Sunday, November 27, 2011

प्रेम तो बस प्रेम है

आज ज्यादा बातें नहीं बस २ अलग अलग ढंग की कविताएँ,लिखी है...आधार प्रेम ही है ....एक में आगृह है दूसरी में भक्ति का अंश....
1)

जानती हू तुम दिल की दिल में रखते हो
हमेशा शांत रहते हो कभी कभी बरसते हो
यूं सब समाकर ना रखो ,छलकता जाम हो जाओ
कभी तो खासपन छोड़ो ज़रा से आम हो जाओ 



 2)
तुम्हे देखकर ग़ज़ल कह ना दू मैं
महकता सा पावन कमल कह ना दूं मैं

तुम पहली किरण,चमकती ओंस सी हो
निर्मल सी, चंचल सी, निर्दोष सी हो

जहाँ अनंत प्रेम होता है ,उस अंक सी हो
हृदय मोती तुम्हारा तुम शंख सी हो

रुई का फाहा भी तुम्हे छुना  चाहे
कलंक ना लगे तुम्हे , इस बात से घबराए

कभी वन की चिड़िया कभी हिरनी सी चंचल
मूरत सी सुन्दर वेसी ही अविचल

तुम्हे प्रेम करने का सोचु भी कैसे?
तुम प्रेम की देवी, मैं हूँ  भक्त  जैसे ....
मैं वैराग धरकर तुम्हे पूजना चाहू
तुम पास बुलाओ पर मैं दूर जाऊं 
तुम्हारे प्रेम से डरता हूँ  मैं किंचित
रह ना जाऊं  कही तेरी भक्ति से वंचित.....

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Friday, November 25, 2011

अस्सी ,नब्भे पूरे सौ (100 followers and 26/11/2012)

सबसे पहले तो बहुत बहुत धन्यवाद् उन सारे १०० लोगो का जो मेरे ब्लॉग को फोलो  कर रहे हैं...आप लोगो की दुआओं से में लिख पा रही हूँ .कई दिन से प्रेम पर विरह पर लिख रही हू पर २४/११/२०१२ को शरद पवार जी के साथ जो हुआ ,सरकार ने बाहरी निवेश को लेकर जो निर्णय लिया उसपर कुछ पंक्तिया लिखी है...आज उन्ही को आपसे साझा  कर रही हू. कभी कभी मन अपने ट्रैक से अलग सोच लेता ये कविताएँ उसी के कारण जन्मी हैं...आखिर हम सब समाज का हिस्सा है और समाज  की घटनाओं का हम पर असर होना लाज़मी सा है ......

२४/११ को मुंबई में शरद पवार काण्ड का भारी  असर देखा गया.ऑफिस से घर जाने में पसीने आ गए लोगो को ,बस ट्रेन सब में गज़ब की भीड़ ,रोड़ो  पर जाम .......२५ को पुणे अमरावती और महाराष्ट के कई शहर बंद रहे बस वही सब दिल में आ गया.....
1)
 कही मौत का बढ़ रहा काम देखो
किसानो को पल भर ना आराम देखो
गरीबों की रोटी  के ना ठिकाने
शरीफ ही हो रहे हैं बदनाम देखो
आम इंसान जलता  है फर्क भी नहीं
लूट मची है सरे-आम देखो
जरा  सी चोट पर सारी मुंबई भड़का दी
एक थप्पड़ का क्या होता है अंजाम देखो 

२)
उसे कैसे इंसान कह दे बताओ 
जो शांति नहीं बस कलह चाहता है
धर्मों को बेदर्द दीवारें बनाकर
दिलों में दरारों का असर चाहता है  !१!

हमें यू ना बाटों, हमें यू ना तोड़ो की
हर इंसान शांति की सतह चाहता है
सबके अन्दर  छुपा वो हिरन का छौना
फुदकने की फिर से वजह चाहता है....

आधुनिकता जरुरी है,शायद सुविधजनक भी पर बात जब आधुनिकता से आगे बढाकर भारत में विदेशी  निवेश तक पहंची है तो मन में कुछ पंक्तिया आ गई जो पन्नों पर उतार दी.....
३)
कांदा -रोटी खाकर ही प्रभु के गुण गाएँगे
फटे हुए कपड़ों में रेशमी, पेबंद लगाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे (कांदे =प्याज़ )

जनता की नई इमेज होगी
 चाहे फटी कमीज़ होगी
जो थोडा बहुत गरीब कमाता
वो भी गोरे ले जाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे

ताज़ी सब्जी सपने में होगी
सोंधी खुशबु बस बातों में होगी
कोल्ड स्टोरेज  का कचरा
पेटों में भरते जाएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे

जमाखोरी बढ़ जाएगी
अपनी चीज़ें महंगे पेकेट  में बंधकर आएगी
बासी पुरानी चीज़ खरीदकर
किस्मत पर इतराएँगे
पर अहसान बड़ा है नेताओं का
जल्दी ही सारे भारतीय ब्रांडेड कांदे खाएंगे


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Thursday, November 24, 2011

अपनी खैरियत की दुआ मांग लेना....

