Saturday, December 8, 2018

सर्द आत्माएं,वाइन और इश्क़

शहर सर्द नही होते,मौसम भी सर्द नही होते ये सारी सर्दियां,गर्म कपड़ों और आग की तपन से कम की जा सकती है।सर्द आत्माएं होती हैं, ये आत्माएं अपने आस पास का सारा जीवन सर्द कर देती हैं टेम्परेचर चाहे -20 हो सर्वाइव किया जा सकता है अगर चेहरे पर मुस्कुराहट और रिश्तों में ऊष्मा हो ...सर्द आत्माएं गर्म होने के लिए बहुत समय लेती है...या दूसरी आत्मा हल्की सी कमज़ोर हो तो उसपर तारी हो जाती है ...दुनिया की हर भौतिक गर्म चीज़ की अच्छी बात है कि वो आपके शरीर को ठंड से बचा सकती है चाहे वो वाइन  या रम हो ,आग हो या लिहाफ़ हो पर इनकी सबसे बड़ी कमी है कि ये आत्मा को ऊष्मा नही दे सकते इन आत्माओं का एक ही आसरा है भावनाओं की ऊष्मा, पर गर्म आत्माएं अपनी ऊष्मा इन्हें देकर खुद घायल हो जाती है....
सुना है न्यूजर्सी के बाहरी इलाकों में एक जादूगरनी की वाइन रिफाइनरी है जहां "ब्लड टिअर"  वाइन बनती है ये वाइन होंठो से लगाते ही सर्द आत्मा के कतरे पिघलने लगते है...पर ये वाइन बनाना भी आसान नहीं और बनवाना भी नहीं... आंसुओं की खेती करनी होती है जिसमे दिल के ख़ून का बीज पड़ता है,  रातों की नींद की खाद डाली जाती है और आंसुओं से फसल सींची जाती है ..
फिर  जो फल आता है उसे भावनाओं के बर्तन में  जायफल और अदरक के रस के साथ उबाला जाता है ...ये वाइन एक ही घूँट में गरम पी जाती है पर बर्फ के ग्लास में पी जाती है...इस बर्फ के ग्लॉस में ओक की छाल की खुशबू मिलाई जाती है ...कहते है ये वाइन पीना हर सर्द आत्मा के बस की बात नहीं... इसकी गर्मी से मुँह में छाले हो जाते है...कोई सर्द आत्मा इसे सहन नही कर पाती तो जादूगरनी उसे बर्फ का ग्लास बना देती है...
कि खो जाना सर्द आत्माओं की खोज में
की जादू का असर हो उससे पहले लौट आना वापस,की तुम मौसमों की ठंडक को आत्मा पर तारी न होने देना...बचा लेना थोड़ी ऊष्मा...
वैसे एक उपाय और भी है...इश्क़ कर लो...पर जादू उसका भी कम नहीं...वहाँ भी बेखुदी है
#kanupriyakahin #newjersy #wine #love #hindi #jaadu #ishq #
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Thursday, December 6, 2018

मंटो : पूरे हीरो की अधूरी कहानी Manto movie review

फ़िल्म : मंटो
डायरेक्टर : नंदिता दास
राइटर : नंदिता दास
स्टार कास्ट : नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी , रसिका दुग्गल, ताहिर राज भसीन, राजश्री देशपांडे
सिनेमेटोग्राफी : कार्तिक विजय
सेट डिज़ाइनिंग : रीता घोष
आर्ट डायरेक्शन : राजेन्द्र चौधरी
स्टिल फोटोग्राफी : आदित्य वर्मा

मंटो देखने से पहले जिन लोगो ने मंटो को नही पढ़ा है उन्हें मंटो को पढ़ लेना चाहिए और जिन लोगो ने  पढ़ा है उन्हें एक बार और थोड़ा समझने की कोशिश करनी चाहिए और अपने मन मे फ़िल्म को लेकर खड़ी हुई बड़ी बड़ी उम्मीदों को थोड़ा सा कम कर लेना चाहिए क्योंकि फ़िल्म अच्छी है पर उम्मीद के हिसाब से बेहतरीन नही है...
इसे बॉयोपिक होने के कारण थोड़ी छूट दी जा सकती है पर इतनी छूट भी नहीं दी जा सकती कि उम्मीद पूरी न होने पर बायोपिक कहकर पल्ला झाड़ लिया जाए...
रिव्यू की शुरुवात नेगेटिव नरेटिव से करना उतना ज़रूरी नहीं था पर रिव्यू पढ़ने के बाद आपको शायद मेरी बात से इत्तेफाक हो।

