर वो मरे हुए सीज़र को विलेन से हीरो बना देता है ...
"ऐल्बिनस"  यहाँ कुछ अलग नहीं करता पर वो वही लोगो को सब बताता है जिसमे से कई बातें वो पहले से जानते है और जो नई बातें वो बताता है वो सीज़र के लिए लोगो के मन में सहानुभूति पैदा कर देती है और जनचेतना उमड़ पड़ती है ...
और अंत वही सारे विद्रोही जनता के हाथो  मारे जाते है और ब्रूटस अपनी करनी पर पछताता हुआ स्वयं आत्महत्या कर लेता है ....

पूरे नाटक के अपने अलग  अलग सार निकाले जा सकते है, भले आदमी या बुरे आदमी से जोड़ा जा सकता है ,विद्रोह के पीछे की सोच से जोड़ा जा सकता है पर में पब्लिक रिलेशन की विद्यार्थी रही हू और इस नाटक को पढ़कर मैंने इसे पी आर से जोड़कर देखा...इक मरा हुआ (विद्रोहियों द्वारा मार दिया गया ) व्यक्ति जो नाटक की पृष्ठभूमि से भला व्यक्ति दिखता  है (वो है या नहीं ये कहना अभी मेरे लिए मुश्किल है ) अपने मरने के बाद विद्रोहियों द्वारा अति महत्वकांशी सिद्ध कर दिया जाता है जनता उसका विरोध करती है उसे बुरा समझती है पर तभी उसका वफादार उसकी अच्छाइयाँ गिनकर उसे हीरो साबित कर देता है ...सारा खेल पी आर का है अंतर बस इतना है की ये पी आर  (इमेज बिल्डिंग ) सीज़र की मौत के बाद किया गया...अच्छी और सोची समझी रणनीति ने सीज़र को लोगो के मन में अमर बना दिया ...

अब इस पूरी घटना को वर्तमान परिद्रश्य में अन्ना के आन्दोलन के साथ जोड़कर देखा जाए तो हम पाएँगे की अन्ना भले और देशभक्त व्यक्ति  है उनका आन्दोलन भी सही दिशा में जा रहा था लोग टीम अन्ना के साथ थे , देशभक्ति की बयार चल रही थी  भ्रष्टाचार के खिलाफ लाम बंदी हो रही थी सब ठीक था अचानक आन्दोलन की हवा निकल गई , टीम में फूट जेसे आसार दिखने लगे अलग अलग रस्ते दिखने लगे लोगो का विश्वास डगमगाता दिखने लगा...
यहाँ में टीम अन्ना की कमियों खामियों की बात नहीं करुँगी पर इक बड़ी गलती जो रही वो थी सही ढंग से किए गए पी आर की कमी ....
ना ढंग से इमेज  बनाई  गई जो बना ली गई उसे ठीक से संभाला नहीं गया ...अलग अलग लोग अलग अलग बयान और अलग अलग निकले गए अर्थो ने कई अर्थों का अनर्थ कर दिया ...इक महान बनता जा रहा कार्य ,आम सा रह गया इक आन्दोलन अंधड़ जेसा आया और  चला गया वो भी लोगो को कई गुटों में बांटकर .....

जबकि होना ये था की आन्दोलन के दौरान और उसके बाद भी सही ढंग से इसका पी आर किया जाता ..अलग अलग लोगो को बयान देने से रोका जाता , प्रचार प्रसार के लिए सही रणनीति बनाई  जाती , विरोधियों के बयानों का सही सही योजना के तहत जवाब दिया जाता तो इक बेहतरीन आन्दोलन एसे बुलबुले की  तरह फूटता नहीं  बल्कि लम्बे समय तक चलता और अपना उद्देश्य भी पूरा करता ....
अन्ना का आन्दोलन जब दम तोड़ता दिख रहा था उस समय भी अगर सही ढंग से इमेज बिल्डिंग की जाती ,मीडिया का सही प्रयोग किया जाता ( ना की उसके विरोध में बयानबाजी की जाती ) अपनी ढपली अपने राग की तरह आन्दोलन को बार बार ना मोड़ा जाता तो सफलता के चांस कई गुना बढ़ जाते ...