पिछली पोस्ट में कहा था अलगाव,विरह जेसी भावनाओं पर बात करेंगे ,पर आज सोचा बातें दूसरी की जाए और  कविताएँ,त्याग,विरह और अलगाव की डाली जाए...आइस क्रीम के साथ हॉट चोकलेट जेसा फ्यूजन  बनाया जाए  कुछ एसी बातें जो अचानक दिल में आजाती है वो लिख डाली है बस ........
जब  इंसानों  को  देखती  हू  तो  लगता  है  हर  कहानी  एक  दुसरे  से  मिलती जुलती  सी  है  कोई  यूनीक नहीं कही ना कही सब एक ही गोमुख से  निकले  हुए  ....वेसे भी शुरुआत तो सबकी एक जैसी ही है बस,  कथानक और पृष्टभूमि अलग है  बाकि,  जनम  तो  सारे  नायक, नायिका  की  तरह  ही  लेते  हैं ..अपनी अपनी  कहानी  बनाते  हैं पर एसा लगता है जेसे सबकी कहानियों के कुछ टुकड़े  एक  दुसरे  के  उधार  पर  जिन्दा  है . ऐसा  लगता  है  सारे  आईने  है जो  टुकडो  से  जुड़  जुड़  कर  बने  हैं  और  इन  टुकड़ों  जेसे  ही  कुछ  टुकड़े दूसरी  कहानी  के  आईने  में  भी  है .हर  आईने  से  थोडा  चूरा  दूसरी कहानियों  में  जा  मिलता  है  कोई  भी  साबुत  नहीं  है यहाँ .... बस   एक  दुसरे  की  कहानियों को  देखकर  अपनी  कहानियां  महसूस  करते  हुए ....या  दुसरे  आईने  में  गाहे बगाहे  अपना  अक्स  देखते  हुए .. .
सारे के सारे  आईने इस इंतज़ार में की कब ये टूटन कम होगी और उन्हें वापस से रीसाईंकिलिंग के लिए भेज दिया जाएगा ,ताकि वो फिर नया आइना बन सके जिसके टुकड़े हों  ...सभी बाहर से आवरण  ओढ़े  की  वो  जीवन  संघर्ष  मैं  है , आनंद  ,दुःख ,प्रेम  में है  पर अन्दर से हर आइना जनता है की टूट टूट के एक दिन चूरा हो जाना  है  और  एक  ही  अदुर्श्य  भट्टी  में  सबको  गलना  है  ...सब  जानकार  भी सबकुछ  नकारते  हुए ...जिन्दादिली  से  कहानियां  बनाते  हुए ....क्यूंकि  ये  सारी  कहानियां , ये  सारे  आईने  जानते  है  अगर  आज  से  ही  भाति  और उसके  ताप  के  बारे  में  सोचा  तो  जाने  कहाँ  भटक  जाएँगे .....बस  सारे  के  सारे  इस  भटकाव  से  बचने  की  कोशिश  करते  से ... हमेशा से  सुना  है  जेसे  जेसे  मृत्यु  का  समय  नज़दीक  आता  है जीवन  से  मोह  या तो बहुत  बढ़  जाता  है  बहुत  ही  कम  हो  जाता  है  पर  कभी  कभी  लगता  है  बड़े खुशनसीब  हैं  वो  क्यूंकि  जल्दी  ही  इस  भटकाव  से  मुक्त  हो  जाने  वाले  हैं ....वेसे कभी प्रेमचंद  की  कहानी  "बूढी  काकी " में  पढ़ा  था  जीवन  के  सायंकाल  में सारी  इन्द्रियों  की  सक्रियता  स्वाद -इन्द्री  में  आकर  सिमट  जाती  है  कितना अजीब  है  जब हमारा  सच  में  खाने  का  समय  होता  है तब बस  समय  ही नहीं  होता  ,दौड़ भाग होती है और जब शरीर  सच में खाने का परहेज रखना चाहता है तब  स्वाद-इन्द्री जागृत  हो  जाती  है .... 

खेर बातों का क्या है कभी खतम नहीं होती  चलती ही रहती हैं अनवरत ,जैसे कहानियां कभी ख़तम नहीं एक कहानी  से दूसरी जुडी होती है , तो अब कुछ पंक्तियाँ,कुछ मुक्तक....

शुरुआत  बेवफाई से करते है...


एक बेवफा के लिए और क्या दुआ मांगू?
तुम अपने लिए एक नया जहाँ मांग लेना
मैं तारे की तरह टूटकर गिर  जाउंगी
तुम अपनी खैरियत  की दुआ मांग लेना....

 मेरे साथ का  मौसम तुम्हे सुहाना  नहीं लगता
कोई एक मौसम खुशनुमा  मांग लेना
मेरे लिए तो बस तुम ही जीने का सबब थे
अब जीने की अपने  वजह मांग लेना ......

अब थोडा त्याग की बात,अलगाव की बात....

मेरे साथ साथ चलना तुमसे नहीं बनेगा
इन कंटकों पर प्रेम का कुसुम नहीं खिलेगा
मैं जंगलों का मुसाफिर ,तुम शांत झील सी हो
ना देख सकूँगा मैं तुम्हे क्ष्रण भर भी पीर सी हो

बड़ा कठिन है देना पर ये त्याग मांगता हू
मैं विरह की पीड़ा  साकार मांगता हूँ .....

जानता हूँ तुम मेरे साथ भी चल दोगी
मेरे घावों  को अपने आँचल की छाव दोगी
पर तुम्हारे आँचल को आंसुओं का रंग कैसे दूं ?
तुम प्रेयसी हो मेरी तुम्हे कंटक पंथ  कैसे दूं?

