Friday, December 30, 2011

कोई बात यू बाहर नहीं जाती

वो आजकल गज़ब के उदास दिखते हैं
मुस्कराहट भी चेहरे पर खुलकर नहीं आती
खिडकियों की चुगलियों का खेल  है सारा
वरना कोई बात यू बाहर नहीं जाती

ताउम्र कोई किसी के गम में नहीं रहता
याद आती है मगर उतनी मयस्सर नहीं आती
किसी की सिसकियों का असर ही रहा होगा
यूं तो बरकत भी छोड़कर किसी का घर नहीं जाती


खामोशियों को सुनने की आदत डाल लो
किस्मत हर बार  कुण्डी  बजाकर नहीं आती
तुम  यूँ ग़मज़दा ना रहो ,कल फिर आएगी
"दौलत" साथ लेकर  किसी का मुकद्दर नहीं जाती

इन सरगर्मियों से यूं ना बेज़ार हो जाओ
इन्कलाब की मंजिल थाल में सजकर नहीं आती
वक़्त  और सब्र की कीमत देनी ही पड़ती है
मुसीबतें कभी  आराम से चलकर नहीं जाती

Monday, December 26, 2011

आस का दीपक जलाना चाहती हूँ

 आस का दीपक जलाना चाहती हूँ
आज फिर से मुस्कुराना चाहती हूँ 

कोई पलकें ना बिछाए
फूल चाहे ना खिले
बहार का मौसम चाहे
ना मिले आकर गले
मैं सुप्त खुशियों को जगाना चाहती हूँ
आज फिर से मुस्कुराना चाहती हूँ..


ना सुने व्यथा कोई
ना कोई पथ-कंटक चुने
आग सी तपती धरा पर
साथ कोई ना चले
ख़ुद ही स्वयं का संग निभाना चाहती  हूँ 
आज फिर से मुस्कुराना चाहती हूँ...

कोई चाहे सुनकर मुझे
अनसुना सा कर चले
मेरे शब्दों में अब चाहे
प्रेम सागर ना ढले
फिर भी कोई गीत गाना चाहती हूँ 
आज फिर से मुस्कुराना चाहती हूँ ....

पंथ का भटका मुसाफिर
लौट मुझ तक  आए ना
पर मुसाफिर बिन साथी के
उम्र भर रह जाए ना
मैं हर मुसाफिर का ठिकाना चाहती हूँ
आज फिर से मुस्कुराना चाहती हूँ .....

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Monday, December 19, 2011

parwaz परवाज़.....: बोलो चलोगे मेरे साथ ?will you come with me?

parwaz परवाज़.....: बोलो चलोगे मेरे साथ ?will you come with me?: मोहब्बत में गिरफ्तार ना होना तुम्हारे बस में ही नहीं था ना मेरे बस में था....तुम्हे क्या जंच गया या मुझे क्या भला लगा अब इस सब की बातें बेमा...

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बोलो चलोगे मेरे साथ ?will you come with me?

मोहब्बत में गिरफ्तार ना होना तुम्हारे बस में ही नहीं था ना मेरे बस में था....तुम्हे क्या जंच गया या मुझे क्या भला लगा अब इस सब की बातें बेमानी सी लगती है....अच्छा तो बस ये लगता है की इक गहरी सुरंग हो अँधेरे से भरी और हम दोनों हाथ थामे घने अँधेरे मैं इक दुसरे के साथ चलते जाए....बस अहसास हो इक दुसरे का, पर इक दुसरे को देख ना सके बस हाथ में हाथ महसूस हो और हम दोनों बस इक दुसरे के साथ में मगन चले जा रहे हो बस चले जा रहे हो...तभी अचानक से कही से इक बारीक सी रौशनी की किरण दिखाई दे जो हम दोनों के चेहरे पर देखे जा सकने जितनी रौशनी डाले ....और ! और एसा महसूस हो जेसे हम दुसरे को पहचानते ही ना बरसो से देखा ही ना...बुढ़ापे की लकीरें सी दिखाई दे चेहरे  पर जैसे बरसो से चल रहे हो और कितना समय निकल गया इस अहसास ने छुआ तक ना हमें....बस उम्र का कुछ असर दिखे. तुम मुझे देखकर थोडा सा मुस्कुराओ और  मै अपनी चिर परिचित शैली में  तुम्हारे सर में हाथ फेरकर मुस्कुराते हुए  कहू - आपके तो बाल सफ़ेद हो गए....और तुम ? तुम बस अपने अंदाज़ में गुस्सा करते हुआ बोलो बाल मत बिगाड़ मेरे.....और में हमेशा की तरह रुआंसी हो जाऊ.....बस वही उसी जगह इक हंसी खेल जाए दोनों के चेहरों पर और वो रौशनी चली जाए...बस वही उसी जगह मैं तुम्हारा हाथ पकडे हुए उसी रौशनी के साथ इस दुनिया से चली जाऊं ......वही तुम्हारी मुस्कुराती सूरत अपनी आँखों में लिए  हुए....और तुम भी बची हुई सारी उम्र मेरी वही मुस्कुराती हुई सूरत याद रखो.....बोलो क्या कहते हो?चलोगे मेरे साथ उस सुरंग में.........?

....गुस्सा आ रहा है ना ? जानती हू तुम्हे ये मरने की बातें पसंद नहीं....पर में क्या करूँ मै हमेशा से तुम्हारी बाँहों मै मुस्कुराते हुए दम तोडना चाहती हू ,चाहती हू साँस की डोरी ऐसे  अचानक से टूट जाए  जैसे बचपन में बनाया हुआ हमारा चुविंगगम  का बबल अचानक से फूट जाता था ....और उसके बाद भी हम मुस्कुराते से रहते थे....ठीक वेसा ही कुछ तुम्हारे साथ हो......तुम जानते हो नशा मैं  नहीं करती पर शायद अब महसूस कर सकती हू की मालबोरो का क्या असर होता होगा लोगो पर और २ पेग व्हिस्की क्या असर करती होगी.... लोग कहते है शराब का नशा होता है पर मोहब्बत और नफरत का नशा भी उतना ही गहरा होता है या देखा जाए तो ज्यादा गहरा होता है  रम तो चढ़कर उतर सकती है पर मोहब्बत बस चढ़ती ही जाती है....चढ़ती ही जाती है...

.सच कहती हू ये मुंबई का मौसम मेरी जान ले लेगा कोई बदलाव ही नहीं...बस बरसात और गर्मी . सर्दी जैसा तो कुछ है नहीं और बरसात को  भी क्या सावन जैसी कहू... बस बरसात सी होती है कुछ सावन जैसा नहीं....जानते हो कभी सपना देखती थी इक आम का बगीचा हो जिसमे झूला हो और हम दोनों उस पर बैठकर झूलें...जानती हू अगर तुमने सुना तो तुम हसोगे और कहोगे  बेंडी(पागल) है तू तो एसे फ़िल्मी सपने ना देखा कर थोड़े प्रक्टिकल ख्वाब देख. ठीक वैसे ही जैसे जब मैंने इक बार तुम्हे कहा था मैंने सपने मैं २५ रूपए के सिक्के देखे तो तुमने  कहा था सिक्के मैं भी देखता हू कभी कभी पर १,२ रूपए के.... तेरे सपने हमेशा हवाई ही होते है.....सच ही कहते हो तुम हवाई सपने देखती हू....जैसे हम तुम दोनों सारी दुनिया से दूर इक उड़न खटोले में जा रहे हो....और अचानक से तेज़  हवा आए और उड़न खटोला पलट जाए  दोनों जैसे बहुत पास से मौत को देखे .....तुम कसकर मेरा हाथ थाम लो.... ठीक उसी पल तुम इश्वर  से मेरी लम्बी उम्र की दुआ मांगो औरमैं हमेशा की तरह की अपनी बची हुई उम्र तुम्हारे नाम कर दू....तुम नीचे गिरते हुए किसी पेड़ पर अटक जाओ और मैं? मेरा शरीर तुम्हे कभी ना मिले क्यूंकि मैं जानती हू तुम मुझे एसे नहीं देख सकते ..शांत, कुछ ना बोलती हुई ,तुम्हे तो मेरे बक बक करने की आदत हो गई है ना......?

बस में वही से सीधे ऊपर चली जाऊ....पर अपनी आत्मा की मुक्ति डोर तुम्हारी सासों के साथ बांध जाऊ.....और उसी शय में परी  बनकर  मेरी बची हुई उम्र जो मैंने तुम्हारे नाम की थी उसके ख़तम होने का  इंतज़ार करू....सच कहती हूँ मैं बिना दुःख दर्द के बस तुम्हारे साथ का इंतज़ार करुँगी....तुम कोई जल्दी मत करना....तुम्हारा इंतज़ार भी मेरे लिए प्यार से कम ना होगा.....सोचो अगर ये सपना सच हो तो चलोगे मेरे साथ उस उड़न खटोले में ? बोलो क्या कहते हो?
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Tuesday, December 13, 2011

माँ की दुआओं के भरोसे ना रहो

आज भी कुछ बातें कुछ कविताएँ....वेसे इन्हें बातें कहने की जगह डायेरी  के पन्ने कहेंगे तो अच्छा होगा...अलग अलग जगह लिखकर छोड़ दिए गए टुकड़े है .....

६/१२ /२०११
कभी किसी को इंतज़ार  करते देखा है ? मैंने और तुमने दोनों ने बहुत इंतज़ार किया है या शायद आज भी कर रहे है....किसी के लौट आने का इंतज़ार शायद  उतनी तकलीफ नहीं देता जितना ये पास पास साथ साथ रहकर एक दुसरे का इंतज़ार करना तकलीफ देता है ,ये इंतज़ार छेद देता है मन को ,ऐसा लगता है जेसे कोई बेहाल पंछी बहार का इंतज़ार कर रहा हो जो आती दिखेगी नहीं पर आएगी तो सब कुछ सुन्दर हो जाएगा...और सच कहू इस इंतज़ार को लिखना और भी गहरी पीड़ा देता है ठीक वेसी पीड़ा जैसे कोई बड़ी मुश्किल से दबे हुए अपने ज़ख्मों को ख़ुद अपने ही हाथों से कुरेद रहा हो.......फिर भी में लिखती हू हर रोज़ और तुम अपने यंत्रों में खोए शायद बिचारे गूगल पर  इस इंतज़ार को खोजते हो....बड़ा  अँधा भटकाव है पर एक उम्मीद की किरण है......

१०/१२/२०११
की तुम भूल जाना मुझे ,जब मैं चली जाऊ इस इक भीड़ भरी दुनिया को छोड़कर इक दूसरी भीड़ भरी दुनिया में....पर वैसे नहीं जैसे लोग अपनों को भूलने की कोशश कर कर के भूल जाते है, तुम मुझे बस अचानक से भूल जाना...ठीक वैसे ही जैसे कोई लड़का भरी दोपहर में गुलाब के बाग़ में से चुनचुनकर इक इक कली सहेजे किसी को देने के लिए, और सारी शाम ढल जाए पर वो उसकी आँखों  में इतना खो जाए की सारी कलियाँ इंतज़ार  करें पर वो देना भूल जाए...की जैसे मैं तुम्हारे लिए प्रार्थना करने सेंकडो सीढियां चढ़कर मंदिर में जाऊं  पर वहा जाकर  घंटानाद की ध्वनि में तुम्हारी ही भक्ति में खो जाऊ और तुम्हारे नाम की पूजा करना भूल जाऊ....की जैसे दो प्रेमी इक दुसरे के साथ घंटों  पैदल चलकर  कही दूर आइसक्रीम  खाने जाए और धीरे धीरे इक दुसरे का हाथ पकड़कर चलना उन्हें इतना भला लगे की सारी आइस क्रीम पिघल जाए....की जैसे रात भर चोकलेट की जिद करता बच्चा सुबह सुबह खेलने के चक्कर में अपनी जेब में पड़ी  चोकलेट भूल जाए....तुम बस एसे ही अचानक से मुझे भूल जाना की तुम मुझे याद करोगे तो मैं तुम्हे रोते नहीं देख पाऊँगी....तुम बस अचानक से भूल जाना मुझे की तुम्हारी यादों में जीकर तुम्हारे  तिल तिल होकर रीतने को ना सह सकुंगी....की मैं चाहती हू की जेसे मैं जाऊ इस दुनिया से तुम्हारा ढेर सारा प्यार लेकर ठीक वेसे ही तुम खुश से होकर इस दुनिया से जाओ....की हम फिर मिलेंगे उस दूसरी भीड़ भरी दुनिया में क्यूंकि वहा में तुम्हारा इंतज़ार करती मिलूंगी....की इस बार तुम्हे कुछ याद ना होगा तो, तो उस दुनिया में तो ,मैं तुम्हे "आई लव यु"  कहूँगी.........

अब कुछ कविताएँ....या मुक्र्तक या और कुछ जो भी आप कहना चाहे...

1) ज़रा सा बाँधकर रख ले मैं इक उड़ता परिंदा हूँ
हवाओं का करूँ मैं क्या तेरी सांसो पे जिंदा हूँ...