खैर  ! आगे की कहानी तो वक़्त ही बताएगा पर जिस तरह सीज़र को  "ऐल्बिनस" ने महान साबित कर दिया ठीक वैसे ही अन्ना को भी एसे आदमी की जरुरत है जो आन्दोलन को फिर से सही रुख में मोड़ दे क्यूंकि ये सच है आन्दोलन करना अलग बात है और छवि निर्माण करना अलग और उस छवि को सकारात्मक बनाए रखना अलग ....आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Monday, September 24, 2012

है बड़ा प्यारा हमारा प्रेम

गाहे बगाहे याद आ जाता है यूँ 
दर्द का ढाला बिचारा प्रेम...
है यहाँ सारे  सिपहसालार और 
विरह का मारा हमारा  प्रेम

वो कभी जो इश्क के उस्ताद थे 
लगता उन्हें अपना आवारा प्रेम 
छोड़ दे कैसे बीच मझधार में 
नाज़ से पाला संवारा प्रेम 

हो भले  सबकी आँखों की किरकिरी 
अपनी आँख का तारा ,हमारा प्रेम 
उथला नहीं बहता भरे बाज़ार में
गहराई में हमने उतारा प्रेम 

चाँद की ख्वाहिश ना खुशियों की तलब 
दरवेश बंजारा हमारा प्रेम 
हम मिले या ना मिले बना रहे 
ये यादों का हरकारा दीवाना प्रेम ....

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Friday, September 21, 2012

उन बेवफाओं के किए क्या दिल लगाना छोड़ दे ?

जो छोड़कर जाते हैं अपने इश्क को मझधार में 
उन बेवफाओं के किए क्या दिल लगाना छोड़  दे ?
जिन रास्तों ने ज़ख्म देकर पैरों को घायल किया 
जब वो ना फितरत छोड़े अपनी तो 
हम क्यों उन रास्तों पर जाना छोड़ दे ?


हे इश्क वो दाता जिसने 
भटकती रूह सा जीवन दिया 
और वो कहते हैं की हम 
इश्क से खौफ खाना छोड़ दे 

वो कहते हैं हमसे सरेराह 
यूँ नशे में चलना बंद करो 
हमें डर हैं मोहब्बत की 
खुमारी के उतर जाने का 
गर साथ वो अपने हैं तो 
फिर हमारी नज़रों का काम क्या
कैसे  दुनियादारी की ख़ातिर 
उनका सहारा छोड़ दे ?

जाने वाले ऐसे गए 
ज्यो शाख से पत्ते गए 
वो ना आएं लौटकर तो 
आस भी लगाना छोड़ दे ?
किस घडी वो लौट आएं 
,इश्क का अहसान हो 
राह में कैसे भला 
दिया जलाना छोड़ दे ? 

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Thursday, September 20, 2012

गणेश जी मुंगडा ओ मुंगडा से जन्नत की हूर तक


पिछले साल के मुंगडा  ओ  मुंगडा   वाले गणेश इस वर्ष कोई जन्नत की वो हूर नहीं के साथ आए....अजीब लगता है ना सुनकर पर हाईटेक ज़िन्दगी के साथ लोगो ने पहले गणेश जी को हाईटेक बनाया और अब गणेश पंडालों में बजने वाले गाने आपको चौका देंगे गणेश जी भी सोचते होंगे क्या है भाई कुछ तो शर्म करो

मंगलवार रात जब में अपने किचन में खाना बना रही थी बाहर बड़ा शोर था बेन्ड बज रहे थे हल्ला गुल्ला था  और फिर आवाजें पास आती गई और बेकग्राउंड  में इक गाना गूंजा "जिसे देख मेरा दिल धड़का मेरी जान तड़पती है कोई जन्नत की वो हूर नहीं मेरे कोलेज की इक लड़की है " (फूल और कांटे ) इक बार को तो मन खुश हो गया (मुझे पसंद है ये गाना) लगा लगता है कोई बारात आ रही है फिर ध्यान आया ये तो भक्त लोग अपने प्रिय गणेश जी को पंडाल तक ला रहे हैं थोड़ी देर के लिए बड़ा अजीब लगा क्या है ये? लोग बेसिक मर्यादाएं भी क्यों भूल जाते हैं एसा लगता है जेसे बेन्ड वाले को पैसा दिया है तो पूरा ही वसूलेंगे चाहे उपलक्ष्य कोई भी हो हर तरीके के गाने बजवा लिए जाए और उन पर डांस भी कर लिया जाए पाता नहीं फिर कब नाचना मिले.

शादियों में भी बड़े बूढों की उपस्थति का ख्याल करके  फूहड़ गाने नहीं बजवाए जाते पर सार्वजनिक ईश्वरीय  कार्यक्रमों में ये सब क्यों ? क्या इश्वर का कोई लिहाज नहीं .... ये तो ठीक है पिछले साल जब गणेश जी आए थे तो गाना था "मुंगडा  ओ  मुंगडा मैं गुड की डली " सुनकर लगा था हद्द है इश्वर ने लोगो को इक दिमाग दिया है उसका प्रयोग ना करेंगे तो जंग ना लग जाएगा ? या उसे बचाकर क्या इश्वर को वापस देना है की हे इश्वर हम तो इसका प्रयोग कर नहीं पाए पूरा बचाकर ले आए अब आप ही इसका अचार डाल लीजिए ....