क्या मुझे दे सकोगी बस ये उपहार मांगता हूँ
मैं दुनिया की जीत और दिल की हार मांगता हू .....
मैं विरह की पीड़ा साकार मांगता हूँ...

आज के लिए बस इतना ही ..........
 

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Tuesday, November 22, 2011

बस इश्क की बंदिश होती है



 मैंने अपनी पिछली पोस्ट मैं भी कहा था इश्क करने लगना अलग बात है और इश्क लिखने  लगना अलग ...वेसे देखा जाए तो कोई बड़ा सा फर्क नहीं पर, बारीक सी  रेखा भी गहरी सी है..अलगाव,त्याग,विरह सब इसी  से जन्म लेते हैं और जब इंसान इश्क में होता है तो वो हर बात पर सोचता है गोया भविष्य देख लेना चाहता  हो ,तोल लेना चाहता हो खुद को हर कसोटी पर ,वैसे कसौटियों का क्या है ये बदलती रहती है हर इंसान हर भावना के साथ....किसी ने मेरी पिछली पोस्ट के कमेन्ट में कहा आप इश्क को गलत ढंग से समझ रहीं हैं ,शायद उनकी बात सही हो पढ़कर अच्छा लगा की मुझे पढ़ा जाने लगा है ,मैं जो समझ रही हू वो कही गलत न हो इस बात पर गौर किया जा रहा  है... मुझे लगता है हर इंसान इश्क को  अपने अलग ढंग से ही समझता है और समझना भी चाहिए क्यूंकि इश्क मैं कॉपी कैट वाला फंडा लागू नहीं किया जा सकता...वेसे अभी मेरी उम्र ही क्या है न इश्क समझने की न जिंदगी समझने की फिर भी कोशिश कर रही हु....समझने की नहीं लिखने की...शायद लिखते लिखते समझ जाऊ...या समझते समझते लिखने लगी हू.......

कुछ छोटी छोटी  कविताएँ ,कुछ मुक्तक लिखे है आज वो आप सब के सुपुर्द कर रही हु...
        आम बन जाओ
जानती हू तुम दिल की दिल में रखते हो
हमेशा शांत रहते हो कभी कभी बरसते हो...
यूँ सब समाकर ना रखो, छलकता जाम बन जाओ
कभी तो  ख़ासपन  छोड़ो ज़रा से आम बन जाओ
         
        बदनाम हो जाए..
हर एक लम्हा तुम्हारी याद में तमाम हो जाए
तुम्हारा नाम जुड़ जाए और हम गुमनाम हो जाए
राहे मोहब्बत  से बस इतनी सी तमन्ना है
तुम्हारे इश्क में हम भी ज़रा बदनाम हो जाए....

       पलटकर नहीं देखा 
कश्ती डूब गई इसकी भी अपनी वज़ह थी
मै लहरे मोह्हबत में रही, मैने गहराई-ए -साग़र नहीं देखा
 जो फासले बढे उनका गुनाहगार  कौन हो?
मैं धीरे चली और तुमने  पलटकर नहीं देखा 

  बस इश्क की बंदिश होती है
जो लोग  कहते हैं इश्क अमीरों का काम है
कोई उन्हें बताए फकीरी में भी मोहब्बत होती है

ख़ामोशी में ही दिल की गहराई में लावा पकता है
जब घुटन बेइंतेहा  बढती है तभी बगावत होती है

अपनों को अपना बनाकर रखना ही   मुनासिब है
बर्बाद किसी को करने में अपनों की ही साजिश  होती है

दीवारों के पीछे कुछ आवाजें घुटती रहती है
उन्हें लोगो का डर नहीं होता बस इश्क की बंदिश होती है .

बस आज के लिए इतना ही अगली पोस्ट पर त्याग और अलगाव की कुछ पंक्तियाँ डालूंगी.....

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Sunday, November 20, 2011

आईने से डरती हूँ


 प्रेम करना भी एक अलग अहसास है ,मुझे लगता है  मोह्हबत होने के लिए किसी एक शक्श का होना जरुरी नहीं होता...कुछ लोग बस मोहब्बत करने के लिए ही बनते हैं...वो एक शख्स उनकी जिंदगी में आ गया वो उसपर सारी मोहब्बत लुटा देते हैं...और अगर वो शख्स ना लेना चाहे तो पन्नो पर ,दीवारों  पर ,रंगों में ,बातों में  हर जगह मोहब्बत उढेल देना  चाहते हैं ....इन लोगो को हर चीज़ से प्यार हो जाता है कभी ग़ज़लों से ,कभी आइसक्रीम से,कभी ठंडी हवा से ,कभी तस्वीरों से ,बातों से यहाँ  तक की कभी कभी ख़ामोशी से भी ...क्यूंकि ये बस मोहब्बत करने के लिए बने होते हैं...पर एसे लोगो के साथ बस एक ही बुरी बात होती है ये जिस तरह बेपनाह मोहब्बत करते है...उसी तरह बेपनाह नफरत और बगावत भी करते है.....
प्रेम और विरह दोनों को लिखना शायद थोडा आसान है पर करना उतना आसान नहीं जितना दीखता है ,मोहब्बत अपने साथ तकलीफें लाती है पर ये भी उतना ही बड़ा सच है की मोहब्बत की उम्मीद पर अपने चाहने वाले से हद की मोह्हबत न मिलना ,विरह से ज्यादा खतरनाक है क्यूंकि विरह में  मिलने की उम्मीदें होती हैं पर बेरुखी से आहत इंसान नाउम्मीद सा हो जाता है और यही नाउम्मीदी  बगावत को जन्म देती  है कभी कभी...