डायरेक्शन : नंदिता दास को डायरेक्शन के पूरे नंबर दिए जाने चाहिए क्योंकि जो जितना दिखाया गया है उसका हर हिस्सा बेहतरीन है,उनने कलाकारों से बेहतरीन काम करवाया है,हर सीन में जान है हाँ एक जगह थोड़ी सी चूक हुई है कि फ़िल्म कई जगह  थोड़ी ज्यादा स्लो हो जाती है...फ़िल्म के शुरुआती कुछ सीन कन्फ्यूजिंग है...जो लोग मंटो को जानते हैं पढ़ते रहे हैं उनने समकालीन लेखकों को भी पढ़ा होगा पर जिनने मंटो को ज्यादा नहीं पढ़ा उन्हें एक साथ इतने लेखक किरदारों से मिलवाना टाला जा सकता था...बाकी डायरेक्शन अच्छा है कई जगह बहुत अच्छा भी।

कांसेप्ट  और कहानी:
किसी फिल्म रिव्यु में कॉन्सेप्ट की बात होनी ही चाहिए जब वो फ़िल्म की कमज़ोर कड़ी में से एक हो...आप बायोपिक केटेगरी में फ़िल्म बना रहे है पर उसे रिलीज़ तो कमर्शियल सिनेमा की ही तरह कर रहे हैं तो सिर्फ 4 साल की कहानी लेकर फ़िल्म क्यो बनाई जाए? ये सही है कि मंटो को एक फ़िल्म में बांधना मुश्किल है पर सिर्फ चार साल ही क्यों? इसलिए कि वो चार साल भारत पाकिस्तान के बटवारे का समय था और मंटो के ज़हन पर उनकी कहानियों पर उस दौर का गहरा असर था...? पर आप अगर मंटो फ़िल्म को अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखा रहे हैं तो कांसेप्ट पर और काम किया जाना बनता ही था...मंटो को सिर्फ उन चार सालों में बांध देना खलता है...खलने से ज़्यादा ये अधूरापन लगता है....जिन लोगो ने मंटो को पढ़ा है उन्हें भी लगेगा और जिनने नही पढ़ा उन्हें तो लगेगा ही...
फ़िल्म की कहानी दूसरी कमज़ोर कड़ी है...कहानी जैसा कि कॉन्सेप्ट अधूरा है उसी तरह कहानी भी अधूरी सी लगती है मंटो उन चार सालों से ज्यादा, बहुत ज्यादा है  ,दूसरी बात मंटो ने बस बंटवारे के आस पास कहानियां नही लिखी,उनकी कहकनियों में वैश्याओं की कहानियों का,पीड़ित औरतों की कहानियों का भी बड़ा हिस्सा है जो फ़िल्म में एक कहानी दिखाकर और एक ,दो डायलॉग बुलवाकर खत्म कर दिया गया है जो कहानी दिखाई गई वो भी उन लोगो को कतई क्लिअर नही होगी जिनने मंटो को पढ़ा नहीं...
टोबा टेक सिंग और ठंडा गोश्त मंटो की प्रतिनिधि कहानियां हैं और इन्हें बहुत बेहतरीन ढंग से फ़िल्म में गूँथा गया है पर पाकिस्तान में मुकदमे वाला हिस्सा काफी लंबा खींचा गया है... काली सलवार,खोल दो,बारिश ,बू,सड़क के किनारे,खुदकुशी, जैसी कई कहानियां जिक्र से महरूम रह गई इसे राइटर की मजबूरी समझ जा सकता है कि एक फ़िल्म में सब कैसे डाला जा सकता है पर एक राइटर जिसपर फ़िल्म बनी है उसकी जिंदगी के कुछ और पहलू उजागर किए जाने चाहिए थे,ये फ़िल्म मंटो पर बननी चाहिए थी पर ये उनकी कहानियों पर बनी...मंटो अपनी कहानियों से अलग भी है...
आपने मंटो बनाई है ,मंटो 1 नहीं जिसके आगे आप पार्ट 2,3 भी लाने वाले हैं। 1 मंटो बनाकर, आप अधूरापन कैसे रख सकते हैं कहानी में...थोड़ी और रिसर्च, थोड़ा और बढ़ा हुआ दायरा, थोड़ी और कसी हुई कहानी ,और स्क्रिप्ट इस फ़िल्म की मांग थी...जो पूरी नही हुई है...