2)
दो प्रेमियों का साथ कुछ दीपक बाती सा होता है
तेरे मेरे सा कुछ नहीं बस "हम" जेसा कुछ होता है
चकोर बिन चंदा ,लहर बिन सागर जेसे कहीं  अधूरा है
वेसे ही विरह में जलता कोई "प्रेमी-जोड़ा" है
मधुबन प्यासा,नदी अतृप्त ,मौसम सूना होता है
प्रलय  के बहाने  इश्वर भी आंसू भर भर रोता है

3)
उसकी आँखों के आंसू तुम्हे ना जीने देंगे
वो कहती नहीं कुछ शायद कहने से डरती है
इस कदर माँ की  दुआओं के भरोसे ना रहो
दिल से निकली बददुआएं ज्यादा असर करती है

यूँ जिंदगी को मैखानो की नज़र ना करो
मय के प्यालों में ही ख़ुशी की उम्मीद गलती है
ज़रा नज़र भर के कभी अपने घर की जीनत  देखो
कोई लड़की सारी रात इंतज़ार-ए -तुम में बसर करती है


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Tuesday, December 6, 2011

और तुम मुझसे मोहब्बत कर बेठे .....Why You love me?

parwaz:love or friendship
तुम कैसे मुझसे मोहब्बत कर बैठे ? .....बस लिखती ही तो  हू और तो कुछ नहीं करती बरसो पहले मिली थी तुमसे पर उस मिलने को हाई हेल्लो से ज्यादा का मिलना नहीं कहूँगी शायद तुम भी ना कहो .बाकि तो फिर कभी मिले नहीं हम बस चिट्ठियां लिखी मैंने तुम्हे और तुमने sms भेजे जवाब में ...  कोई सुनेगा तो कहेगा आजके ज़माने में ये चिट्ठियां क्यों ? पर दुनिया क्या जाने जो बात स्याही से पन्नो पर उतरे शब्दों में होती है वो फोन और sms में कहाँ .....तुम भी तो कितना हँसते थे जब मेरी कोई चिट्ठी मिलती थी तुम्हे .....पर उन्ही चिट्ठियों को तुमने अकेलेपन में सीने से लगाकर दिल की बातें की .....अपना दर्द, ख़ुशी सब उनसे बाँट लिया और तुम्हे मेरे इन खैरियत पूछने वाले खतों से प्यार हो गया....शायद वैसे ही जैसे लोग कहते हैं दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है....और एसे ही तुम मेरे खतों से प्यार कर बठे और शायद मुझसे भी....और मैं? मैं तो बस तुम्हारे sms पढ़ती तुम्हारी खेरियत जानकार खुश हो लेती .....

मुझे तुमसे प्यार कैसे होता मेरे पास आंसुओं से गीले करने के लिए तुम्हारा कोई ख़त ना था कोई याद ना थी.....कोई शब्द ना थे....जिन्हें में भूले बिसरे गीतों की ही तरह ही गुनगुना लू.....अब तुम मुझे दोष देते हो की क्यों मैंने भी तुमसे प्यार ना किया...मुझे  बेवफा  कहकर  बदनाम  करते  हो  सारे  जहां  में ...मेरी दोस्ती को भी ठुकराए जाते हो.......पर....तुम्ही बताओ कैसे होता मुझे प्यार?....अब मेरा क्या कुसूर  जो तुम मुझसे मोहब्बत कर बैठे .........

तुम बार बार कहते हो मैं तुम्हे छल गई पर मुझसे ज्यादा कौन छला गया इस दुनिया में ये बताओ तो ज़रा...? मेरे किस ख़त मैं मैंने तुम्हे प्रेम किया ? तुम्हे ये  अहसास दिलाया की तुम मेरे जीवन आधार बने जाते हो? कब कहा मुझे प्रेम है तुमसे ?कौन सा ख़त कहता है की मैं तुम्हे विरहनी की तरह याद करती हू......? मैं तो हर बार अपने शब्दों को तुम्हारी खेरियत की दुआ से जोडती रही....तुम्हारी तरक्की के लिए किए हुए सजदे को शब्दों  में पिरोती रही.....मेरे कौन से शब्दों में तुम्हारे मन मैं प्रेम के अंकुर को जनम दिया.....मैं क्या जानु ? अब तुम ही बताओ तुम तो जिंदगी भर मुझे दोष देकर जी लोगे और शायद जल्दी ही मुझे भूल भी जाओगे पर मैं ?मेरा क्या होगा  मैं तो सारी उम्र इस आग में जलती रहूंगी की मैंने तुम्हारा दिल दुखा दिया ....तुम जो मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो.....तुम ही बताओ ए मेरे दोस्त मैं क्या करू?

मेरा बस चलता तो उन खतों में जाकर सारे शब्द नोच लाती ,तुम्हारी यादों के समुन्दर में उतरकर  मेरी हर याद को खींच लाती ...काश एसा कोई यन्त्र होता जिससे खतों की सारी स्याही सोख ली जाती और ये ख़त कोरे कागज़ बन जाते..... इसके साथ मै तुम्हारे मन में उतरे हर शब्द को भी खीच लाती वापस अपने पास.....और जला देती कही ले जाकर...... पर मैं क्या करू ? मैं तो कुछ नहीं कर सकती अब.....तुम्हे जितना दुःख अपने एक तरफा प्रेम के ना मिल पाने का है उससे कहीं ज्यादा दुःख मुझे अपने सबसे ज्यादा अच्छे दोस्त के खो जाने का है......पर तुम कैसे समझोगे मेरा दर्द तुम तो प्रेम किए बेठे हो मेरे उन निर्जीव खतों से ....पर ये दुःख से हलकान हुई जाती जीवधारी दोस्त तुम्हे दिखाई नहीं देती ? दिखेगी भी कैसे ?तुम तो अपने ही दुःख के अंधे कुए में डूबे  जाते हो.....

सोचती हू मै भी तुम्हारी तरह  sms  वाली हो जाऊ अब...आज का ये ख़त तुम्हे आखरी ख़त है अब ना लिखूंगी कोई ख़त.... बस इधर उधर से आए sms भेज दिया करुँगी सबको हाय हल्लो लिखकर....अब तो मन करता है अपने सारे ख़त लोगो से वापस मंगवाकर  उनमे आग लगा दू.....ना जाने कब कहाँ उनसे प्रेम का अंकुर फूट जाए और एक एक करके मेरे सारे अपने छूट जाए ....पर में जानती हूँ मै आदत से मजबूर हूँ....लत लग गई है मुझे लिखने की शायद लिखना और जीना एक सा हुआ जाता है मेरे लिए अब......

अब बस एक ही काम हो सकता है सबके लिए ख़त लिखती रहू पर उन्हें पोस्ट ना करू.... एक बक्से में जमा कर लूँगी....और उस बक्से की चाबी मेरी वसीयत के साथ रख दूँगी जिस दिन में मरूंगी तब मेरी वसीयत में ये सारे ख़त उन सारे लोगो के नाम लिख जाउंगी जिनके लिए ये लिखे गए हैं......तुम भी उसी दिन आना तुम चाहे मुझे बेवफा कहकर भूल जाओगे पर में जिंदगी भर अपने सबसे अच्छे दोस्त के नाम के ख़त जमा करती रहूंगी....मेरे मरने के बाद तुम अपनी अमानत ले जाना........पर कसम है तुम्हे इस अधूरी दोस्ती की... मेरे शब्दों से...मेरे खतों से फिर मोहब्बत ना कर बेठना.....

तुम्हारी दोस्त....

Sunday, December 4, 2011

Dirty Picture :Dignity and dirtiness Together...With Entertainment Entertainment and Entertainment....

Dirty Picture
उन सभी लोगो से शुरुआत में ही माफ़ी मांगती हू जो मुझसे बहुत ही सीरियेस  और बहुत ही गहराई भरी लेखनी की उम्मीद करते है हो सकता है वो लोग ये रीव्यू  पसंद ना करें....
तो कल मैंने यानि की हमने Dirty picture देख ही ली सच कहू तो इस फिल्म को देखने का मेरा ख़ास मन नहीं था अब कारण ठीक से बता नहीं सकती पर मुझे लगता है कारण इसके तन उघाडू टाइप के प्रोमो थे और सच कहू तो एकता कपूर की क्या कूल है हम जेसी फिल्में टी वी पर आधी अधूरी देखने के बाद मन में ये बात थी की इसमें भी द्विअर्थी संवाद और फूहड़पन होगा...तो फिर देखी क्यों ?ये भी ठीक से बता नहीं सकती पर शनिवार का दिन बहुत टेनशन  भरा था .आफिस  में भयंकर तरीके से समस्याएं  थी दोपहर में लोकेश का फ़ोन आया मूवी देखने चलना है क्या? चलना हो तो बोल dirty picture के टिकिट  बुक करवा लेता हू पर तेरा मन ना हो तो हाँ मत करना ( उन्हें भी शायद ये बात पता थी की में इस मूवी को देखने के लिए थोड़ी भी उत्साहित नहीं थी) मैंने बोला हाँ ठीक है चलते हैं (रजत अरोरा के diolouges की तारीफ सुन ली थी किसी के मुह से) ,पर लोकेश भी जानते थे की ये आधे मन से की हुई हाँ है शायद उनने थोड़ी देर बाद फिर एक बार फ़ोन किया और पुछा तू पक्का चलना चाहती है ना?करवा लू ना टिकिट ? मैंने  फिर कहा हाँ करवा लो देख लेते हैं (बोलते बोलते मुझे भी लगा जेसे में अहसान कर रही हू किसी पर ये फिल्म देखकर शायद ये लोकेश को भी लगा हो मैंने पूछा नहीं ये )

अब बात करेंगे फिल्म की सच कहू तो ये फिल्म देखना मेरे लिए अलग अनुभव इसलिए रहा क्यूंकि ऐसा मेरी लाइफ में पहली बार हुआ जब पूरी फिल्म में थिएटर मैं बेठे लोग हर संवाद के बाद हँस रहे हो या ताली बजा रहे हो या फिल्म देखते देखते कुछ सीन एसे हो जिन्हें देखने की बजाए मैं थिएटर की छत  या अगल बगल के लोगो के चहरे देखना ज्यादा पसंद कर रही थी.....
बोल्ड कहानी,द्विअर्थी संवाद ,एक्सपोज़ देखा जाए तो यही सब है फिल्म में पर फिर भी कांसेप्ट दिल को छु लेता है और उससे ज्यादा गहरे तक उतरती है विद्या बालन ....गज़ब का काम किया है.... इस हद तक तन उघाडू रोल में भी इस हद तक की डिग्निटी !!! शायद विद्या बालन ही कर सकती थी....पूरी फिल्म में आपको द्विअर्थी और फूहड़ कहे जा सकने वाले संवाद मिलेंगे पर कसम से कहती हू इस हद तक द्विअर्थी लिखना और फिल्माना भी हर किसी के बस की बात नहीं कुछ तो बात है रजत अरोरा (लेखक) में.....

पूरी फिल्म एक हेन्गोवर  की तरह है फिल्म देखते देखते कभी कभी लगता है विद्या के हाथ से जाम लेकर दो घूंट ख़ुद भी लगा लिए जाए शायद फिल्म ज्यादा अच्छी लगे तब....ठीक वेसे ही जेसे इमरान हाश्मी एक सीन में विद्या से कहते हैं कुछ लड़कियां पीने के बाद अच्छी लगती है...शायद तुम भी अच्छी लगो पर जब ये हेन्गोवर उतरता है तो भी कहते है शराब उतर गई फिर भी तुम अच्छी लग रही हो तुमने मार दिया मुझे....कुछ संवाद तो सच में नक्काशी के जेसे बारीकी से तराशे से लगते हैं...जैसे एक संवाद में इमरान विद्या से पूछते हैं -आज तक कितनो ने touch  किया है तुम्हे ?और जवाब आता है touch तो बहुतों ने किया है पर छुआ किसी ने नहीं एक बरगी लगेगा संवाद कही सुना सा है पर फिर भी कहानी केसाथ बढ़ते हुए ये दिल को छु जाएगा.... .मन करता है लेखक का सजदा कर लिया जाए की एसा गज़ब कैसे  लिखा .....फिल्म कोई ख़ास सन्देश नहीं देती पर एक हल्का नशा छोड़  देती है दिलो दिमाग पर ......

देखा जाए तो तो पूरी फिल्म बाज़ारों और बिस्तरों के आस पास घूमती सी लगती है एक आम लड़की कभी कभी सुपर स्टार बनने के लिए क्या क्या कर सकती है, किस हद तक जा सकती है ये दिखाई देता है पर इस स्टारडम  को बनाए रखना कितना मुश्किल है ये झलक भी दिखाई देती है....सिल्क  यही तो नाम है विद्या बालन का और सच में जेसे सिल्क बनाने के लिए कई कीड़ों को मरना पड़ता है वेसी ही अनुभूति इस फिल्म को देखकर आती है पर यहाँ बारीक सा अंतर है यहाँ सिल्क बनने के लिए विद्या अपने अन्दर की रेशमा को मारती है ......और जब उसे ये अहसास होता है उसके अन्दर का खालीपन,मजबूरी,  दर्द सब मिलकर उसे मार देते है....