एक छोटी सी कविता  लिखी है...इसे  किस श्रेणी में डाला जाए ये मैं नहीं जानती पर...लिखा दिल से है इसकी तसल्ली है दिल को.

बस एक तुम ही ,तुम  हो बस एक मैं ही ,मैं  हूँ
शिकायत भी करती हूँ  तो बस तुमसे करती हूँ

अपने लोग अपना घर छोड़कर इन शहरों में आना
ये अकेलापन भी खाता है ,और भीड़ से भी डरती हूँ

शहर की सड़के बड़ी जालिम जाने कब पैरों से खिसक जाए
शायद इसलिए पकड़कर तुम्हारा हाथ चलती हूँ

मेरे तो सारे के सारे विषय ना जाने कहाँ खो से गए
अब बस तुमको लिखती हूँ और बस तुमको पढ़ती हूँ

जब तुम देखते ही नहीं तो ,दिखने का मतलब क्या ?
महीनों से खुद को नहीं देखा ,अब आईने से डरती हूँ 

तुम सोच सकते हो हजारों बातें दुनिया की
मेरी दुनिया तुम्ही से शुरू तुम्ही पर ख़तम सी हुई
सोचती हूँ ,मोहब्बत करू तो करू कितनी?
सच कहू ?थोड़ी नफरत भी करती हूँ तो बस तुमसे करती हूँ ......



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Friday, November 18, 2011

मैं क्या करूँ

तुम मुझसे दुनियादारी की उम्मीद करते हो
मेरी मोहब्बत दुनियादारी ना माने मैं क्या करूँ   ?

तुम कहते हो तुममे ,मुझमे कुछ फासला रखो
मेरा मन तुम्हे खुद से अलग ना जाने  मै क्या करू ?

तुम कहते हो बचपना छोड़ो ,संजीदगी लाओ
तुम्हारे प्यार की तरह मेरा बचपना भी ना जाए मैं क्या करू ?



तुम कहते हो इतना प्यार नहीं अच्छा
पर ना चाहूँ तो  भी दिल तुम्हे चाहे मैं क्या करू?

तुम सागर से गंभीर  मै नदिया सी तरंगिनी
ये तरंगे तुम्हारी गंभीरता से डर जाए मै क्या करू ?

तुम्हे आकाश बनना है मुझसे  धरती सी उम्मीदें है
पर धरती  सा धीर मुझमे ना आए मै क्या करू ?

तुम्हारा सारी दुनिया से मिलना है मेरे लिए एक बस तुम हो
मेरा हर पल बस तुममे ही गुज़र  जाए में क्या करू.....?

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Tuesday, November 15, 2011

छिपाती दिखाती खिड़कियाँ

ईंट, गारा, मिटटी,सीमेंट ,रेती से बनी चंद दीवारें और इन दीवारों के जुड़ जाने से बना एक मकान, इन मकानों को घर बनाने की जद्दोजहद में उलझे इंसान  और इस सब के साथ इन दीवारों में सुराख करती कुछ खिड़कियाँ . खिड़कियाँ जो शायद हवा को अन्दर बाहर करने,रौशनी को कोने कोने में फेलाने के लिए बनाई  जाती होंगी कभी. पर अब ये सिर्फ यही काम नहीं करती...अब ये खिड़कियाँ ना जाने कितने छोटे बच्चो को आसमान में उड़ते पंछी दिखाती है, बूढी आँखों को पुराने दिनों की याद दिलाती,ना जाने कितने धड़कते दिलों को सामने वाली खिड़की  पर एक और धड़कता दिल देखने का आनंद देती ,इशारों का आदान प्रदान करते देखती होंगी !

हर खिड़की के पीछे की अपनी एक कहानी होती है  ,अपने को पर्दों में ढंककर  इन खिडकियों को लगता है जेसे ये हर कहानी को अन्दर दफ़न कर लेंगी,ठीक वेसे ही जैसे  कब्र दफ़न कर लेती है अपने अन्दर हर तरह के, हर ढंग के ,हर किस्म के इंसान को...पर ये खिड़कियाँ  नहीं जानती शायद, कि कब्रें भी नहीं दबा पाती अपने अन्दर सब कुछ. कुछ किस्से, कुछ कहानियां, कुछ बातें और कुछ यादें रह जाती है इंसानों के जाने के बाद भी ,दुसरे इंसानों के जेहन में और ये सिलसिला चलता रहता है हमेशा . ठीक वेसे ही सब कुछ नहीं छुपा पाती ये खिड़कियाँ ,कभी उड़ते परदे,बोलती दीवारें,सूजी ऑंखें, खिलखिलाने की आवाजें वो सब बयां करे देती है जो ये खिड़कियाँ छुपाने की कोशिश करती है....कहते है ना दाइयों से पेट नहीं छुपता वेसे ही कितनी ही कोशिश कर ली जाए खिडकियों के पीछे हर कहानी नहीं छुपाई जा सकती.....कोई ना कोई बात आ ही जाती है बाहर ...