इतिहास कहता है पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थपना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। वर्तमान में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।

पर हमने इस त्यौहार को क्या रूप दे दिया , इक अलग पंडाल या स्टेज बनाकर विभिन्न प्रतियोगिताएं  आयोजित करना (जिनमे गीत संगीत प्रतियोगिता भी शामिल हो सकती है ) इक अलग बात है उनका विरोध में नहीं कर रही क्यूंकि ये सार्वजनिक उत्सव है और एसे ही उत्सवों के दौरान बच्चो और बड़ों को प्रतिभा दिखने का मौका मिलता है और कई बार एसी प्रतिभाओं को सही दिशा मिल जाती है पर इस उत्सव में देवता भी सम्मिलित है और उनका लिहाज रखना भी बनता है ... 

एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है की जेसे ही गणेशोत्सव  समाप्त होता है और गणेश विसर्जन होता है उसके बाद का नदियों तालाबों और समुन्दर का नज़ारा भी देखने लायक होता है प्यार से लाए हुए गणेश जी ठोकर खाते दिखाई देते हैं  हर जगह प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियाँ कही गणेश जी की सुंड कही कान दिखाई देते हैं सच में एसा लगता है गणेश जी अपनी किस्मत पर रोते होंगे और दुर्गत पर भी ....इसका एक बेहतर उपाय है इको फ्रेंडली मूर्तियाँ  पर लोग उन्हें अपनाते नहीं और सार्वजनिक पंडालों का स्टार तो जेसे गणेश जी मूर्ति के साइज से नापा जाता है जिसकी मूर्ति बेहतर वो पंडाल बेहतर ,वहा चंदा ज्यादा ...और गणेश जी बन गए धंधे का हिस्सा .....
काश लोग एक छोटी इको फ्रेंडली मूर्ति की स्थापना करे और जो पैसा बचे उसका कही बेहतर जगह प्रयोग करे ......तो पर्यावरण भी बेहतर हो और जरूरतमंद की मदद भी....

उम्मीद हे आज नहीं तो कल ताक पर रख दिया गया दिमाग उतारा जाएगा और उसका सही प्रयोग किया जाएगा  ताकि एसे सार्वजनिक उत्सव सिर्फ शोर शराबा ना लाएं  बल्कि कई जरुरतमंदों के लिए खुशियाँ भी ले आए.... 
ये लेख मीडिया दरबार   और भास्कर भूमि पर भी देखा जा सकता है 
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Monday, September 17, 2012

नाउ प्रेक्टीकल प्रेमीझ आर इन ट्रेंड


प्रेम के प्रतिमान बदल गए हैं और इनका बदल जाना निश्चित भी था जब रिश्तों के लिए हमारी विचारधारा बदल गई ,जिंदगी में रिश्तों के मायने बदल गए ,घर बाहर इंसानों  की भूमिकाएं बदल गई तो प्रेम का बदल जाना कोई नई बात नहीं ...लोग कहते हैं प्रेम को पढने वाले कम हो गए पर मुझे लगता है प्रेम को करने वाले कम हो गए हैं  जबकि पढने वालो की संख्या तो बढ़ रही है  क्यूंकि प्रेम करना अब उतना आसान नहीं रहा (वैसे पहले भी आसान नहीं था) शायद इसीलिए लोग प्रेम पढ़कर जीवन में प्रेम की पूर्ती कर लेते हैं अब सामाजिक दीवारें तो हैं ही साथ ही साथ प्रेक्टिकल  विचाधारा ने भी प्रेम की राह में रोड़े अटकाना प्रारंभ कर दिया है .
बदलती जीवनशेली ने प्रेम को सबसे बड़ा झटका दिया है सामान्य  तौर पर प्रेम करने की उम्र १६ से २२,२३ वर्ष की मानी जा सकती है पर आजकल ये समय लड़का और लड़की दोनों के करियर बनाने का होता है ,प्रेम के अंकुर नहीं फूटते ऐसा नहीं है पर शायद प्रेक्टिकल सोच की खाद प्रेम की खाद से ज्यादा असर करती है और वो अंकुर उतनी तेजी से नहीं बढ़ते .....