अस्सी के दशक की डांसर पर आधारित ये फिल्म आपको उस दशक में ले जाती है सिगरेट शराब ,इतने कम कपडे की उससे कम क्या होगा फिर भी आपको फिल्म देखकर शर्म महसूस नहीं होगी बस एक टीस सी महसूस होगी दिल में और शायद निर्देशक चाहता भी यही है ....फिल्म देखते हुए हर इंसान के मन में एक बार ये बात जरूर आई होगी की !@#$$ दुनिया जाए भाड़ में जीना तो बस ऐसे चाहिए और थोड़ी ही देर में वो हर इंसान अपनी इस सोच को भूल भी जाएगा...मतलब याद रखने को कुछ ऐसा नहीं जो गज़ब का हो पर फिर भी विद्या आप पर छाई  रहेगी लम्बे समय तक....और संवाद भी...फिल्म में कही भी गालियाँ नहीं है ना ऐसा कुछ कहा -बोला गया है जिसे हद दर्जे का घटिया कहाजाए  पर हाँ उसके घटिया मतलब निकले जा सकते है क्यूंकि द्विअर्थी संवादों से भरी है पूरी फिल्म...

गानों के मामले में मुझे सिर्फ दो ही गाने याद है ऊ- लाला  जो सबने हजारों बार सुना है और दूसरा "तेरे वास्ते मेरा इश्क सूफियाना" और सच कहू काफी टाइम के बाद इतना बेहतरीन गाना लिखा गया है (कल सेअभी तक गुनगुना रही हू....) और फिल्माया भी वेसा ही सुन्दर है और कोई निर्देशक होता तो एक गाने के लिए शायद विद्या को भी प्रेम की देवी टाइप या सूफियाना अंदाज़ में दिखाता पर मुझे यही बात अच्छी लगी फिल्म में जेसी बोल्ड वो है वेसा ही उन्हें दिखाया गया है और जेसे इमरान है अवार्ड विनिंग टाइप वेसा ही सूफी अंदाज़ में उनका प्यार दिखाया गया है....गहरा ,ठहरा हुआ, गंभीर .....

कुल मिलाकर फिल्म अच्छी है पर परिवार के साथ बैठकर देखने जेसी नहीं है .फिल्म में कई बुराइयां निकाली जा सकती है पर ये भी सच है जो लोग दिन में शराब की बुराई करते है उनमे से कई लोग रात के अँधेरे में जाम छलकाते मिल जाते  हैं....फिल्म आपको फिल्म इंडस्ट्री की बाहरी चमक से भरी दुनिया की  आंतरिक सडांध  की  dirty picture  दिखाती है ...फिल्म चल निकाली है और चलेगी क्यूंकि सच है कई बार  फिल्में सिर्फ तीन चीज़ों से चलती है entertainment,entertainment aur entertainment ...और वो इस फिल्म में है .....ऐसा entertainment जो फूहड़ होकर भी दिल को छु जाता है ,कोई ख़ास सन्देश नहीं देता पर फिर भी एक कहानी कह जाता है .... और सबसे बड़ी बात जितनी देर आप फिल्म देखते है कही और के बारे में आप सोचते नहीं और जब बाहर निकलते हैं तो चेहरे पर ३ घंटे अच्छे गुजरने की ख़ुशी होती है दूसरी बार देखने जाने जेसा कुछ नहीं पर एक बार देखना अच्छा है बाकि तोसबकी अपनी पसंद..... मुझे फिल्म देखकर मीना कुमारी याद आई वेसा ही कुछ शराब और सिगरेट के नशे में ,अकेलेपन से जूझता , डूबा हुआ ,अवसादग्रस्त अंत सिल्क का दिखता है एक क्ष्रण के लिए मर्लिन मुनरो याद आती है और याद आती है बशीर बद्र की वो शायरी "रात होने का इंतज़ार कौन करे आजकल दिन में क्या नहीं होता "..................



Thursday, December 1, 2011

बेवफाई ,विरह और दर्द

आज फिर इधर उधर से चुनकर कुछ पंक्तियाँ डाल रही हू....
            बेवफाई
बेवफा से हो मोहब्बत  इसमें गिला नहीं
पर हर शर्त  मुकम्मल हो फिर  ,रस्मे जुदाई की
दिल के ताब* जोड़ जोड़कर आज़माइश करो ख़ुद की (टुकड़े)
अब  सजा ख़ुद को ना दो ,उसकी  बेवफाई की

अपने पाँव के नीचे ख़ुद देखकर चलना
अँधेरी गलियों से क्या उम्मीदें रौशनाई  की
अपना ख़ुदा इन्तिखाब* करना अपने दिल पर है  (चुनना)
पर नाखुदा को ख़ुदा कहना भी नाकद्री है ख़ुदाई की

             विरह
ग़र  छोड़कर जा रही हो मुझे तुम
तो इतना सा मुझपर अहसान करना
अगर ज़िन्दगी में कभी फिर मिले तो
ना उम्रदराजी की दुआ देना,ना सलाम करना

खुदा से बस इतनी ख्वाहिश कर लेना
नज़र से नज़र ना मिले फिर हमारी
मेरी नज़रों से तुम दिल तक उतरती थी
मुश्किल होगा अब ये ग़मज़दा नज़र पार करना

              दर्द 
गुलाबजल की शीशियाँ समुन्दर में गर्क कर दी
आजकल आंसुओं से ही  आँखें साफ़ होती है
ख़ुद को आइना बनाकर गम की ताबीरें लिख दी
दर्द बढ़ने से  जिंदगी पढने काबिल किताब होती है


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Sunday, November 27, 2011

प्रेम तो बस प्रेम है

आज ज्यादा बातें नहीं बस २ अलग अलग ढंग की कविताएँ,लिखी है...आधार प्रेम ही है ....एक में आगृह है दूसरी में भक्ति का अंश....
1)

जानती हू तुम दिल की दिल में रखते हो
हमेशा शांत रहते हो कभी कभी बरसते हो
यूं सब समाकर ना रखो ,छलकता जाम हो जाओ
कभी तो खासपन छोड़ो ज़रा से आम हो जाओ 



 2)
तुम्हे देखकर ग़ज़ल कह ना दू मैं
महकता सा पावन कमल कह ना दूं मैं

तुम पहली किरण,चमकती ओंस सी हो
निर्मल सी, चंचल सी, निर्दोष सी हो

जहाँ अनंत प्रेम होता है ,उस अंक सी हो
हृदय मोती तुम्हारा तुम शंख सी हो

रुई का फाहा भी तुम्हे छुना  चाहे
कलंक ना लगे तुम्हे , इस बात से घबराए

कभी वन की चिड़िया कभी हिरनी सी चंचल
मूरत सी सुन्दर वेसी ही अविचल

तुम्हे प्रेम करने का सोचु भी कैसे?
तुम प्रेम की देवी, मैं हूँ  भक्त  जैसे ....
मैं वैराग धरकर तुम्हे पूजना चाहू
तुम पास बुलाओ पर मैं दूर जाऊं 
तुम्हारे प्रेम से डरता हूँ  मैं किंचित
रह ना जाऊं  कही तेरी भक्ति से वंचित.....

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Friday, November 25, 2011

अस्सी ,नब्भे पूरे सौ (100 followers and 26/11/2012)

सबसे पहले तो बहुत बहुत धन्यवाद् उन सारे १०० लोगो का जो मेरे ब्लॉग को फोलो  कर रहे हैं...आप लोगो की दुआओं से में लिख पा रही हूँ .कई दिन से प्रेम पर विरह पर लिख रही हू पर २४/११/२०१२ को शरद पवार जी के साथ जो हुआ ,सरकार ने बाहरी निवेश को लेकर जो निर्णय लिया उसपर कुछ पंक्तिया लिखी है...आज उन्ही को आपसे साझा  कर रही हू. कभी कभी मन अपने ट्रैक से अलग सोच लेता ये कविताएँ उसी के कारण जन्मी हैं...आखिर हम सब समाज का हिस्सा है और समाज  की घटनाओं का हम पर असर होना लाज़मी सा है ......

२४/११ को मुंबई में शरद पवार काण्ड का भारी  असर देखा गया.ऑफिस से घर जाने में पसीने आ गए लोगो को ,बस ट्रेन सब में गज़ब की भीड़ ,रोड़ो  पर जाम .......२५ को पुणे अमरावती और महाराष्ट के कई शहर बंद रहे बस वही सब दिल में आ गया.....
1)
 कही मौत का बढ़ रहा काम देखो
किसानो को पल भर ना आराम देखो
गरीबों की रोटी  के ना ठिकाने
शरीफ ही हो रहे हैं बदनाम देखो
आम इंसान जलता  है फर्क भी नहीं
लूट मची है सरे-आम देखो
जरा  सी चोट पर सारी मुंबई भड़का दी
एक थप्पड़ का क्या होता है अंजाम देखो 

२)
उसे कैसे इंसान कह दे बताओ 
जो शांति नहीं बस कलह चाहता है
धर्मों को बेदर्द दीवारें बनाकर
दिलों में दरारों का असर चाहता है  !१!

हमें यू ना बाटों, हमें यू ना तोड़ो की
हर इंसान शांति की सतह चाहता है
सबके अन्दर  छुपा वो हिरन का छौना
फुदकने की फिर से वजह चाहता है....

आधुनिकता जरुरी है,शायद सुविधजनक भी पर बात जब आधुनिकता से आगे बढाकर भारत में विदेशी  निवेश तक पहंची है तो मन में कुछ पंक्तिया आ गई जो पन्नों पर उतार दी.....
३)
कांदा -रोटी खाकर ही प्रभु के गुण गाएँगे
फटे हुए कपड़ों में रेशमी, पेबंद लगाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे (कांदे =प्याज़ )

जनता की नई इमेज होगी
 चाहे फटी कमीज़ होगी
जो थोडा बहुत गरीब कमाता
वो भी गोरे ले जाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे

ताज़ी सब्जी सपने में होगी
सोंधी खुशबु बस बातों में होगी
कोल्ड स्टोरेज  का कचरा
पेटों में भरते जाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे

जमाखोरी बढ़ जाएगी
अपनी चीज़ें महंगे पेकेट  में बंधकर आएगी
बासी पुरानी चीज़ खरीदकर
किस्मत पर इतराएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे


आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Thursday, November 24, 2011

अपनी खैरियत की दुआ मांग लेना....

पिछली पोस्ट में कहा था अलगाव,विरह जेसी भावनाओं पर बात करेंगे ,पर आज सोचा बातें दूसरी की जाए और  कविताएँ,त्याग,विरह और अलगाव की डाली जाए...आइस क्रीम के साथ हॉट चोकलेट जेसा फ्यूजन  बनाया जाए  कुछ एसी बातें जो अचानक दिल में आजाती है वो लिख डाली है बस ........
जब  इंसानों  को  देखती  हू  तो  लगता  है  हर  कहानी  एक  दुसरे  से  मिलती जुलती  सी  है  कोई  यूनीक नहीं कही ना कही सब एक ही गोमुख से  निकले  हुए  ....वेसे भी शुरुआत तो सबकी एक जैसी ही है बस,  कथानक और पृष्टभूमि अलग है  बाकि,  जनम  तो  सारे  नायक, नायिका  की  तरह  ही  लेते  हैं ..अपनी अपनी  कहानी  बनाते  हैं पर एसा लगता है जेसे सबकी कहानियों के कुछ टुकड़े  एक  दुसरे  के  उधार  पर  जिन्दा  है . ऐसा  लगता  है  सारे  आईने  है जो  टुकडो  से  जुड़  जुड़  कर  बने  हैं  और  इन  टुकड़ों  जेसे  ही  कुछ  टुकड़े दूसरी  कहानी  के  आईने  में  भी  है .हर  आईने  से  थोडा  चूरा  दूसरी कहानियों  में  जा  मिलता  है  कोई  भी  साबुत  नहीं  है यहाँ .... बस   एक  दुसरे  की  कहानियों को  देखकर  अपनी  कहानियां  महसूस  करते  हुए ....या  दुसरे  आईने  में  गाहे बगाहे  अपना  अक्स  देखते  हुए .. .
सारे के सारे  आईने इस इंतज़ार में की कब ये टूटन कम होगी और उन्हें वापस से रीसाईंकिलिंग के लिए भेज दिया जाएगा ,ताकि वो फिर नया आइना बन सके जिसके टुकड़े हों  ...सभी बाहर से आवरण  ओढ़े  की  वो  जीवन  संघर्ष  मैं  है , आनंद  ,दुःख ,प्रेम  में है  पर अन्दर से हर आइना जनता है की टूट टूट के एक दिन चूरा हो जाना  है  और  एक  ही  अदुर्श्य  भट्टी  में  सबको  गलना  है  ...सब  जानकार  भी सबकुछ  नकारते  हुए ...जिन्दादिली  से  कहानियां  बनाते  हुए ....क्यूंकि  ये  सारी  कहानियां , ये  सारे  आईने  जानते  है  अगर  आज  से  ही  भाति  और उसके  ताप  के  बारे  में  सोचा  तो  जाने  कहाँ  भटक  जाएँगे .....बस  सारे  के  सारे  इस  भटकाव  से  बचने  की  कोशिश  करते  से ... हमेशा से  सुना  है  जेसे  जेसे  मृत्यु  का  समय  नज़दीक  आता  है जीवन  से  मोह  या तो बहुत  बढ़  जाता  है  बहुत  ही  कम  हो  जाता  है  पर  कभी  कभी  लगता  है  बड़े खुशनसीब  हैं  वो  क्यूंकि  जल्दी  ही  इस  भटकाव  से  मुक्त  हो  जाने  वाले  हैं ....वेसे कभी प्रेमचंद  की  कहानी  "बूढी  काकी " में  पढ़ा  था  जीवन  के  सायंकाल  में सारी  इन्द्रियों  की  सक्रियता  स्वाद -इन्द्री  में  आकर  सिमट  जाती  है  कितना अजीब  है  जब हमारा  सच  में  खाने  का  समय  होता  है तब बस  समय  ही नहीं  होता  ,दौड़ भाग होती है और जब शरीर  सच में खाने का परहेज रखना चाहता है तब  स्वाद-इन्द्री जागृत  हो  जाती  है .... 