इन  खिडकियों से दिखती हैं कुछ बोलती सी आंखें हर रोज सुबह और एक हाथ जो जाने वाले को अलविदा कहता है ,मै अपनी खिड़की से देखती रही  हू ये सब. जाने कितनी उम्मीदें होती हैं उन आँखों में की जिसे अलविदा कहा जा रहा है वो जब शाम को आएगा तो ऐसा होगा वेसा होगा ,और साथ में दिखता  है कल की उम्मीदों में से कुछ के पूरे ना होने का दर्द.पर नई उम्मीदें पुरानी उम्मीदों को नाउम्मीद नहीं होने देती उन्हें दे देती है एक संबल  और ये सिलसिला हर रोज चलता रहता है.....

इन हाथों और आँखों को देखकर मुझे कभी कभी इनके पीछे की आत्माएं अपने अन्दर महसूस होती है. हर बात उनके एंगल से सोचती हू कुछ देर. अभी क्या चल रहा होगा इनके मन में ,क्या उम्मीदें क्या विश्वास लेकर जी रही है ये ,किन अंतर्द्वंदों से जूझ रही होंगी जेसे कई प्रश्न होते हैं  उस समय ,ठीक वेसे ही जेसे हर बार अमृता प्रीतम को पढने के बाद उनकी आत्मा उतर आती है शरीर में  ....हर बार उन्हें खुद में महसूस करने लगती हू.....उनकी कविताएँ  ,उनका दर्द ,उनका प्यार,उनका अलगाव सब खुद में महसूस करने लगती हू.....ऐसा लगता है जेसे कुछ देर के लिए उनने मेरे अन्दर जनम ले लिया और सौप रही है अपनी विरासत मुझे....

इसे मेरी बदकिस्मती कहा जा सकता है की पिछले कई महीनों से जब से ये नया जॉब ज्वाइन किया है मुझे एक बार भी इन खिडकियों से झांककर  जाते हुए इंसान को अलविदा कहने का मौका नहीं मिला क्यूंकि मुझे घर से सुबह साढ़े  आठ बजे ही निकल जाना होता है और लोकेश १० बजे ऑफिस जाते है ,हाँ जब कभी वो मुझसे पहले ऑफिस जाते हैं में जरुर झांककर  अलविदा कहने के लिए खिड़की तक जाती हू पर अब वो सर उठाकर ऊपर नहीं देखते क्यूंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं होती की में खिड़की पर खडी होउंगी....जिंदगी कितनी उलझी सी हो गई है इस भाग दौड़ में....

कभी कभी खुद को लोकेश की जगह पर रखकर देखती हू तो सोचती हू क्या पता शायद उनके  मन में भी ये टीस उठती हो , की मैं क्यूँ किसी खिड़की से झांककर  उन्हें अलविदा नहीं करती.....क्यूँ मेरा हाथ जाते जाते उन्हें ये संबल नहीं देता की संभल  कर जाना,या क्यों मेरी आँखें उनसे ये नहीं कहती की समय से आना मैं इन्तेजार करुँगी.....जब जब खुद को उनकी जगह रखकर सोचती हू तो लगता है मेरी तरह उनके भी कई छोटे छोटे सपने इन खिडकियों के पीछे दफ़न हो रहे हैं....और जब जब ये सोचती हू अन्दर ही अन्दर एक घुटन सी होने लगती है ,ठीक वेसी ही जेसी किसी बहुत बोलने वाले इंसान को दिन भर का मौन व्रत रखने के बाद होती होगी या कम बोलने वाले इंसान को बार बार बोले जाने के लिए कहे जाने पर होती होगी.....हर बार  एक बात बड़ी टीस के साथ सर उठाती हैं कि पुरुषों के भी अपने दर्द अपनी तकलीफें होती होंगी जो कह नहीं पाते. कभी पुरुष होने का अहसास उन्हें रोने नहीं देता होगा और कभी ना बोल पाना उन्हें भी उतनी ही तकलीफ देता होगा जितना स्त्री-जाती को देता  है....

ये खिड़कियाँ जो खुद तो खामोश रहती हैं पर अपने अन्दर ना जाने कितनी सिसकियाँ ,मुस्कुराहटें,दर्द ख़ुशी सब दबाए  बैठी है......शायद इसीलिए लोगों ने परदे लगाना शुरू किया होगा ताकि घर की बातें खिडकियों  से बाहर की दुनिया में ना फेल जाए ...पर काश लोग कोई एसा पर्दा भी लगा पाते जो आँखों को बोलने से रोक पाता,भावो को निकलने से ,घावों को उभरने से,दीवारों को कानाफूसी करने से और मन को उड़ने से रोक पाता......या काश ये खिड़कियाँ भी मुखर हो जाती.....या !!! या हमारे मन में भी एक खिड़की होती जिसमे झांककर हम सामने वाले कि कहानी पढ़ पाते,उसके भाव समझ पाते ...पर काश !!!!!!!...................


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Monday, November 14, 2011

कुछ बिखरे मोती kuch bikhre moti.....

आज फिर कुछ छोटे छोटे मुक्तक  इकट्ठे किए है जो फसबूक के पेज पर डाले है कुछ दिनों में .