अभिनय :
अभिनय के मामले में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने हमेशा की तरह कमाल किया है...उन्हें मंटो मान लेने को दिल चाहता है।हर भाव,किरदार का हर रंग,चाल,ढाल,सब कुछ ऐसा लगता है जैसे कभी मंटो को न देखकर भी हम मंटो को ही देख रहे हैं।लत की हद्द तक शराब में डूब जाना,विद्रोह की हद तक विद्रोह करना,मोहब्बत की हद तक बम्बई (आज की मुम्बई) के इश्क़ में डूब जाना सब मंटो को सामने ला खड़ा करता है।
रसिका दुग्गल ने मंटो की शरीके हयात का किरदार बखूबी निभाया है...मोहब्बत,चिढ़,साथ,और अपने ही शौहर की कभी प्रशंसक और कभी मजबूर बीवी और बच्चो की माँ होने की कशमकश उनके किरदार में उभरकर आई है...
ताहिर राज भसीन ने श्याम के किरदार को बड़े अच्छे से निभाया है और राजश्री देशपांडे(इस्मत चुगतई) ने भी अच्छा अभिनय किया है, भानु उदय (अशोक कुमार का किरदार) इला अरुण (जद्दन बाई) भी आकर्षित करते है...नरगिस का रोल करने वाली अदाकारा भी और बेहतर कर सकती थी...पर उन्हें वो रोल दिया ही नहीं गया जो मंटो की कहानी में नरगिस का होना चाहिए था(खैर उसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है)

सिनेमेटोग्राफी और सेट : बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी,स्टिल फोटोग्राफी और उस दौर को सामने ला खड़े करने वाले सेट...कई जगह आपको ऐसा लगेगा कि आप वही है,उसी दौर में,उस दौर के स्टेशन पर,उस दौर की लोकल ट्रेन में,उस समय के लाहौर में,उन घरों में ,उन गलियों में,उन दवाओं के पास बैठे हुए,उस समय की किसी फिल्मी पार्टी में या, उस समय के शराबखाने,या मैग्ज़ीन के ऑफिस में...
आर्ट डाइडेक्टर का काम भी बहुत अच्छा है और रीता घोष ने जीवंत सेट बनाए है।कपड़ो से लेकर मेकअप तक सब आपको उस दौर में ले जाता है...जो दौर हमने देखा नहीं वो नज़र के सामने हो जैसे...

 फ़िल्म क्यों देखे :ऐसी फिल्में देखी जानी चाहिए क्योंकि ये उस लेखक की कहानी है जो अपने हर लिखे पर तोहमतें उठाता रहा, मुकदमे झेलता रहा फिर भी उसने वो लिखा जो आईना था समाज का...अच्छे लेखकों को जान लेना अच्छी बात है ..और कुछ नही तो जिनने मंटो को पढ़ा नही वो ये फ़िल्म देखकर पढ़ने लगे शायद और अपने लिए मंटो की उस दुनिया के दरवाज़े खोल ले जिससे अछूता रहना कोई बड़ी अच्छी बात नहीं
फ़िल्म इसके सेट,उस दौर की बंटवारे कि दास्तान,उसके आम लोगो पर और एक ऐसे लेखक पर पड़े प्रभाव के लिए भी देख सकते हैं जो लाहौर तो गया पर दिल बम्बई में छोड़ गया...और फिर और अपने दिल की पुकार पर दो देशों में बंट गया यहाँ का रह न सका ,वह का हो न सका।

फ़िल्म क्यों न देखें :
ये बायोपिक है और अधूरी है इसलिए पहले मंटो को थोड़ा पढ़े और फिर देखने जाए।दूसरी बात मंटो सुनकर जो लोग ये उम्मीद लगा बैठे हो कि फ़िल्म में ज्यादा खुलापन होगा (मंटो की कहानियों को कुछ लोग इसलिए बुरा भी मानते रहे है इसी खुलेपन की वजह से) वो न जाए ..
मंटो को बेहद चाहने वाले बड़ी बड़ी उम्मीदें लेकर न जाए...4 साल की अधूरी कहानी में आपको पूरे मंटो नही मिलेंगे पर अफसोस जताने जैसा भी कुछ नहीं...