खेर बातों का क्या है कभी खतम नहीं होती  चलती ही रहती हैं अनवरत ,जैसे कहानियां कभी ख़तम नहीं एक कहानी  से दूसरी जुडी होती है , तो अब कुछ पंक्तियाँ,कुछ मुक्तक....

शुरुआत  बेवफाई से करते है...


एक बेवफा के लिए और क्या दुआ मांगू?
तुम अपने लिए एक नया जहाँ मांग लेना
मैं तारे की तरह टूटकर गिर  जाउंगी
तुम अपनी खैरियत  की दुआ मांग लेना....

 मेरे साथ का  मौसम तुम्हे सुहाना  नहीं लगता
कोई एक मौसम खुशनुमा  मांग लेना
मेरे लिए तो बस तुम ही जीने का सबब थे
अब जीने की अपने  वजह मांग लेना ......

अब थोडा त्याग की बात,अलगाव की बात....

मेरे साथ साथ चलना तुमसे नहीं बनेगा
इन कंटकों पर प्रेम का कुसुम नहीं खिलेगा
मैं जंगलों का मुसाफिर ,तुम शांत झील सी हो
ना देख सकूँगा मैं तुम्हे क्ष्रण भर भी पीर सी हो

बड़ा कठिन है देना पर ये त्याग मांगता हू
मैं विरह की पीड़ा  साकार मांगता हूँ .....

जानता हूँ तुम मेरे साथ भी चल दोगी
मेरे घावों  को अपने आँचल की छाव दोगी
पर तुम्हारे आँचल को आंसुओं का रंग कैसे दूं ?
तुम प्रेयसी हो मेरी तुम्हे कंटक पंथ  कैसे दूं?

क्या मुझे दे सकोगी बस ये उपहार मांगता हूँ
मैं दुनिया की जीत और दिल की हार मांगता हू .....
मैं विरह की पीड़ा साकार मांगता हूँ...

आज के लिए बस इतना ही ..........
 

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Tuesday, November 22, 2011

बस इश्क की बंदिश होती है



 मैंने अपनी पिछली पोस्ट मैं भी कहा था इश्क करने लगना अलग बात है और इश्क लिखने  लगना अलग ...वेसे देखा जाए तो कोई बड़ा सा फर्क नहीं पर, बारीक सी  रेखा भी गहरी सी है..अलगाव,त्याग,विरह सब इसी  से जन्म लेते हैं और जब इंसान इश्क में होता है तो वो हर बात पर सोचता है गोया भविष्य देख लेना चाहता  हो ,तोल लेना चाहता हो खुद को हर कसोटी पर ,वैसे कसौटियों का क्या है ये बदलती रहती है हर इंसान हर भावना के साथ....किसी ने मेरी पिछली पोस्ट के कमेन्ट में कहा आप इश्क को गलत ढंग से समझ रहीं हैं ,शायद उनकी बात सही हो पढ़कर अच्छा लगा की मुझे पढ़ा जाने लगा है ,मैं जो समझ रही हू वो कही गलत न हो इस बात पर गौर किया जा रहा  है... मुझे लगता है हर इंसान इश्क को  अपने अलग ढंग से ही समझता है और समझना भी चाहिए क्यूंकि इश्क मैं कॉपी कैट वाला फंडा लागू नहीं किया जा सकता...वेसे अभी मेरी उम्र ही क्या है न इश्क समझने की न जिंदगी समझने की फिर भी कोशिश कर रही हु....समझने की नहीं लिखने की...शायद लिखते लिखते समझ जाऊ...या समझते समझते लिखने लगी हू.......

कुछ छोटी छोटी  कविताएँ ,कुछ मुक्तक लिखे है आज वो आप सब के सुपुर्द कर रही हु...
        आम बन जाओ
जानती हू तुम दिल की दिल में रखते हो
हमेशा शांत रहते हो कभी कभी बरसते हो...
यूँ सब समाकर ना रखो, छलकता जाम बन जाओ
कभी तो  ख़ासपन  छोड़ो ज़रा से आम बन जाओ
         
        बदनाम हो जाए..
हर एक लम्हा तुम्हारी याद में तमाम हो जाए
तुम्हारा नाम जुड़ जाए और हम गुमनाम हो जाए
राहे मोहब्बत  से बस इतनी सी तमन्ना है
तुम्हारे इश्क में हम भी ज़रा बदनाम हो जाए....

       पलटकर नहीं देखा 
कश्ती डूब गई इसकी भी अपनी वज़ह थी
मै लहरे मोह्हबत में रही, मैने गहराई-ए -साग़र नहीं देखा
 जो फासले बढे उनका गुनाहगार  कौन हो?
मैं धीरे चली और तुमने  पलटकर नहीं देखा 

  बस इश्क की बंदिश होती है
जो लोग  कहते हैं इश्क अमीरों का काम है
कोई उन्हें बताए फकीरी में भी मोहब्बत होती है

ख़ामोशी में ही दिल की गहराई में लावा पकता है
जब घुटन बेइंतेहा  बढती है तभी बगावत होती है

अपनों को अपना बनाकर रखना ही   मुनासिब है
बर्बाद किसी को करने में अपनों की ही साजिश  होती है

दीवारों के पीछे कुछ आवाजें घुटती रहती है
उन्हें लोगो का डर नहीं होता बस इश्क की बंदिश होती है .

बस आज के लिए इतना ही अगली पोस्ट पर त्याग और अलगाव की कुछ पंक्तियाँ डालूंगी.....

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Sunday, November 20, 2011

आईने से डरती हूँ


 प्रेम करना भी एक अलग अहसास है ,मुझे लगता है  मोह्हबत होने के लिए किसी एक शक्श का होना जरुरी नहीं होता...कुछ लोग बस मोहब्बत करने के लिए ही बनते हैं...वो एक शख्स उनकी जिंदगी में आ गया वो उसपर सारी मोहब्बत लुटा देते हैं...और अगर वो शख्स ना लेना चाहे तो पन्नो पर ,दीवारों  पर ,रंगों में ,बातों में  हर जगह मोहब्बत उढेल देना  चाहते हैं ....इन लोगो को हर चीज़ से प्यार हो जाता है कभी ग़ज़लों से ,कभी आइसक्रीम से,कभी ठंडी हवा से ,कभी तस्वीरों से ,बातों से यहाँ  तक की कभी कभी ख़ामोशी से भी ...क्यूंकि ये बस मोहब्बत करने के लिए बने होते हैं...पर एसे लोगो के साथ बस एक ही बुरी बात होती है ये जिस तरह बेपनाह मोहब्बत करते है...उसी तरह बेपनाह नफरत और बगावत भी करते है.....
प्रेम और विरह दोनों को लिखना शायद थोडा आसान है पर करना उतना आसान नहीं जितना दीखता है ,मोहब्बत अपने साथ तकलीफें लाती है पर ये भी उतना ही बड़ा सच है की मोहब्बत की उम्मीद पर अपने चाहने वाले से हद की मोह्हबत न मिलना ,विरह से ज्यादा खतरनाक है क्यूंकि विरह में  मिलने की उम्मीदें होती हैं पर बेरुखी से आहत इंसान नाउम्मीद सा हो जाता है और यही नाउम्मीदी  बगावत को जन्म देती  है कभी कभी...

एक छोटी सी कविता  लिखी है...इसे  किस श्रेणी में डाला जाए ये मैं नहीं जानती पर...लिखा दिल से है इसकी तसल्ली है दिल को.

बस एक तुम ही ,तुम  हो बस एक मैं ही ,मैं  हूँ
शिकायत भी करती हूँ  तो बस तुमसे करती हूँ

अपने लोग अपना घर छोड़कर इन शहरों में आना
ये अकेलापन भी खाता है ,और भीड़ से भी डरती हूँ

शहर की सड़के बड़ी जालिम जाने कब पैरों से खिसक जाए
शायद इसलिए पकड़कर तुम्हारा हाथ चलती हूँ

मेरे तो सारे के सारे विषय ना जाने कहाँ खो से गए
अब बस तुमको लिखती हूँ और बस तुमको पढ़ती हूँ

जब तुम देखते ही नहीं तो ,दिखने का मतलब क्या ?
महीनों से खुद को नहीं देखा ,अब आईने से डरती हूँ 

तुम सोच सकते हो हजारों बातें दुनिया की
मेरी दुनिया तुम्ही से शुरू तुम्ही पर ख़तम सी हुई
सोचती हूँ ,मोहब्बत करू तो करू कितनी?
सच कहू ?थोड़ी नफरत भी करती हूँ तो बस तुमसे करती हूँ ......



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Friday, November 18, 2011

मैं क्या करूँ

तुम मुझसे दुनियादारी की उम्मीद करते हो
मेरी मोहब्बत दुनियादारी ना माने मैं क्या करूँ   ?

तुम कहते हो तुममे ,मुझमे कुछ फासला रखो
मेरा मन तुम्हे खुद से अलग ना जाने  मै क्या करू ?

तुम कहते हो बचपना छोड़ो ,संजीदगी लाओ
तुम्हारे प्यार की तरह मेरा बचपना भी ना जाए मैं क्या करू ?



तुम कहते हो इतना प्यार नहीं अच्छा
पर ना चाहूँ तो  भी दिल तुम्हे चाहे मैं क्या करू?

तुम सागर से गंभीर  मै नदिया सी तरंगिनी
ये तरंगे तुम्हारी गंभीरता से डर जाए मै क्या करू ?

तुम्हे आकाश बनना है मुझसे  धरती सी उम्मीदें है
पर धरती  सा धीर मुझमे ना आए मै क्या करू ?

तुम्हारा सारी दुनिया से मिलना है मेरे लिए एक बस तुम हो
मेरा हर पल बस तुममे ही गुज़र  जाए में क्या करू.....?

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Tuesday, November 15, 2011

छिपाती दिखाती खिड़कियाँ

ईंट, गारा, मिटटी,सीमेंट ,रेती से बनी चंद दीवारें और इन दीवारों के जुड़ जाने से बना एक मकान, इन मकानों को घर बनाने की जद्दोजहद में उलझे इंसान  और इस सब के साथ इन दीवारों में सुराख करती कुछ खिड़कियाँ . खिड़कियाँ जो शायद हवा को अन्दर बाहर करने,रौशनी को कोने कोने में फेलाने के लिए बनाई  जाती होंगी कभी. पर अब ये सिर्फ यही काम नहीं करती...अब ये खिड़कियाँ ना जाने कितने छोटे बच्चो को आसमान में उड़ते पंछी दिखाती है, बूढी आँखों को पुराने दिनों की याद दिलाती,ना जाने कितने धड़कते दिलों को सामने वाली खिड़की  पर एक और धड़कता दिल देखने का आनंद देती ,इशारों का आदान प्रदान करते देखती होंगी !

हर खिड़की के पीछे की अपनी एक कहानी होती है  ,अपने को पर्दों में ढंककर  इन खिडकियों को लगता है जेसे ये हर कहानी को अन्दर दफ़न कर लेंगी,ठीक वेसे ही जैसे  कब्र दफ़न कर लेती है अपने अन्दर हर तरह के, हर ढंग के ,हर किस्म के इंसान को...पर ये खिड़कियाँ  नहीं जानती शायद, कि कब्रें भी नहीं दबा पाती अपने अन्दर सब कुछ. कुछ किस्से, कुछ कहानियां, कुछ बातें और कुछ यादें रह जाती है इंसानों के जाने के बाद भी ,दुसरे इंसानों के जेहन में और ये सिलसिला चलता रहता है हमेशा . ठीक वेसे ही सब कुछ नहीं छुपा पाती ये खिड़कियाँ ,कभी उड़ते परदे,बोलती दीवारें,सूजी ऑंखें, खिलखिलाने की आवाजें वो सब बयां करे देती है जो ये खिड़कियाँ छुपाने की कोशिश करती है....कहते है ना दाइयों से पेट नहीं छुपता वेसे ही कितनी ही कोशिश कर ली जाए खिडकियों के पीछे हर कहानी नहीं छुपाई जा सकती.....कोई ना कोई बात आ ही जाती है बाहर ...

इन  खिडकियों से दिखती हैं कुछ बोलती सी आंखें हर रोज सुबह और एक हाथ जो जाने वाले को अलविदा कहता है ,मै अपनी खिड़की से देखती रही  हू ये सब. जाने कितनी उम्मीदें होती हैं उन आँखों में की जिसे अलविदा कहा जा रहा है वो जब शाम को आएगा तो ऐसा होगा वेसा होगा ,और साथ में दिखता  है कल की उम्मीदों में से कुछ के पूरे ना होने का दर्द.पर नई उम्मीदें पुरानी उम्मीदों को नाउम्मीद नहीं होने देती उन्हें दे देती है एक संबल  और ये सिलसिला हर रोज चलता रहता है.....