साथ हुए तो हाथ पकड़कर चलना होगा
तुमको मुझमे, मुझको तुममे ढलना होगा
एक दूजे का अक्स (परछाई) बने हम आज तक पल पल
 अब ,मुझे तुम्हारा, तुमको मेरा " दर्पण"  बनना होगा ((१))

कई दिन हो  गए हमने खुलकर नहीं सोचा
जब से तुमसे मिले बरबादियों का मंज़र नहीं सोचा
बस एक दुसरे को सोचकर  मध्य में आ गए है हम
तुमने धरती नहीं नहीं सोची मैंने अम्बर नहीं सोचा  ((२))

बहुत दिन से उदासी की चादर ओढ़ रखी है
चलो एक बार तनहाइयों का पर्दा हटा दे हम
वजह ना और कोई मिल सके तो छोड़ दे सब कुछ
अपने आंसुओं  के संग  ही थोडा मुस्कुरा दे हम  ((३))

अब कुछ ऐसे  मुक्तक जो कुमार विश्वास के लिखे मुक्तकों के कमेन्ट में डाले थे आज इकट्ठे कर के एक जगह प्रस्तुत कर रही हु...इन्हें मैं पूरी कविता के रूप में नहीं डाल रही क्यूंकि इनकी शुरुआत की प्रेरणा  कुमार विश्वास हैं...
तिमिर जो बढ़ रहा था कम हुआ है ,तुमको सूचित हो
पाप का वेग ,मद्धम हुआ है तुमको सूचित हो
जो नर्तन ,तांडव रूप में विध्वंसकारी हो रहा  था
वही लयबद्ध जीवन बन रहा है तुमको सूचित हो

कलम - क्रांति का संगम हो रहा है तुमको सूचित हो
चिंगारियों का उद्गम हो रहा है तुमको सूचित हो
वो पंछी जो कभी  सियासी कलहों में उलझे थे
उनका रण में पदार्पण हो रहा है तुमको सूचित हो

भट्टियों में स्वर्ण तपता जा रहा है तुमको  सूचित हो
दिखावे का पीतल सिमटता जा रहा है तुमको सूचित हो
निर्दिष्ट की चाह में जो मंदिरों में निष्कर्म बेठे थे
उन्हें भी क्रांति गीत, जगा रहा है तुमको सूचित हो

विप्लव (विद्रोह)का बीज बोया जा रहा है तुमको सूचित हो
त्रिदिव (स्वर्ग) धरती  पर लाया  जा रहा है तुमको सूचित हो
समय की जंग लगने लग गई थी जिन कलमों को
उन्हें रक्त  से भिगोया जा रहा है तुमको सूचित हो


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Tuesday, November 8, 2011

दिवाली और यादें

ये पोस्ट लिखने का शायद ये सही समय नहीं पर समय का क्या है ये कभी सही कभी गलत नहीं होता शायद, ये तो बस समय होता है हम चाहे तो भी रोक नहीं पाते और चाहे तो भी आगे नहीं बढ़ा सकते .और इस गुजरे हुए समय की कुछ यादें आपको हमेशा हँसाती रुलाती रहती है ,वेसे आंसुओं का भी क्या है आते जाते रहते है कभी ख़ुशी के कभी गम के . पर हर जब भी आते है कोई ना कोई भावना उमड़कर बरस जाती  है  वेसे भावनाओं का चाल चलन समय जेसा ही है ना जबरजस्ती लाइ जा सकती है ना ही जोर जबरजस्ती से भुलाई जा सकती है ,उमड़ गई तो बरस जाएगी और नहीं तो हम रीते के रीते (ख़ाली ).

आज घर बहुत याद आ रहा है खेर इसमें कोई नई बात नहीं घर तो रोज ही याद आता है पर बात ये है की आज थोडा ज्यादा ही याद आ रहा है.शायद दिवाली गई है ना अभी अभी इसलिए.याद आ रहा है पर लिख क्यों रही हू इसका बस एक ही कारन है लिखना ही एक एसा हथियार है मेरे पास जो मेरी भावनाओं को संयत करने मदद कर सकता है .

हाँ तो बात हो रही थी घर की. आम जिंदगी रही है मेरी पढ़ाकू, कम मस्ती करने वाली गंभीर  लड़कियों सरीखी,पर एक ही बात रही है जो शायद अलग रही अन्य लोगो से वो है भावनाओं का अतिरेक.बात बात में रो देना,हसतेहँसते भी आंसू पोछना मेरी हमेशा की आदत रही है .

खेर बात हो रही थी दिवाली की,मेरे घर की दिवाली मुझे जिंदगी भर याद रहेगी इसलिए नहीं की कुछ  बहुत ही ख़ास होता था उस दिन, बल्कि इसलिए की मेरी दिवाली सिर्फ दिवाली के दिनों में शुरू नहीं होती थी.अपने कॉलेज केदिनों
से ही मुझे याद है घर में चाहे कोई भी पेंटर आया हो मैंने अपना कमरा किसी को पैंट नहीं करने दिया .हर साल अपना कमरा मैं खुद पैंट  करती थी ,रंगों का चुनाव ,कौन सी दिवार पर कौन सा रंग होगा खिड़की पर कौन सा रंग होगा ,कमरे की सेट्टिंग में क्या बदलाव होंगे हर निर्णय  मेरा योगदान होता था .
वेसे वो कमरा सिर्फ मेरा नहीं था मेरी छोटी बहन भी उसमे बराबर की हक़दार थी पर  रंगों के चुनाव तक सीमित रहना पसंद था उसे दुसरे कामों में मदद जरुर करती थी पर मेरी तरह पुताई करने का काम पसंद नहीं था उसे. मेरे इस शौक पर ज्यादातर मम्मी पापा नाराज होते थे की ये सब लड़कियों का काम नहीं बेटा एसे बड़े स्टूल पर चढ़ना ,पुताई करना क्या जरुरत है ? पर इस सब से मेरी भावना जुडी हुई थी मुझे लगता था मेरा कमरा है अगर इसे मैं खुद सजाऊँगी  तो मेरी महक रहेगी साल भर यहाँ .धीरे धीरे मेरी इन भावनाओं को देखकर मम्मी पापा ने भी मना करना बंद कर दिया था.