वैसे ये सच है प्रेम की कोई उम्र नहीं होती पर परिपक्वता की ,समझदारी के आने की और बचपने के जाने की एक उम्र होती है ...ये बात जिन पालकों ने समझ ली उन लोगो ने अपने बच्चो के बचपने को एक एसी राह पर पर डाल दिया जहाँ उन्हें अपना सुनहरा भविष्य दिखाई देता है प्रियतम के सपनो की जगह उजले भविष्य और कुछ कर दिखाने  के जज्बे के सपने आँखों में घर कर जाते है...एक तरीके से देखा जाए तो ये सही है क्यूंकि बचकाना प्रेम और आवेश में उठाया गया कदम कई बार भारी पड़ता है जबकि समझदारी आने के बाद किया गया प्रेम और लिए गए निर्णय बच्चो को भटकने से बचा  लेते हैं ....

ये एक तरह का संधिकाल है जब कॉलेज जाते घरों से बाहर निकलते बच्चे प्रेम में तो पड़ते हैं पर थोडा प्रेक्टिकल होकर सोचते भी हैं लड़के २७,२८ की उम्र तक पढाई और करिएर में व्यस्त रहते हैं और भारत के बहुत बड़े हिस्से में आज भी लड़कियों के लिए शादी की सही उम्र २४, वर्ष है एसी स्तिथि में कई बार लड़के ठीक ढंग से पैरों पर खड़े हो जाने तक शादी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते  और लड़कियां बहुत लम्बे समय तक इंतज़ार ना कर सकने की मजबूरी के कारण कही और शादी  कर लेती हैं . अलग अलग लोगो की नज़र में इसके अलग अलग मायने हो सकते हैं ,कुछ लोग इसे बेवफाई, धोखा जेसे नाम भी देते है पर ये आज का सच हैं...आज की आधुनिक पीढ़ी का सच...और ऐसा   सच जिसमे गलत कोई नहीं दोनों अपनी अपनी जगह सही हैं 

आजकल कई एसे जोड़े  मिल जाएँगे जो चाहकर भी शादी  के बंधन में नहीं बंध  सकते यहाँ तक की समाज के विरोध की तो नोबत ही नहीं आती क्यूंकि युवा स्वयं ही परिस्थितियों को देखते हुए पीछे हट जाते हैं...या कहा जाए तो प्रक्टिकल सोच के चलते प्रेम की पीगें नहीं भर पाते....ऐसा ही कोई निर्णय हर तीसरा युवा लेता दिखाई देता है दोस्ती होती है प्यार होता है और फिर शादी ना हो पाने की अलग अलग परिस्थतियों के चलते  प्रेमी "गुड फ्रेंड "की श्रेणी में आ जाते हैं इनमे से कई तो वर्षो तक अच्छी दोस्ती निभाते भी हैं और एक दुसरे को किसी तरह का दोष देते भी नहीं दिखाई देते ...

कहने को कितना ही कहा जाए आज की पीढ़ी दिशा विहीन है पर सच तो ये हैं की जितनी समझदार और मानसिक रूप से सुद्रढ़ आज की पीढ़ी है वो लोगो की सोच से भी परे है ...जितनी संवेदनाएं, प्रेम और समझदारी आज की पीढ़ी  के इन प्रेक्टिकल प्रेमियों में हैं उतनी कम ही लोगो में देखने मिलेगी...इसमें कोई दोमत नहीं की घर के माहोल और माता पिता के संस्कारों ने उन्हें एसा बनाया है और ये माता पिता उस पीढ़ी के थे जो अपनी चाहतो को पूरा नहीं कर पाए तो उनने कुछ समझदारी भरे सपने अपने बच्चो की आँखों में दिए....और उन्हें सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता भी दी .

जब भी इस तरह का कोई मुद्दा उठता है तो मुझे लगता है  ये परिवर्तन का दौर है प्रेम विवाह आज नहीं तो कल सभी घरों में होंगे पर मुख्य मुद्दा ये है की किस तरह से इन प्रेम विवाहों को भटकाव के दौर की जगह समझदारी भरे प्रेम विवाहों में बदला जाए और  गलत ढंग और गलत रीति से परिवर्तन को अपनाने की जगह समझदारी भरे निर्णय लेने वाली पीढ़ी तैयार की जाए जो जिंदगी को जुए की तरह ना खेले...इन पंक्तियों को पढ़कर कई लोगो को शायद ये लगे की में प्रेम के विरोध में बात कर रही हू ,या प्रेम तो दिल से किया जाता है दिमाग का इसमें क्या काम ? सहमत हू इस बात से पर में ये भी मानती हू की प्रेम दिल से किया जाता है पर जिंदगी  दिल से नहीं जी जाती ...कोई प्रेम तभी सफल हो सकता है जब उसके पीछे प्रेम भरी दुआएं हो और हाँ प्रेम करने वालों को आटे दाल का सही भाव पता हो...

आज की पीढ़ी में एसे लोगो की संख्या बढ़ रही है जो प्रेम में गैर जिम्मेदाराना हरकत करने के स्थान पर समझदारी भरे प्रयास करते हैं और निर्णय भी उसी ढंग से लेते है ये संख्या कम है पर ये युवा आने वाली युवापीढ़ी के लिए आदर्श का काम करते हैं या भविष्य में कर सकते हैं....और जिस दिन प्रेम में जिम्मेदारी की ये भावना भी समाहित हो गई प्रेम का एक अलग ही आयाम दिखाई देगा....

(पूरा लेख पढने वालो को प्रेक्टिकल विचारधारा वाला लग सकता है पर ये बदलती विचारधारा बदलते युवाओं का प्रतिनिधि लेख है पर ये सच है प्रेम का अर्थ सिर्फ पाना नहीं ....) इस पोस्ट को भास्कर भूमि  एवं मीडिया दरबार  पर भी देखा जा सकता है

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Tuesday, September 4, 2012

"मैंने कहा था"


"मैंने कहा था" उसकी जिंदगी का हिस्सा है 
ज़िन्दगी में मौजूद हर शख्स 
बस ये तीन लफ्ज़ बोलकर 
अपनी हर चिंता से मुक्त हो जाता है 
या स्वयं को शासक और उसे सेवक 
की जगह खड़ा कर देता है हर रोज़ 

सुबह से लेकर रात तक वो 
"मैंने कहा था" में उलझी रहती है 
 अब तक नहीं हुआ ये काम
मेरे जूते धुप में रखना
स्त्री के कपडे दे आना
खाने में ये बनाना
इस रिश्तेदार से एसे मिलना
उससे  एसे बात करना 
इस त्यौहार पर ये रीत निभाना
घर आँगन एसे सजाना
बच्चो को ये सब सिखाना 

और भी ना जाने कितने 
"मैंने कहा था" के साथ जुड़े वाक्य 
और कहा अधुरा रह जाने पर जुडी कडवी बात 
हर रोज वो अपने आस पास मंडराती देखती है .
अलग अलग लोग पर बस तीन शब्द 
जिन्हें बोलकर वो आज्ञा देते हैं 
और वो करती है कोशिश हर
मैंने कहा था को पूरा करने की 
सारे "मैंने " सारे "मैं" उसके आगे
 विकराल रूप धारण करते हैं
और वो हर रोज़ सोचती हैं
वो भी तो कुछ कहती है
कभी सुना है किसी ने ? 


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Monday, September 3, 2012

मिलोगे बस मेरे दिल में ....

इस कविता में इक खास बात है इसे लिखते समय पैराग्राफ की तरह लिखा गया फिर जाने क्यों लगा कविता सी हो गई तो बस कुछ पंक्तियों में शब्द कांटे छांटे   एंटर मारा और बस ये कविता बन गई अब कितने लोगो को ये कविता लगेगी नहीं जानती .....

 जिंदगी का हर कतरा जेसे इक ख़त 
 मैं तुम्हे लिखती थी लिखती हू 
 लिखती रहूंगी जब तक साँस है 
हर शब्द ,उम्मीद से  है 
हर मात्रा जन्म देती है तेरे अहसास को 
हर नुक्ते का ख्वाब तुम्हारे दिल में 
हर्फ़ (शिलालेख) सा ख़ुद जाने का, 
ये बात शायद तुम समझ गए
तभी तुम्हारा दिल शिला हो गया .....

 मेरा ये इश्क पन्ना दर पन्ना
मुझे अमृता बना देता है 
तुम भी मेरे कल रहे ?
शायद कल भी रहो ?
पर ना जाने क्यों
तुम मेरे इमरोज़ (आज) नहीं होते 
एसे ही बस ये ख़त भी बढ़ता जाता है 
और स्याही भी खत्म नहीं होती...

कहने को तुम फकीर से हो
पर मेरे दर पर नहीं आते 
मेरे लिए तुम शहंशाह सी 
शक्शियत के हो जाते हो 
जो इश्क तुम्हे चाहिए 
वो मुझे देने आना होता है दस्तक देकर 
प्यासे और कुए का अंतर नहीं होता......

लोग मेरे दर पर आकर 
तुम्हे पुकारते हैं 
शायद जानते हैं तुम चाहे 
दुनिया में कहीं भी देखे जा सकते हो 
सड़कों पर,नदी किनारे या भीड़ में गुमसुम 
पर मिलोगे बस मेरे दिल में .....

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