इन हाथों और आँखों को देखकर मुझे कभी कभी इनके पीछे की आत्माएं अपने अन्दर महसूस होती है. हर बात उनके एंगल से सोचती हू कुछ देर. अभी क्या चल रहा होगा इनके मन में ,क्या उम्मीदें क्या विश्वास लेकर जी रही है ये ,किन अंतर्द्वंदों से जूझ रही होंगी जेसे कई प्रश्न होते हैं  उस समय ,ठीक वेसे ही जेसे हर बार अमृता प्रीतम को पढने के बाद उनकी आत्मा उतर आती है शरीर में  ....हर बार उन्हें खुद में महसूस करने लगती हू.....उनकी कविताएँ  ,उनका दर्द ,उनका प्यार,उनका अलगाव सब खुद में महसूस करने लगती हू.....ऐसा लगता है जेसे कुछ देर के लिए उनने मेरे अन्दर जनम ले लिया और सौप रही है अपनी विरासत मुझे....

इसे मेरी बदकिस्मती कहा जा सकता है की पिछले कई महीनों से जब से ये नया जॉब ज्वाइन किया है मुझे एक बार भी इन खिडकियों से झांककर  जाते हुए इंसान को अलविदा कहने का मौका नहीं मिला क्यूंकि मुझे घर से सुबह साढ़े  आठ बजे ही निकल जाना होता है और लोकेश १० बजे ऑफिस जाते है ,हाँ जब कभी वो मुझसे पहले ऑफिस जाते हैं में जरुर झांककर  अलविदा कहने के लिए खिड़की तक जाती हू पर अब वो सर उठाकर ऊपर नहीं देखते क्यूंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं होती की में खिड़की पर खडी होउंगी....जिंदगी कितनी उलझी सी हो गई है इस भाग दौड़ में....

कभी कभी खुद को लोकेश की जगह पर रखकर देखती हू तो सोचती हू क्या पता शायद उनके  मन में भी ये टीस उठती हो , की मैं क्यूँ किसी खिड़की से झांककर  उन्हें अलविदा नहीं करती.....क्यूँ मेरा हाथ जाते जाते उन्हें ये संबल नहीं देता की संभल  कर जाना,या क्यों मेरी आँखें उनसे ये नहीं कहती की समय से आना मैं इन्तेजार करुँगी.....जब जब खुद को उनकी जगह रखकर सोचती हू तो लगता है मेरी तरह उनके भी कई छोटे छोटे सपने इन खिडकियों के पीछे दफ़न हो रहे हैं....और जब जब ये सोचती हू अन्दर ही अन्दर एक घुटन सी होने लगती है ,ठीक वेसी ही जेसी किसी बहुत बोलने वाले इंसान को दिन भर का मौन व्रत रखने के बाद होती होगी या कम बोलने वाले इंसान को बार बार बोले जाने के लिए कहे जाने पर होती होगी.....हर बार  एक बात बड़ी टीस के साथ सर उठाती हैं कि पुरुषों के भी अपने दर्द अपनी तकलीफें होती होंगी जो कह नहीं पाते. कभी पुरुष होने का अहसास उन्हें रोने नहीं देता होगा और कभी ना बोल पाना उन्हें भी उतनी ही तकलीफ देता होगा जितना स्त्री-जाती को देता  है....

ये खिड़कियाँ जो खुद तो खामोश रहती हैं पर अपने अन्दर ना जाने कितनी सिसकियाँ ,मुस्कुराहटें,दर्द ख़ुशी सब दबाए  बैठी है......शायद इसीलिए लोगों ने परदे लगाना शुरू किया होगा ताकि घर की बातें खिडकियों  से बाहर की दुनिया में ना फेल जाए ...पर काश लोग कोई एसा पर्दा भी लगा पाते जो आँखों को बोलने से रोक पाता,भावो को निकलने से ,घावों को उभरने से,दीवारों को कानाफूसी करने से और मन को उड़ने से रोक पाता......या काश ये खिड़कियाँ भी मुखर हो जाती.....या !!! या हमारे मन में भी एक खिड़की होती जिसमे झांककर हम सामने वाले कि कहानी पढ़ पाते,उसके भाव समझ पाते ...पर काश !!!!!!!...................


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Monday, November 14, 2011

कुछ बिखरे मोती kuch bikhre moti.....

आज फिर कुछ छोटे छोटे मुक्तक  इकट्ठे किए है जो फसबूक के पेज पर डाले है कुछ दिनों में .

साथ हुए तो हाथ पकड़कर चलना होगा
तुमको मुझमे, मुझको तुममे ढलना होगा
एक दूजे का अक्स (परछाई) बने हम आज तक पल पल
 अब ,मुझे तुम्हारा, तुमको मेरा " दर्पण"  बनना होगा ((१))

कई दिन हो  गए हमने खुलकर नहीं सोचा
जब से तुमसे मिले बरबादियों का मंज़र नहीं सोचा
बस एक दुसरे को सोचकर  मध्य में आ गए है हम
तुमने धरती नहीं नहीं सोची मैंने अम्बर नहीं सोचा  ((२))

बहुत दिन से उदासी की चादर ओढ़ रखी है
चलो एक बार तनहाइयों का पर्दा हटा दे हम
वजह ना और कोई मिल सके तो छोड़ दे सब कुछ
अपने आंसुओं  के संग  ही थोडा मुस्कुरा दे हम  ((३))

अब कुछ ऐसे  मुक्तक जो कुमार विश्वास के लिखे मुक्तकों के कमेन्ट में डाले थे आज इकट्ठे कर के एक जगह प्रस्तुत कर रही हु...इन्हें मैं पूरी कविता के रूप में नहीं डाल रही क्यूंकि इनकी शुरुआत की प्रेरणा  कुमार विश्वास हैं...
तिमिर जो बढ़ रहा था कम हुआ है ,तुमको सूचित हो
पाप का वेग ,मद्धम हुआ है तुमको सूचित हो
जो नर्तन ,तांडव रूप में विध्वंसकारी हो रहा  था
वही लयबद्ध जीवन बन रहा है तुमको सूचित हो

कलम - क्रांति का संगम हो रहा है तुमको सूचित हो
चिंगारियों का उद्गम हो रहा है तुमको सूचित हो
वो पंछी जो कभी  सियासी कलहों में उलझे थे
उनका रण में पदार्पण हो रहा है तुमको सूचित हो

भट्टियों में स्वर्ण तपता जा रहा है तुमको  सूचित हो
दिखावे का पीतल सिमटता जा रहा है तुमको सूचित हो
निर्दिष्ट की चाह में जो मंदिरों में निष्कर्म बेठे थे
उन्हें भी क्रांति गीत, जगा रहा है तुमको सूचित हो

विप्लव (विद्रोह)का बीज बोया जा रहा है तुमको सूचित हो
त्रिदिव (स्वर्ग) धरती  पर लाया  जा रहा है तुमको सूचित हो
समय की जंग लगने लग गई थी जिन कलमों को
उन्हें रक्त  से भिगोया जा रहा है तुमको सूचित हो


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Tuesday, November 8, 2011

दिवाली और यादें

ये पोस्ट लिखने का शायद ये सही समय नहीं पर समय का क्या है ये कभी सही कभी गलत नहीं होता शायद, ये तो बस समय होता है हम चाहे तो भी रोक नहीं पाते और चाहे तो भी आगे नहीं बढ़ा सकते .और इस गुजरे हुए समय की कुछ यादें आपको हमेशा हँसाती रुलाती रहती है ,वेसे आंसुओं का भी क्या है आते जाते रहते है कभी ख़ुशी के कभी गम के . पर हर जब भी आते है कोई ना कोई भावना उमड़कर बरस जाती  है  वेसे भावनाओं का चाल चलन समय जेसा ही है ना जबरजस्ती लाइ जा सकती है ना ही जोर जबरजस्ती से भुलाई जा सकती है ,उमड़ गई तो बरस जाएगी और नहीं तो हम रीते के रीते (ख़ाली ).

आज घर बहुत याद आ रहा है खेर इसमें कोई नई बात नहीं घर तो रोज ही याद आता है पर बात ये है की आज थोडा ज्यादा ही याद आ रहा है.शायद दिवाली गई है ना अभी अभी इसलिए.याद आ रहा है पर लिख क्यों रही हू इसका बस एक ही कारन है लिखना ही एक एसा हथियार है मेरे पास जो मेरी भावनाओं को संयत करने मदद कर सकता है .

हाँ तो बात हो रही थी घर की. आम जिंदगी रही है मेरी पढ़ाकू, कम मस्ती करने वाली गंभीर  लड़कियों सरीखी,पर एक ही बात रही है जो शायद अलग रही अन्य लोगो से वो है भावनाओं का अतिरेक.बात बात में रो देना,हसतेहँसते भी आंसू पोछना मेरी हमेशा की आदत रही है .

खेर बात हो रही थी दिवाली की,मेरे घर की दिवाली मुझे जिंदगी भर याद रहेगी इसलिए नहीं की कुछ  बहुत ही ख़ास होता था उस दिन, बल्कि इसलिए की मेरी दिवाली सिर्फ दिवाली के दिनों में शुरू नहीं होती थी.अपने कॉलेज केदिनों
से ही मुझे याद है घर में चाहे कोई भी पेंटर आया हो मैंने अपना कमरा किसी को पैंट नहीं करने दिया .हर साल अपना कमरा मैं खुद पैंट  करती थी ,रंगों का चुनाव ,कौन सी दिवार पर कौन सा रंग होगा खिड़की पर कौन सा रंग होगा ,कमरे की सेट्टिंग में क्या बदलाव होंगे हर निर्णय  मेरा योगदान होता था .
वेसे वो कमरा सिर्फ मेरा नहीं था मेरी छोटी बहन भी उसमे बराबर की हक़दार थी पर  रंगों के चुनाव तक सीमित रहना पसंद था उसे दुसरे कामों में मदद जरुर करती थी पर मेरी तरह पुताई करने का काम पसंद नहीं था उसे. मेरे इस शौक पर ज्यादातर मम्मी पापा नाराज होते थे की ये सब लड़कियों का काम नहीं बेटा एसे बड़े स्टूल पर चढ़ना ,पुताई करना क्या जरुरत है ? पर इस सब से मेरी भावना जुडी हुई थी मुझे लगता था मेरा कमरा है अगर इसे मैं खुद सजाऊँगी  तो मेरी महक रहेगी साल भर यहाँ .धीरे धीरे मेरी इन भावनाओं को देखकर मम्मी पापा ने भी मना करना बंद कर दिया था.

कोई विश्वास करे या ना करे अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा होने बैंक में जॉब शुरू करने यहाँ तक की शादी के लिए जॉब छोड़ने  तक मैं अपने घर में हमेशा से दरवाजों के पीछे दीवारों के कोनो पर बारीक अक्षरों में अपना नाम लिखिती थी और  जब डांट पड़ती थी तो कहती थी मम्मा अभी डांट रही हो पर जब चली जाउंगी तब ये सब ही मेरी याद दिलाएँगे .एसा मन करता था की हर कोने में मेरी निशानी हो हर हिस्सा मुझे याद करे .कोई कोना एसा ना रह जाए जहा मेरी निशानी ना हो .

मेरी सगाई के बाद भी एक दिवाली आई थी उस घर में शादी को थोडा ही समय  बचा था मम्मी पापा ने बहुत कहा बेटा अब तो मत कर ये सब क्यूंकि पूरा घर पैंट करने के लिए पुताई वाले आए थे पर मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी बस यही कहती रही मुझे अपनी यादें छोड़ जाने दो पापा जब चली जाउंगी तो ये कमरा आपको मेरी याद दिलाएगा .....और सच मेंउस कमरे मेरे आने के बाद बहुत याद दिलाई होगी उन्हें मेरी ......


हाँ तो दिवाली के दिन पूरे घर के हर कोने में ,हर कमरे में ,मदिर के सामने ,किचेन में ,सीढ़ियों पर,हर दरवाजे के सामने ,आँगन में,मैं गाते पर हर जगह  रंगोली में बनाते थे हम .बेल ,बूटे,छोटीबड़ी  आकृति जो बनता जरूर  बनाते  यहाँ तक की घर के सामने का रोड भी साफ़ करवाकर उसके दोनों तरफ बेल बूटे बना देते थे ,शायद हमारा बस चलता तो पूरा शहर रंग देते पर पूरा घर रंगने में ही लगभग पूरा दिन निकल जाता था .कपड़ों के नएपन से ज्यादा घर के अपनेपन का ख्याल था मुझे और मेरी इन भावनाओं की कदर मेरे घरवालों ने हमेशा की .चेहरे को लीपने पोतने से ज्यादा मैंने दिल की ख़ुशी में विश्वास किया और वो ख़ुशी मुझे मेरे घर से हमेशा मिली भी.

सच है शायद आज घर इसलिए इतना याद आ रहा है क्यूंकि वो सब हुआ उस समय .मेरी शादी भोपाल के उस घर से नहीं हुई बड़ा मन था मेरा की एसा हो पर नहीं हुआ मेरे घर बारात आई नहीं हम लड़कीवाले अपना बोरिया बिस्तर बंधकर मेरे पतिदेव के शहर गए वही से हमारी शादी हुई ,मुझे आज भी याद है रात के ८.३० के लगभग समय हो रहा था जब हम लोग बस में बेठने के लिए उस घर को बंद करके निकल रहे थे किसी ने मेरे हाथ में नारियल दिया और कहा बेटा घर को प्रणाम कर ले फिर पलटकर मत देखना अपशगुन होता है तब कितना रोई थी मैं  मन ही मन बस एक ही बात सोची जाती थी की मेरे घर को पलटकर देखना भी अपशकुन हो सकता है क्या ?,एक ही ख्याल आता था मेरा घर मुझसे छूट  जाएगा ,और सच मैं एसे ही वो घर मुझसे छूटगया.