कोई विश्वास करे या ना करे अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा होने बैंक में जॉब शुरू करने यहाँ तक की शादी के लिए जॉब छोड़ने  तक मैं अपने घर में हमेशा से दरवाजों के पीछे दीवारों के कोनो पर बारीक अक्षरों में अपना नाम लिखिती थी और  जब डांट पड़ती थी तो कहती थी मम्मा अभी डांट रही हो पर जब चली जाउंगी तब ये सब ही मेरी याद दिलाएँगे .एसा मन करता था की हर कोने में मेरी निशानी हो हर हिस्सा मुझे याद करे .कोई कोना एसा ना रह जाए जहा मेरी निशानी ना हो .

मेरी सगाई के बाद भी एक दिवाली आई थी उस घर में शादी को थोडा ही समय  बचा था मम्मी पापा ने बहुत कहा बेटा अब तो मत कर ये सब क्यूंकि पूरा घर पैंट करने के लिए पुताई वाले आए थे पर मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी बस यही कहती रही मुझे अपनी यादें छोड़ जाने दो पापा जब चली जाउंगी तो ये कमरा आपको मेरी याद दिलाएगा .....और सच मेंउस कमरे मेरे आने के बाद बहुत याद दिलाई होगी उन्हें मेरी ......


हाँ तो दिवाली के दिन पूरे घर के हर कोने में ,हर कमरे में ,मदिर के सामने ,किचेन में ,सीढ़ियों पर,हर दरवाजे के सामने ,आँगन में,मैं गाते पर हर जगह  रंगोली में बनाते थे हम .बेल ,बूटे,छोटीबड़ी  आकृति जो बनता जरूर  बनाते  यहाँ तक की घर के सामने का रोड भी साफ़ करवाकर उसके दोनों तरफ बेल बूटे बना देते थे ,शायद हमारा बस चलता तो पूरा शहर रंग देते पर पूरा घर रंगने में ही लगभग पूरा दिन निकल जाता था .कपड़ों के नएपन से ज्यादा घर के अपनेपन का ख्याल था मुझे और मेरी इन भावनाओं की कदर मेरे घरवालों ने हमेशा की .चेहरे को लीपने पोतने से ज्यादा मैंने दिल की ख़ुशी में विश्वास किया और वो ख़ुशी मुझे मेरे घर से हमेशा मिली भी.

सच है शायद आज घर इसलिए इतना याद आ रहा है क्यूंकि वो सब हुआ उस समय .मेरी शादी भोपाल के उस घर से नहीं हुई बड़ा मन था मेरा की एसा हो पर नहीं हुआ मेरे घर बारात आई नहीं हम लड़कीवाले अपना बोरिया बिस्तर बंधकर मेरे पतिदेव के शहर गए वही से हमारी शादी हुई ,मुझे आज भी याद है रात के ८.३० के लगभग समय हो रहा था जब हम लोग बस में बेठने के लिए उस घर को बंद करके निकल रहे थे किसी ने मेरे हाथ में नारियल दिया और कहा बेटा घर को प्रणाम कर ले फिर पलटकर मत देखना अपशगुन होता है तब कितना रोई थी मैं  मन ही मन बस एक ही बात सोची जाती थी की मेरे घर को पलटकर देखना भी अपशकुन हो सकता है क्या ?,एक ही ख्याल आता था मेरा घर मुझसे छूट  जाएगा ,और सच मैं एसे ही वो घर मुझसे छूटगया.

इसे नियति का खेल ही कहिये या संयोग की मेरी शादी के बाद ३,४ महीनो में ही मेरे मेरे मम्मी पापा ने भी वो घर छोड़ दिया और सबकुछ बेचकर इंदौर शिफ्ट हो गए .मेरे पापा आज भी कहते हैं  तेरा मन था उस घर में इसलिए वहा थे अब यहाँ आ गए .वेसे उस शहर को छोड़ने का प्लान पहले से था पर वो कई सालों से सिर्फ प्लान था मैं वो घर वो शहर छोड़ना नहीं चाहती थी शायद इसलिए वो घर मुझे ना छोड़ता था , जब तक मैं थी वो घर मुझसे छूटता ना था जेसे ही मैंने घर छोड़ा सबसे छूट गया .कभी कभी लगता है वो घर मुझे ना छोड़ना चाहता था जब मैं उसे छोड़ दिया तो उसने सबको छोड़ दिया.खेर वो घर छूटने के साथ ही वो शहर भी छूट गया.वो शहर जहा मैंने अपना बचपन ,लड़कपन सब बिताया अच्छा बुरा नया पुराना,ख़ुशी दुःख हर बात वहा से जुडी है.बहुत याद आता है भोपाल,आज भी मेरे सपनो में वही घर आता है क्यूंकि मेरे लिए तो वही घर है.