एक लेखक पर फ़िल्म बनी है  देख लेने में बुराई नहीं... पर मंटो को पूरा नही पाएंगे...अच्छा अभिनय देखना है देख लीजिए बाकी कहानी में कमजोरी,कॉन्सेप्ट में कमजोरी और कहीं कहीं बोरियत आप ख़ुद महसूस करेंगे...
हाँ अपने प्यारे लेखक को किरदार के रूप में देखना अच्छा लगेगा...
मंटो पर बनी इस फ़िल्म को 3 स्टार पर तसल्ली रख लेनी होगी...ये प्रेम कहानी नहीं, ना ही कोई परिकथा जो सिर्फ अच्छे सेट या डायरेक्शन से नैया पार हो...स्क्रिप्ट में और कसावट ज़रूरी थी।

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Tuesday, July 3, 2018

कितना मुश्किल होगा सोचो फिर से बच्चा हो जाना


हम बच्चा हो जाने की हसरत तो करते रहते हैं
कितना मुश्किल होगा सोचो फिर से बच्चा हो जाना

ये ऐसे करना होगा वो वैसे पढ़ना होगा
ऐसे तुमको हँसना होगा,ऐसे तुमको डरना होगा
ऐसे नई चीज़ें सीखो अपने ढंग से नहीं करो
कितनी चिढ़ाता होगा हर बात पर टोका जाना
कितना मुश्किल होगा सोचो फिर से बच्चा हो जाना

ये करके दिखलाओ,चलो अभी गाना गाओ
खाओ खाना जल्दी से,सबको देखो मुस्काओ
नाच नया दिखलाओ न,नई पोयम सुनाओ ना
सबका मन बहलाना जैसे बंदर बन जाना
कितना मुश्किल होगा सोचो फिर से बच्चा हो जाना

माँ की गोदी में खेलने का मन, पर कैसे कह पाए
डर लगता है अंधेरे से ,कैसे बोलो बतलाएं
मन की बात कह भी दे तो समझने को कोई तैयार नहीं
उम्मीदें इनसे ज्यादा है, ये जैसे हैं स्वीकार नहीं
कौन सुनेगा इनकी बातें कौन सुनेगा अफ़साना
कितना मुश्किल होगा सोचो फिर से बच्चा हो जाना

Wednesday, April 4, 2018

मुझे तन्हाइयां बख्शो

मुझे तन्हाइयां बख्शो
कहीं इस शोर से आगे
अंधेरे घोर के आगे
जो पल पल कसी जाए
गले की डोर के आगे
मुझे तन्हाइयां बख्शो
मुझे तन्हाइयां बख्शो
मैं उतना ही अकेला हूँ
जितना सीप में मोती
मेरी चाहत में सब पागल
मुझे कुछ भी नहीं हासिल
मेरी आँख डरती है
रोशनी के बवंडर से
चमकता हूँ ज़माने में
डरा बैठा हूँ अंदर से
कर लो दूर ये चाहत
मुझे रुसवाईयाँ बख्शो
मुझे तन्हाइयां बख्शो
तेज़ कदमों की आहट से
ये मेरा दिल धड़कता है
है इतना दर्द क्यों फैला
सोचता है तड़पता है
जो तुमने आग फैलाई
नए नए बहाने से
लपट इतनी लगी गहरी
साँस डरती है आने से
तुम अपना मुखोटा रख लो
मुझे सच्चाइयां बख्शो
इन ज़हरीली बातों से
मुझे तन्हाइयां बख्शो
क्षितिज की आस में चलते
मेरे पाँवों में छाले हैं
मेरे मन में बवंडर है
कई बरसों से पाले हैं
ये सारी मरीचिका है
मैं जानता हूँ सब
आंख पर झूठ का पर्दा
उसी को मानता हूँ सब
मशीनों सा चला जाऊं
मुझे अंगड़ाइयां बख्शो
भीड़ में खो रहा हूँ मैं
मुझे तन्हाइयां बख्शो