इसे नियति का खेल ही कहिये या संयोग की मेरी शादी के बाद ३,४ महीनो में ही मेरे मेरे मम्मी पापा ने भी वो घर छोड़ दिया और सबकुछ बेचकर इंदौर शिफ्ट हो गए .मेरे पापा आज भी कहते हैं  तेरा मन था उस घर में इसलिए वहा थे अब यहाँ आ गए .वेसे उस शहर को छोड़ने का प्लान पहले से था पर वो कई सालों से सिर्फ प्लान था मैं वो घर वो शहर छोड़ना नहीं चाहती थी शायद इसलिए वो घर मुझे ना छोड़ता था , जब तक मैं थी वो घर मुझसे छूटता ना था जेसे ही मैंने घर छोड़ा सबसे छूट गया .कभी कभी लगता है वो घर मुझे ना छोड़ना चाहता था जब मैं उसे छोड़ दिया तो उसने सबको छोड़ दिया.खेर वो घर छूटने के साथ ही वो शहर भी छूट गया.वो शहर जहा मैंने अपना बचपन ,लड़कपन सब बिताया अच्छा बुरा नया पुराना,ख़ुशी दुःख हर बात वहा से जुडी है.बहुत याद आता है भोपाल,आज भी मेरे सपनो में वही घर आता है क्यूंकि मेरे लिए तो वही घर है.

वेसे इंदौर वाला घर भोपाल छोड़ने के ३,४ साल पहले ही खरीद लिया गया था इसलिए उस घर से मेरा परिचय काफी अच्छा था आना जाना लगा रहता था पर फिर भी भोपाल वाला घर मेरी यादों में हमेशा रहेगा.शादी के बाद सिर्फ १ बार ही भोपाल वाले घर जाना हुआ ,उसके बाद २ बार इंदौर गई पर इंदौर वाला वो घर सर्वसुविध्युक्त  और भोपाल वाले घर से आधुनिक होते हुए भी मेरी स्मृति में वो जगह नहीं ले पाया और शायद कभी ले भी ना पाए.

इस बार दिवाली के पहले जब पापा से बात हुई उनकी  आवाज़ में कुछ भारीपन था जिसे वो दबाने की कोशिश कर रहे थे उनने कई बातें की  इतना कहा बेटा तू गई रोनक चली गई इस बार पुताई  करवाने का मन नहीं कर रहा ,अब किन किन आँखों में आंसू थे ये मैं कह नहीं सकती पर फ़ोन पर बस इतना महसूस हुआ की फ़ोन पर बात कर रहे हम दो लोगो के सिवा इंदौर वाले घर में कुछ और आँखें भी नम थी....

हाँ तो शादी के बाद दोनों दिवाली पर मुझे मेरा घर बहुत याद आया ,दिवाली आने के पहले से ही यादों ने अपनी माया फेला ली वो रंगोली,वो दीवारों के रंग,वो अपनापन,वो रात दिन एक करके भी घर सजाना सब बहुत याद आया और शायद जिंदगी भर याद आता रहे ,इस बार भी दिवाली पर जब जब रंगोली के रंग हाथों में लिए घर बहुत याद आया .सच कहते है मोह बड़ी ख़राब चीज है एक बार पड़ गया तो जान चली जाए मोह नहीं जाता.हाँ बस इतना हो सकता है की मोह दूसरी जगह भी बढ़ा लिया जाए जेसे मैंने  अपने पतिदेव से बढ़ा लिया ठीक वेसा ही मोह जेसा मुझे मेरे घर से था ,मेरे मम्मी पापा से था  पर पुराना मोह नहीं भुलाया गया...सच है मेरा नैहर छूट गया ,पीहर छूट गया , पर यादें नहीं छूटी मेरा घर नहीं छूटा ..........



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Thursday, November 3, 2011

कुछ दिल से kuch dil se

अलग अलग विषयों पर अलग अलग समय पर ये पंक्तियाँ लिखी थी आज उन्हें इकट्ठी करके ब्लॉग पर डाल रही हू.ये पंक्तियाँ बस पंक्तियाँ ही रह गई कभी पूरी नहीं हो पाई .बस कभी फेसबुक पर लिखा तो कभी ड्राफ्ट में  लिखा और छोड़ दिया .आज इन छोटी छोटी पंक्तिओं पर नजर गई तो सोचा सबसे साझा कर लू.....
            


          मोहब्बत
जिसके ऐबों को बंद दरवाजों में छुपाकर रखा
मेरे जख्मों को वो, सरेआम कर गया
दिल के कोने में जिसकी यादों को  छुपाकर रखा
जाते जाते वो मोहब्बत नीलाम कर गया

जिसकी ख़ुशी के लिए पलके बिछाई हमने
वो पलकों में मेरी आंसुओं के रंग भर गया
जिसका नाम मेरे लिए खुदा का साया था
वो सरे राह मेरा नाम बदनाम कर गया "१"


प्यार
कोई कहता है सच्चा प्यार नहीं होता
कोई कहता है ये अभी भी होता है
हम कहते है सच और झूठ का क्या पैमाना ?
प्यार तो बस प्यार है, ये बस प्यार होता है

 
जुदाई
हाथ से हाथ दूर होने का गम बड़ा जालिम
मैं तुमसे जुदाई की वजह पूछ रही रही हू
तुम मेरे तड़पने का मर्म समझो या ना समझो
मैं तेरे भटकने की वजह पूछ रही हू

वो छोड़कर  जाना तेरा शायद एक अदा थी
मैं आज भी तेरे दिल में मेरी जगह पूछ रही हू
तेरी खताओं का हिसाब नहीं मुनासिब
मैं तुमसे बस अपनी खता पूछ रही हू  ....

और सबसे अंत में कुछ पंक्तियाँ .ये पंक्तियाँ करवाचौथ पर लिखी थी जब कई लोग बार बार ये मुद्दा उठा रहे थे की पत्नी के भूखे रहने से पति की उम्र कैसे  बढ़ सकती है इस व्रत को रखने का कोई औचित्य नहीं उसी समय ये कुछ पंक्तियाँ जवाब में लिखकर डाली थी 
            करवाचौथ
जानती हू मेरे भूखी रहने से तेरी उम्र शायद ना बढे
पर मेरा जज्बा है इस जज्बे को इस तरह बेज़ार ना कर
...
ये पता है मुझे की मोहब्बत रोज़े की मोहताज़ नहीं
ना किसी दिखावे की जरुरत है इसे
पर मैंने जब शिद्दत से रख ही लिया रोज़ा
थोडा ऐतबार रख इस रोज़े को यू बेएतबार ना कर
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Friday, October 21, 2011

मैं और तुम या हम I and U Or WE



आज कई दिन के बाद एक एसी कविता लिखी है जिसे दिल के करीब पाती हू...इसमें कुछ सच्चाई है कुछ कल्पना पर मेरे दिल के करीब है
मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
दो जिस्म दो रूह दो जान
पर भाग्य  की लेखनी से बंधे हम तुम

तुम कहते हो :हमारा साथ सात जन्मों का है
मैं कहती हू :ये मेरा सातवा और आपका पहला जन्म है
तुम कहते हो:एसा क्यों कहती हो?मेरा साथ नहीं चाहती?
मैं कहती हू: प्यार के कम होने से डरती हू
तुम कहते हो :कैसा डर?
मैं कहती हू : डर है  आपकी ऊब का
तुम कहते हो : एसा क्यों सोचती हो?
मैं कहती हू : जिसे अगाध प्रेम की कामना हो वो थोड़ी कमी से भी घबरा जाता है
तुम कहते हो: विश्वास नहीं मुझ पर ?
मैं कहती हू :मुझे खुद पर भरोसा नहीं,मेरा मन चंचल है
और तुम:तुम कुछ कहते नहीं बस मुस्कुरा देते हो

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

हम तुम आज से नहीं जुड़े
अपनी माँ के गर्भ में आने के साथ ही
तीसरे हफ्ते में जब मेरे हाथों की रेखाएं बनी
मैं तुम्हारे साथ जुड़ गई
किसी ने चुपके से उन रेखाओं में तुम्हारा
नाम लिख दिया
अक्स नहीं दीखता तुम्हारा मेरे हाथों में
तब शायद दीखता होगा
अब तो बस रेखाएं ही रेखाएं है

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
जिस दिन से मैं माँ की गर्भनाल से अलग हुई
ये बात लोगो ने भी कहना शुरू कर दी थी
की कही मेरे लिए तुम बना दिए गए हो
इश्वर ने तुम्हे मेरे स्वागत के लिए
 भेज दिया था इस दुनिया में
तब से लेकर आज तक
 या आने वाले हर कल तक
तुम मेरे साथ हो

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

जब जब सुनती हू राधा कृष्ण की कथा
सिहर जाती हू इस बात से
कही में तुम्हारी रुकमनी तो नहीं
डर ये नहीं की कोई राधा रही होगी
डर ये होता है की मेरा नाम तुम्हारे नाम के साथ
जन्म  जन्मान्तर तक याद नहीं किया जाएगा
और जब बताती हू ये बात तुम्हे, तुम मुस्कुरा देते है
जेसे मुस्कुरा रहे हो मेरे बचपने पर
और मैं खुद अपनी ही सोच पर खिलखिला देती हू

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

कभी कभी अचानक नींद से जाग जाती हू
और सोचती हू मेरे नाम का अर्थ
कही मेरे भाग्य से तो नहीं जुड़ गया
धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की तरह
मैं भी तुम्हारे विरह में जीवन  व्यतीत तो  ना करुँगी
कही में तुम्हारी राधा ना बन जाऊ
फिर अपनी ही सोच को  दिल के
किसी कोने में दफ़न कर सो जाती हू
ये सोचकर  की ये मेरे मन का वहम है
जब तुम्हे सुबह बताती हू ये स्वप्न
तो तुम हस देते हो और थाम लेते हो हाथ मेरा
और मैं ?मैं तो किसी भावना को
व्यक्त करने की अवस्था में नहीं होती


मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
मुझे बन्धनों में ना बांधों
ये मेरा अंतिम जन्म ही भला
पर अपने अगले ६ जन्मों तक
मुझे याद जरूर रखना
मैं कहती हू :याद रखोगे ना?
तुम कुछ कहते नहीं बस देखते रहते हो मुझे
मैं सोचती हू :कैसा प्रेम है ये ?
तुम्हे  छोड़ना भी चाहती हूँ  और मुक्त भी नहीं करना चाहती
और फिर सोचती ही जाती हू अनंत  ....
और तुम?तुम बस मुस्कुराते हो और मुस्कुराते चले जाते हो.....




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Thursday, October 20, 2011

मैं अधूरी सी हो गई main adhuri si ho gai

parwaz:मैं अधूरी सी हो गई

कितनी अजीब बात है पर यही सच है
तुम जब से पूरे से हुए हो मैं अधूरी सी हो गई
शायद मैंने खुद को तुम मैं खो दिया है
या खुद का एक हिस्सा खुद से थोडा सा अलग  कर दिया है
पर ये तुमसे मुलाकात के बाद ये अधूरापन कही बढ़ता सा जाता है
जब जब तुम कहते हो मैं पूरा सा हो गया
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कभी  कभी अहसास होता है
जिंदगी के पन्नो को तुम्हारे नाम करते हुए
मैं कई बार साथ में अपना  नाम लिखना भूल जाती हू
और जब जब पलटकर देखती हू उन्ही पन्नो को
तो सिर्फ तुम्हारा नाम मुझे अकेला सा कर देता है
तुम भी भूल जाते हो इन पन्नो पर मेरा नाम लिखना....
ये अहसास मुझे और भी अधुरा कर देता है
इन पन्नो पर अपने नाम को ना पाकर
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...

तुम्हे पूर्णता  देने का अहसास मेरे अधूरेपन को भरता है
पर जब तंग गलियों में साथ चलते चलते
अनायास ही तुम कभी हाथ झटक देते हो
या खुद में गुम कही आगे निकल जाते हो
मेरा ख़ाली हाथ मुझे अधूरेपन का अहसास दिलाता है
चार क़दमों की जगह  दो क़दमों के चलने की आहत मुझे अधूरापन देती है
तुम्हे शायद ये अहसास भी नहीं होता
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कभी कभी जब तुम अपने "मैं" में खो जाते हो
और भूल जाते हो हमारे हम को
अपने यंत्रो में खोकर तुम अकेले बेठे बेठे
अपने चेहरे पर मुस्कराहट ,दुःख या चिढ के भाव लाते हो
मेरी आहट से तुम खुद को असहज महसूस करते हो
और अचानक यही असहजता का भाव मेरे चेहरे पर भी आ जाता है
तब हर बार  में कही अधूरापन महसूस करती हू
तुम्हे शायद भनक भी नहीं लगती
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कई बार जब तुम खामोश से बेठे रहते हो
खुद में गुम हो जाना चाहते हो
तब मेरा पास होना भी तुम्हे भला नहीं लगता
 और इसी ख़ामोशी में तुम मुझे खामोश रहने का इशारा करते हो
मैं समझ  नहीं पाती तुम मुझसे दूरी चाहते हो या मेरे शब्दों से
तब अपने ही शब्दों में उलझी में खुद को अकेला पाती हू
तुम्हारा मौन ,तुम्हारे शब्द ,तुम्हारा सामीप्य , तुम्हारी दूरी
सब  बेमानी   सा लगता है उस एक पल में
जब जब तुम पास रहकर भी मुझसे दूर हो जाते हो
तुम्हे खबर नहीं होती पर
मैं हर बार थोड़ी और अधूरी सी हो जाती हू...