वेसे इंदौर वाला घर भोपाल छोड़ने के ३,४ साल पहले ही खरीद लिया गया था इसलिए उस घर से मेरा परिचय काफी अच्छा था आना जाना लगा रहता था पर फिर भी भोपाल वाला घर मेरी यादों में हमेशा रहेगा.शादी के बाद सिर्फ १ बार ही भोपाल वाले घर जाना हुआ ,उसके बाद २ बार इंदौर गई पर इंदौर वाला वो घर सर्वसुविध्युक्त  और भोपाल वाले घर से आधुनिक होते हुए भी मेरी स्मृति में वो जगह नहीं ले पाया और शायद कभी ले भी ना पाए.

इस बार दिवाली के पहले जब पापा से बात हुई उनकी  आवाज़ में कुछ भारीपन था जिसे वो दबाने की कोशिश कर रहे थे उनने कई बातें की  इतना कहा बेटा तू गई रोनक चली गई इस बार पुताई  करवाने का मन नहीं कर रहा ,अब किन किन आँखों में आंसू थे ये मैं कह नहीं सकती पर फ़ोन पर बस इतना महसूस हुआ की फ़ोन पर बात कर रहे हम दो लोगो के सिवा इंदौर वाले घर में कुछ और आँखें भी नम थी....

हाँ तो शादी के बाद दोनों दिवाली पर मुझे मेरा घर बहुत याद आया ,दिवाली आने के पहले से ही यादों ने अपनी माया फेला ली वो रंगोली,वो दीवारों के रंग,वो अपनापन,वो रात दिन एक करके भी घर सजाना सब बहुत याद आया और शायद जिंदगी भर याद आता रहे ,इस बार भी दिवाली पर जब जब रंगोली के रंग हाथों में लिए घर बहुत याद आया .सच कहते है मोह बड़ी ख़राब चीज है एक बार पड़ गया तो जान चली जाए मोह नहीं जाता.हाँ बस इतना हो सकता है की मोह दूसरी जगह भी बढ़ा लिया जाए जेसे मैंने  अपने पतिदेव से बढ़ा लिया ठीक वेसा ही मोह जेसा मुझे मेरे घर से था ,मेरे मम्मी पापा से था  पर पुराना मोह नहीं भुलाया गया...सच है मेरा नैहर छूट गया ,पीहर छूट गया , पर यादें नहीं छूटी मेरा घर नहीं छूटा ..........



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Thursday, November 3, 2011

कुछ दिल से kuch dil se

अलग अलग विषयों पर अलग अलग समय पर ये पंक्तियाँ लिखी थी आज उन्हें इकट्ठी करके ब्लॉग पर डाल रही हू.ये पंक्तियाँ बस पंक्तियाँ ही रह गई कभी पूरी नहीं हो पाई .बस कभी फेसबुक पर लिखा तो कभी ड्राफ्ट में  लिखा और छोड़ दिया .आज इन छोटी छोटी पंक्तिओं पर नजर गई तो सोचा सबसे साझा कर लू.....
            


          मोहब्बत
जिसके ऐबों को बंद दरवाजों में छुपाकर रखा
मेरे जख्मों को वो, सरेआम कर गया
दिल के कोने में जिसकी यादों को  छुपाकर रखा
जाते जाते वो मोहब्बत नीलाम कर गया

जिसकी ख़ुशी के लिए पलके बिछाई हमने
वो पलकों में मेरी आंसुओं के रंग भर गया
जिसका नाम मेरे लिए खुदा का साया था
वो सरे राह मेरा नाम बदनाम कर गया "१"


प्यार
कोई कहता है सच्चा प्यार नहीं होता
कोई कहता है ये अभी भी होता है
हम कहते है सच और झूठ का क्या पैमाना ?
प्यार तो बस प्यार है, ये बस प्यार होता है

 
जुदाई
हाथ से हाथ दूर होने का गम बड़ा जालिम
मैं तुमसे जुदाई की वजह पूछ रही रही हू
तुम मेरे तड़पने का मर्म समझो या ना समझो
मैं तेरे भटकने की वजह पूछ रही हू

वो छोड़कर  जाना तेरा शायद एक अदा थी
मैं आज भी तेरे दिल में मेरी जगह पूछ रही हू
तेरी खताओं का हिसाब नहीं मुनासिब
मैं तुमसे बस अपनी खता पूछ रही हू  ....

और सबसे अंत में कुछ पंक्तियाँ .ये पंक्तियाँ करवाचौथ पर लिखी थी जब कई लोग बार बार ये मुद्दा उठा रहे थे की पत्नी के भूखे रहने से पति की उम्र कैसे  बढ़ सकती है इस व्रत को रखने का कोई औचित्य नहीं उसी समय ये कुछ पंक्तियाँ जवाब में लिखकर डाली थी 
            करवाचौथ
जानती हू मेरे भूखी रहने से तेरी उम्र शायद ना बढे
पर मेरा जज्बा है इस जज्बे को इस तरह बेज़ार ना कर
...
ये पता है मुझे की मोहब्बत रोज़े की मोहताज़ नहीं
ना किसी दिखावे की जरुरत है इसे
पर मैंने जब शिद्दत से रख ही लिया रोज़ा
थोडा ऐतबार रख इस रोज़े को यू बेएतबार ना कर
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी