वो पकड़ता है वो रुपैये भीचकर मुट्ठी में
सोचता है दे मारू मुनीम के मुह पर अभी
कर दू हड़ताल और मांगू अपने हिस्से के पूरे पैसे
फिर याद आता है ठंडा पड़ा चूल्हा ,
रोटी और नमक का भाव
घर में भूखे बैठे बीमार माँ बाप
और तभी उसकी क्रांति के लाल और काले झंडे
बदल जाते है शांति के सफ़ेद कबूतरों में
और वो भींच लेता है उन रुपयों को हाथों में जोर से
वो सोचती है अभी गाली दू कहु "दे मेरे हिस्से के सारे पैसे "
फिर याद आता है घर पर रोता दुधमुहा बच्चा
और याद आता है वो खाना जो इस पैसे से खरीदा जाएगा
तभी उसकी सूखी छातियों में दूध उतरेगा
बच्चे को पिलाने के लिए , जिन्दा रखने के लिए
और फिर सारा हिसाब किताब किनारे रख
वो चल पड़ती है पैसे लेकर लाला के पास
वो मुनीम भी सोचता है की इन्हें इनका हक मिलना चाहिए
पर वो जानता है वो भी नौकर है किसी का
और ये भी जानता है की वो भी अपने हक के लिए नहीं लड़ पाया
क्यूंकि किताबों में लिखी कई सारी बातें
असल जिंदगी में फेल हो गई
मुन्नी के स्कूल की फीस देना बाकि है अभी
और हर बार ऐसी ही कोई न कोई बात रोक लेती है
उसे भी विद्रोही हो जाने से
वो सब कभी न कभी सोचते है विद्रोही हो जाने के बारे में
पर वो सब कभी न कभी मजबूर होते हैं
वो सब जानते हैं सही क्या है ,क्रांति क्या है
पर वो सब जानते हैं चूल्हों की धधकती आग
किसी लाल सलाम से लाल नहीं होती
वो सब जानते हैं क्रांति खून मांगती है
पर ये भी जानते हैं की भूख ये सब नहीं समझती
भूख बस एक आवाज़ सुनती है रोटी की आवाज़
क्रांति की आवाज़ भूखे पेट नहीं सुनाई देती
उनके लिए पसीना देना आसान है ,शायद खून देना भी
पर मुट्ठी में भींचे हुए पैसे देना नहीं .............
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