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Friday, October 14, 2011

बटवारा हो गया.....

parwaz:batwara ho gaya
 सुबह से ही सारे मोहल्ले में हल्ला है
बटवारा होने वाला है बटवारा होने वाला है
सारे घरों की औरतें खुसुर पुसुर कर रही है
दीवारों के कान खड़े हो गए है
जेसे आज वो सुन ही लेंगी हर बात
और बता देगी सारे मोहल्ले को


सब कुछ खामोश है पर
इससे बड़ा कोलाहल जेसे कभी हुआ ही नहीं
इस मोहल्ले में
एसा लगता है जेसे तूफ़ान से
पहले की शांति इसी को कहते होंगे
पर समझ भी नहीं आता
की कैसा  तूफ़ान आने वाला है
बस उडती उडती सी खबरें आती है
तिवारी जी के घर में बटवारा होने वाला है

आज तिवारिन काकी
रोज की तरह चिल्ला नहीं रही बच्चों पर
ना ही तिवारी काका अपने आँगन के झूले  को दावे बेठे है
बड़ा गुस्सा आता है कभी कभी उनपर
बच्चो के झूला झूलने की उम्र में
खुद दिनभर बेठे रहते है उसपर

पर आज बड़े नीरीह से दिख रहे हैं
रह रह कर अपना चश्मा साफ़ करते है
और कहते जाते है  धूल बहुत उड़ रही है
पर सब जानते है ये धूल नहीं कोहराम है
जो रह रह कर आंसू बन उतर आता है उनकी आँखों में

सब साँसे रोककर इन्तेजार कर रहे हैं
किसके हिस्से क्या आएगा
सब बहस में लगे हैं
किसी को मकान चाहिए
कोई गाओ बाहर का खेत मांगता है
कोई कहता है नुक्कड़ वाली दूकान मुझे दो

तिवारिन आँखें फाड़े सबको देखती है
और रह रहकर  दर्द उठता है सीने में
जेसे अपना पिलाया हुआ दूध
बेकार गया लगता हो आज

तिवारी काका कुछ नहीं कहते
दिन भर बोलने वाली काकी भी चुप है
दोनों वृद्ध मन ही मन सोचते हैं 
ले लेने दो इन्हें सब
कट जाएगी बची हुई जिंदगी एक दुसरे के साथ
सच है बुढ़ापे में
एक दुसरे का ही तो सहारा होता है वृद्धों को

देखते ही देखते सब बट गया
घर दुकान बर्तन बिस्तर
खेत खलिहान,चोबारा छत
यहाँ तक की काकी की मृत्यु के बाद
कौनसी चूड़ी कौन सा कंगन
किसके हिस्से में आएगा सब बाँट लिया बेटों ने

सारे मोहल्ले  ने राहत की सांस ली
इतने दंगे फस्साद तू तू मैं मैं के बाद
आखिर सब बट ही गया
पर तभी आवाज़ आई
अभी कुछ और भी कुछ बाकि है
काका झल्लाए बोले
अब क्या हमारे मरने पर
कौन अर्थी उठेगा ये भी अभी ही बाटोंगे ?

नहीं ये नहीं आप दोनों कहाँ
किसके साथ रहोगे ये बाटना बाकि है
दोनों वृद्ध ने एक दुसरे की तरफ देखा
और काका बोले हम थोड़े थोड़े
 दिन सबके साथ रह लेंगे

फिर आवाज़ आई नहीं साथ नहीं
आपको एक एक करके रहना होगा
माँ जब बड़े भैया के घर रहेगी तो
आप   मेरे साथ रहना
इस तरह दोनों जगह थोड़े थोड़े दिन रहना
इस तरह खर्चा बंट जाएगा

ये सुनते ही काकी जमीन पर बैठ गई
और उनके मुह से बस बार बार यही शब्द निकलते थे
इन लोगो ने माँ बाप बाँट लिए
हाँ सच में अब बटवारा हो गया.....

Thursday, October 13, 2011

यादों में मिलते हैं..

parwaz:yadon me milte hain

फिकर ये नहीं की वो दूर हो गए हमसे
फ़िक्र ये है की हम आज भी उनकी यादों में मिलते हैं..
उनकी आँखें आज भी नम हो जाती है हमारे लिए
दर्द के निशान आज भी बातों  में मिलते है

दोस्त  भी आजकल काम में मसरूफ हो गए
रूबरू मिल नहीं पाते ,देर रात के ख्वाबों में मिलते है

वो मोहब्बत के किस्से जो कभी मशहूर थे गुलशन में
फूल बनकर तहखाने की  बंद किताबों में मिलते है

माँ से मिले हुए जब अरसे बीत जाते है
उसके आंसू रात भर मेरी आँखों में मिलते हैं

 जिन्हें दिन के उजालो  ने बर्बाद कर दिया
वो फ़रिश्ते आजकल चांदनी रातों में मिलते है

वो खुदा जिसको ढूढ़ते फिरते हो फिजाओं में
उसके अंश गरीबों की दुआओं में मिलते है

वो खूबान* जो कभी मेरी रूह  का हिस्सा थी
आजकल उनसे हम यादों  की पनाहों में मिलते है..

वो अपने जो गले मिलकर दुआ सलाम करते थे
आजकल  दूर रहते है ज़रा  फासले से मिलते है
ज़माने के दस्तूर सीखकर  आबदार* हो गए
जिन्दादिली से नहीं सिर्फ दुनियादारी से मिलते है

1)खूबसूरत औरत २)polished दिखावटी
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कनुप्रिया 

Tuesday, October 11, 2011

क्यों? why?

प्यार किया तो प्यार किया, बना दिया अफसाना क्यों
तुम बदले या हम बदले अब ये सब गिनवाना क्यों ?

दोनों का ये साझा है ,बस अपना इसे बताना क्यों
तुम पहले या हम पहले इन बातों पर अड़ जाना क्यों ?

अश्क दिल में है तब तक ओंस है पानी इन्हें बनाना क्यों
मोती बन जाने दो इनको ,दुनिया को दिखलाना क्यों?

जब कह दिया तो कह दिया दिल की बात छुपाना क्यों
शब्दों से दिल को जीतो तीर उन्हें बनाना क्यों?

शमा जली तो अपनी लौ मैं जला दिया परवाना क्यों
प्रेम अपनों से भी हो सकता है चाहिए दीवाना क्यों ?

जो चला गया वो चला गया रह रह कर उसे बुलाना क्यों
नए स्नेह का पौध लगाओ घावों को सहलाना क्यों  ?

मन निर्मल है तो निर्मल है  लोगो को समझाना क्यों
पाप पश्चाताप से धुल जाते फिर गंगा के तट जाना क्यों ?

कल  गुलाब भी मिलेंगे आज काँटों से डर जाना क्यों
राहों पर जब चल दिए तो फिर लौटकर  वापस आना क्यों ?

गारे का घर भी सुन्दर है ईटों से सर टकराना क्यों
परदेसों में मन पत्थर है अपना देश भुलाना क्यों?

कोई पागल प्रेम के पीछे किसी को धन का नशा चढ़ा
जब सारे के सारे पागल है तो खोले पागलखाना क्यों ?

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Monday, October 10, 2011

कहाँ तुम चले गए ?सुबह से आँख में नमी सी है jagjeet singh we will miss you

जगजीत सिंह अपने साथ भारत की न जाने कितनी ही जिंदगियों के अकेलेपन का सहारा ले गए,न जाने कितने  मोह्हबत भरे दिलों की आवाज़ ले गए,न जाने कितने दिलों की दर्द से लड़ने का माद्दा ले गए ,जाने कितने प्रेमियों के पहले प्रेम के अनुभव का एक हिस्सा खोखला कर गए ,जाने कितनी रातों  को  संगीत से ख़ाली कर गए और हजारों दिलों में बस यादें दे गए यादें जो दिलों में हमेशा महकती रहेगी...और खालीपन जो हमेशा सालता रहेगा और गज़लें जो हमेशा दिलों पर राज़ करेगी और याद दिलाती रहेगी वो आवाज़  जो कल तक हमारे आस पास से आती थी पर अब शायद कही दूर से गूंजेगी...... .कहाँ तुम चले गए क्यों तुम चले गए.....


कहाँ तुम  चले गए ?तुम थे तो
किसी को देखकर ख्याल आता था "जिंदगी धुप तुम घना  साया"
जब सामने कोई आ जाता था तो ना जानिए क्या हो जाता था
और हजारों ख्वाहिशें थी जिन पर दम निकल जाता था

तुम थे तो कागज़ की कश्ती  भी प्यारी प्यारी लगती थी
और परदेश में रहकर भी देश के चाँद से यारी रहती थी
उनके आने की खबर महकने से खुशबुओं से घर महकता था
और झुकी झुकी सी नजर बेक़रार हुआ करती  थी

तुम थे तो पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल जानता था हमारा
और हर शाम किसी के आने की खबर मेहका करती थी
हम सोचा करते थे "तेरे बारे में जब सोचा नहीं था तो मैं तनहा था मगर इतना नहीं था"
और तमन्ना फिर मचल जाए अगर वो मिलने आ जाए

तुम थे तो हम चलते फिरते कह देते थे "मेरे जैसे बन जाओगे जब इश्क तुम्हे हो जाएगा"
और किसी के मिलने आने की बात से ही तम्मना फिर मचल जाती थी"
तुम थे तो सरकते जाते थे रुख से नकाब आह्स्ता आहिस्ता
और आईने जैसे चहरे हुआ करते थे

तुम थे तो किसी के मुस्कुराने पर गम छुपाने की बात मन में आती थी
और दिल में दबी फरियादें भी आँखों में दिख जाती थी
कोई होंठो से छु लेता था तो गीत अमर हो जाते थे
और शाम से ही आँख में नमी सी आ जाती थी

किसका चेहरा अब हम देखे उन गजलों के लिए
तेरी आवाज़ दिल में बस गई उम्र भर के लिए
बिन चिट्ठी बिन सन्देश कहाँ  तुम चले गए
पर जाते जाते तुम हमें अच्छी निशानी दे गए

अब तो बस यही कह सकते है
शाम से आँख में नमी सी है
सदमा तो है मुझे भी की तुझसे जुदा हू मैं
पर हाथ छूटे तो भी रिश्ते नहीं टूटा करते
इसलिए बस चाक जिगर के सी लेते हैं जेसे भी हो जी लेते हैं.....
क्यूंकि अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं...


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Friday, October 7, 2011

सपनो की खेती और इश्वर sapnon ki kheti aur ishwar

अचंभित हू इश्वर की इस लीला पर की उसने अपनी चित्रकारी के लिए हम सबको बना दिया पहले महिला बने या पहले पुरुष इस बात को करने का कोई मतलब नहीं क्यूंकि इस बात पर वैज्ञानिकों से लेकर धर्मगुरुओं तक सब अपना सर फोड़ चुके हैं पर मेरा मन बंदरों को पूर्वज मानने तैयार नहीं होता क्यूंकि अगर वही सब मानना है तो पहले धर्म ,शास्त्र सबको एक तरफ रखकर सोचना पड़ेगा और अगर सब कुछ अलग रखकर ही सोचना है तो लिखने  या सोचने से बेहतर है सिद्धांतों को गढ़ा जाए पर  मैं सिद्धांतों  को पूरी तरह मानने वालों में से नहीं हू क्यूंकि एक सिद्धांत तभी तक सही होत है जब तक अगला सिद्धांत आकर उसे कचरे के डब्बे में जाने पर मजबूर ना कर दे .
हर नई खोज तभी तक नई होती है जब तक  कुछ नया आकर उसे पुराना ना करे  ठीक वेसे ही जेसे मोहल्ले की नई बहु तब तक नई रहती है जब तक एक नई बहु आकर अपनी बड़े बड़े घुंघरू वाले पायल की झंकार से मोहल्ला ना गूंजा दे,जिस दिन मोहल्ले में दूसरी बहु आई, कोई नई बहु पुरानी हो जाती है ठीक वेसे ही एक नई खोज या सिद्धांत आकर बाकि को पुराना या गलत साबित कर देता है.इसलिए सिद्धांतों की दुनिया किसी ज्यादा बुद्धिमान इंसान के पैदा होने तक ही टिकी है .

इश्वर ने अपनी चित्रकारी में हर रंग डाला ,पर अपने खेल खेल में एक बड़ा काम कर दिया उस चित्र में जान डाल दी और छोड़  दिया चित्र को बिना किसी एक्सपाईरी डेट के ताकि अंत की कोई निर्धारित तिथि ना रहे .  इस सबसे बड़ी बात हम सब की पीढ़ियों को छोड़ दिया शापित यहाँ भटकने के लिए .दे दिए हमें छोटे छोटे मकसद ताकि हम जिंदगी भर उन मकसदों को पूरा करने के लिए भटकते रहे.उसने अपने मजे के लिए हम सबको एक होड़ का, एक दौड़ का हिस्सा बना दिया पर इस सबसे बड़ी बात उसने इस रेस का कोई अंत नहीं बनाया ,बस हमें प्रतिभागी बनाकर  एक दुसरे से होड़ करने के लिए छोड़ दिया. ताकि कोई एक आविष्कार करे तो दूसरा उससे बेहतर करने की सोचे,एक सामाजिक प्रतिष्ठा  पाए तो दूसरा उससे ज्यादा पाने की सोचे ,ठीक वेसे ही जेसे "उसकी साडी मेरी साडी से सफ़ेद केसे" और ये भावना सिर्फ महिलाओं को नहीं पुरुषों को भी बराबर रूप से दी या शायद थोड़ी ज्यादा ही उसकी बीवी मेरी बीवी से सुन्दर कैसे ?उसका घर मेरे घर से अच्छा कैसे ?उसका रुतबा मेरे रुतबे से ज्यादा कैसे?यहाँ तक की उसका बच्चा मेरे बच्चे से होशियार कैसे"?और बस इस होड़ में दे दिया हमें भटकाव अनंत काल का.

उसने अपनी चित्रकारी में एक रंग और डाला सपनो का रंग उम्मीदों का रंग वो यही तक करता तो बात अलग थी पर उसने कहानी में ट्विस्ट डाला हमें रात में देखे जाने वाले सपनो से ज्यादा दिन के सपने दिखाए ताकि उसकी इस दौड़ को ज्यादा से ज्यादा प्रतिभागी मिले ,उसने हमें सपने बनाना सिखाया  पर सपने उगाने की कला नहीं सिखाई आखिर क्यों ?जब हम उसने हमें गेहू धान उगाना सिखाया तो सपने उगाना क्यों ना सिखा दिया ? उसने बरसो की मेहनत के बाद पानी बनाने का फ़ॉर्मूला तो बता दिया पर पर नदियाँ बहाने का या नदियाँ उगाना क्यों नहीं सिखाया?
उसने हमें इन सारे छोटे छोटे कामों में उलझाकर बड़े कामों से हमें दूर कर दिया नई नहीं चीजें सिखाकर बड़ी बड़ी पर ज्यादा महत्वपूर्ण बातें  सिखाना भूल गया या शायद जान बूजकर नहीं सिखाई और वो थी अपनी जिंदगी नियंत्रित करने की कला,सपने उगाने की कला ,मुस्कुराहटें पैदा करने की कला ,धरती पर धुप खिलाने की कला ,नदियाँ उगाने की कला ,मतलब उसने हम सबके साथ ठीक वही किया जो एक कुशल व्यापारी करता है अपने नौकर को हर बात सिखाता है पर व्यापार का गूढ़ रहस्य नहीं बताता कुछ बातें छुपा जाता है ताकि व्यापर की कमान उसके हाथ में रहे .गोया की इश्वर  ड्राईविंग इन्सट्रकटर हैं एक ब्रेक हमेशा अपने हाथ में रखता है,  और अपनी इस मनमानी को उसने भाग्य का नाम दे दिया .ताकि कोई उसपर उंगली ना उठा सके .

इसमें कोई दौमत नहीं की वो ग्रेट है पर उसने अपने खिलाडियों को उस भट्टी में झोंक दिया जहा की आग कभी बुझती नहीं ,उसने हमें दिमाग नाम की एक चीज दी पर सारे नियंत्रण अपने हाथ में रखे ,और बीच बीच में गड़बड़ी करने के लिए एक दिल दे दिया ताकि खेल में अगर वो गलत मोहरा चले तो हम उसे दोष ना दे सके दोष कभी दिल पर तो कभी भाग्य पर आ पड़े....उसने हमें मोह दे दिया ताकि हम इसी खेल को सच मान बेठे  ,नरक का  डर,स्वर्ग की सुन्दरता बखान सब हमारी स्मृतियों में डलवा दिया,डलवा दिया इसलिए क्यूंकि ये सारी बातें हमारे मनों में डालने वाले उसी के भेजे हुए खिलाडी थे.उसने अपने चित्र को लाइव बनाने के लिए हमें धर्म ,जाती,बड़ा छोटा,दोस्त दुश्मन जेसी बातें सिखा दी ताकि उसके बनाए इस बड़े से चित्र में सब कुछ अच्छा अच्छा ना हो.  हमें छोड़  दिया खेलने के लिए ये खेल औए वो निष्ठुर कही दूर बेठा सारा तमाशा देखता है हमें रोते चीकते चिल्लाते देखता है ठीक वेसे ही जेसे कुत्ते की पूँछ में पठाखा बंधकर बच्चे खुश होयते है वो भी हमें बेठा देखता है .उसने इस चित्र  में सुन्दरता भी दिल खोलकर उढ़ेली पर हमें ये सुन्दरता भोगने का सुख ना दिया ,हमें तो बस मोहरा बनकर छोड़ दिया  और खुद स्वामी बन बेठा ताकि जब दुःख हो हम उसका मुह ताकें और उसका स्वामित्वा बना रहे.....

हम उसे इश्वर कहते है पर वो तो सबसे बड़ा छलिया है वो ही तो है जो हम सबकी डोर हाथ में लेकर अपने बने लाइव चित्र का प्रसारण देखता रहता है और जब मन होता कहानी में कोई ट्विस्ट डाल देता है ताकि उसके मनोरंजन में कोई कमी ना हो......काश वो हमें इन छोटे छोटे कामों में ना उलझाता...तो हम लेखक डॉक्टर कवी इंजिनियर नेता या पंडित ना नहीं होते तब हम सब किसान होते और तब  हम सब आँखों में सपने नहीं देख रहे होते बल्कि  कही ना कही अपने खेत पर धान की क्यारियों में सपने  उगा रहे होते......

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Monday, October 3, 2011

प्यार में कोई तर्क नहीं होता No arguments in love


वो जब भी आसमाँ के उस छोर को देखती है  जहा से आगे उसकी नजर नहीं जाती, तब हर बार यही सोचती है उड़  जाऊ कही दूर इस पिंजरे से जहाँ अपने पंखों के कुचले जाने का डर ना हो , सोचने लगती है हमेशा धरा  और आकाश के प्रेम के विषय में .सोचने लगती है पंछियों की उन्मुक्त दुनिया के बारे में.हर सुबह जब वो जगती है यही सोचती है आज का दिन अच्छा होगा ,आज मुस्कुराहटें खेलेगी चेहरों पर ,आज सब कुछ उसकी सोच की तरह एक दम परफेक्ट होगा पर ये परफेक्ट की परिभाषा हर बार मात दे देती है उसे  ,क्यूंकि वो बस यही सुन सुन कर बड़ी हुई है की दुनिया में कुछ भी परफेक्ट नहीं होता . पर गलत है ये बात क्यूंकि ,एक चीज हमेशा से परफेक्ट होती है वो है उम्मीदें ,उम्मीदें जो दुसरे उससे करते हैं और वो दूसरों से करती है ,ये उम्मीदें हमेशा से परफेक्ट होती है कभी कोई कमी नहीं होती और उम्मीदों का टूटना तो उससे ज्यादा  भी परफेक्ट होता है .
वो सोचती है दुनिया में हर तकलीफ,दुःख ,परेशानी अपने आप में परफेक्ट होती है  या उसके एकदम करीब. रोज देखती है अपने घर की खिड़की से कई लोगो को और हर किसी को देखकर सोचती है ये दौड़ लगा रहा है परफेक्ट होने के लिए और एक दिन आएगा जब ये भी मान लेगा की दुनिया में कुछ भी परफेक्ट नहीं होता . उसके घर में कांच के गिलास नहीं टूटते ये परफेक्ट उम्मीदें टूटती हैं हर रोज जब ये टुकड़े उसके दिल में कही चुभते हैं तो कही से एक और उम्मीद सर उठा लेती है आज नहीं तो कल सब परफेक्ट होगा और सच मानिये ये उम्मीद भी पिछली वाली उम्मीद की तरह एकदम परफेक्ट होती है .

कितना सोचती है ना वो ?उसके हाथों में, पैरों  में चाहे सरपट  भागने का दम ना रहे पर पर उसकी ये सोच भागती रहती है बिना रुके लगातार .पहले भी एसे ही भागती थी उसकी सोच तब अम्मा कहती थी गुडिया इतना नहीं सोचा कर इतना सोचना लड़की जात के लिए ठीक नहीं ,और जब भी अम्मा कहती थी वो चिढ़कर  टाल देती थी हुह लड़की जात के लिए कुछ भी ठीक ना है अम्मा पर ठीक तो बस इतना है की वो उम्मीदें ना करे किसी से पर दूसरों की उम्मीदों  को ना तोड़े ,तुम भी तो यही करती आई हो ,पर मैं ना करूंगी एसा.कभी ना करुँगी .मेरी दुनिया में बेबसी ना होगी,ना किसी पर इतनी निर्भरता की अपने मन की छोटी छोटी खुशिया भी छोडनी    पड़े

पर अब समझ आता है उसे क्यों कहती थी अम्मा एसा .कभी कभी सोचती है आंसू दुनिया में उसके सबसे प्यारे साथी हैं कम से कम ये तो उसका साथ नहीं छोड़ते , उसे अकेला दीवारों से सर टकराने के लिए मजबूर नहीं करते ,कभी कभी उसे लगता है कभी कभी दुःख इतने अपने से लगने लगते है हैं की कही से अचानक सुख आ भी जाए तो आँखों पर विश्वास  ही नहीं हो शायद .

कभी कभी वो महसूस  करती है की इस भरी भीड़ में वो चलती जा रही है बस चलती जा रही है और उसके हाथ में जो हाथ है उस हाथ का अहसास भी शायद मरने लगा है अब बस रास्ता ही रास्ता है कही कोई छोर नहीं . फिर एक उम्मीद आती है जो उस हाथ के मरे हुए अहसास में थोड़ी सी जान फूंक देती है जेसे एकदम सूखी हुई मनीप्लांट की पत्तियों में कोपलें उग आई हो ,वो उस हाथ में थोडा कम्पन महसूस करती है और ये कम्पन उसमे उम्मीद जागा देता है की साथ चलने वाले हाथ का चहरा एक बार पलटकर उसकी तरफ देखेगा और ये रास्ता थोडा आसान सा अपना सा दिखाई देने लगेगा....पर फिर ये अहसास अपने आप ही खतम हो जाता है जब साथ वाले चहरे में कोई हलचल दिखाई नहीं देती ,पर  वो कल के लिए उम्मीद  मरने नहीं देती एक परफेक्ट उम्मीद को बचा लेती  है अपने अन्दर ठीक वेसे ही जेसे एक माँ बचा   लेती है अपने गर्भ   की बच्ची को इस उम्मीद के साथ की ये दुनिया उसे उतने दुःख नहीं देगी जितने आज तक नारी को मिलते आए है.....

कई बार वो वो इस बात पर पूरा विश्वास कर लेती है की इंसान को अपने कर्मो की सजा इसी जनम में भोगकर  जानी होगी और जेसे ही ये  विश्वास घर जमाता है वो अपने पाप ढूँढने  लगती है, वो बददुआएं  टटोलने लगती है जो कभी उसको मिली होगी पर जब जब गठरी में कुछ एसा दिखाई नहीं देता जो उसके इस खालीपन के अभिशाप का कारन दिखाई दे तो वो फिर ये मान लेती है की पिछले जनम के पाप ज्यादा होंगे जो इस जनम में ट्रान्सफर कर दी  चन्द्रगुप्त ने .कभी कभी डर जाती है इस बात से की उसकी दुआ , बद्दुआ बड़ी जल्दी लगती है तब उसे हर बार भस्मासुर की कहानी याद आ जाती है जिसमे वो अपने ही सर पर हाथ रखकर खुद को राख कर लेता है और ये सोचकर ही वो सिहर जाती है की कही उसने खुद कभी खुद को ही बद्दुआ तो नहीं दे दी अनजाने में ?

कभी कभी सोचती है प्यार दुनिया की सबसे भली चीज है पर इससे कई ज्यादा बार वो ये सोचती है की प्यार दुनिया की सबसे बुरी चीज है क्यूंकि वो आपको सारी दुनिया से दूर कर देता है और एक दिन एसा आता है जब प्यार से लगाईं हुई  आपकी  सारी उम्मीदें दम तोड़ देती है और ये दुनिया भी आपका साथ नहीं दे पाती क्यूंकि प्यार के लिए आप कब का दुनिया को छोड़ चुके होते है .फिर कुछ नहीं होता आपके पास, ना पैसा ना प्यार और ना ये दुनिया .पर फिर सोचती है ये उतना भी बुरा नहीं क्यूंकि तब आपके पास सोचने के लिए कुछ तो होता है चाहे अच्छा या बुरा पर कुछ तो.....

कभी कभी लगता है जैसे प्यार में दिल से ज्यादा दिमाग का इस्तेमाल किया जाना चाहिए ताकि कोई अपने प्यार से की हुई उम्मीदों के टूटने से ना टूटे पर फिर अपनी इस सोच पर खुद ही मुस्कुरा देती है क्यूंकि जहा तर्क होते हैं वहा प्यार कैसे  हो सकता है बस विश्वास होता है जो या तो मजबूत होता है या बार बार टूटकर अगली उम्मीद की नीव पर फिर खड़ा हो जाता है.और बस ये सोचते ही उसकी खुले आकाश में उड़ना भुलाकर पिंजरे में रहना भला लगने लगता है . सच है प्रेम तो प्रेम है इसमें कोई तर्क नहीं होता......

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी(चित्र गूगल से साभार )