Monday, September 26, 2011

मौसम फिल्म : मेरी नजर मैं mausam film review:with a different angle

आज तक आपने ना जाने कितने फिल्म रिव्यू पढ़े होंगे जिनमे लिखने वाले ने फिल्म को अच्छी या बुरी सन्देश देती ना देती फिल्म के रूप में देखा होगा ,यहाँ तक की आप में से कई लोगो ने अब तक इस फिल्म को देख लिया होगा या कम इसका रिव्यू भी पढ़ लिया होगा .पर मुझे विश्वास है की इस लेख को पढने के बाद आपको बहुत कुछ नए अहसास होंगे.

सीन १ : आज से तकरीबन ५,६ दिन पहले  रात मे मेरे मन मे विचार आया की मुझे प्रेम कहानियों की एक सीरीज लिखनी  चाहिए जिसमे अलग अलग अंत हो अलग अलग एंगल हो बस नायक और नायिका का नाम एक हो बाकि हर बार पृष्ठभूमि अलग ही परिस्थितियां  अलग हो ,अपना ये विचार मैंने फेसबुक  पर डाला और लोगो से पुछा क्या मुझे एसा करना चाहिए...

सीन २ :आज से २ दिन पहले मतलब २४/०९/२०११ को में ऑफिस में थी और मैंने लोकेश (मेरे हसबेंड) से कहा लोकेश मेरा बड़ा मन है की में आज किसी रूहानी विषय पर लिखू जिसमे प्रेम हो पर आत्मिक अहसास हो जेसे इस्वर से मिलना हो रहा हो पर में चाह  कर भी लिख नहीं पा  रही कोई विषय ही समझ नहीं आ रहा  .

सीन ३  :मैंने लोकेश से कहा कल (२५/०९/२०११) को हम मौसम देखने जाएँगे आप टिकिट  बुक करवा लो  , एसा कहने का कारन है की लोकेश की हर शनिवार छुट्टी होती है और मै मजदूर शनिवार को भी अपनी दिहाड़ी लेने अपने ऑफिस आती हू तो मुझे पता था आज वो घर पर है फ्री है तो टिकिट बुक करवा लेंगे  .लोकेश ने थोड़ी देर बाद फ़ोन किया और कहा सीट नहीं है ३ से ६ के शो मे क्या करना है ? मैंने कहा आप १२ से ३ देखो मेरा बड़ा मन है ये फिल्म देखने का कुछ भी करो हो सके तो टिकिट अडवांस बुकिंग ले लो  और फाईनली लोकेश का फ़ोन आया मैंने कल की टिकिट बुक करवा ली है ,उस समय मेरे चेहरे पर जो ख़ुशी थि मे उसे अभी बयां नहीं कर सकती . " आप लोगो को ये सारी बातें बताने का मतलब ये नहीं की मे आपको अब ये भी बताने वाली हू की हम थिएटर तक केसे गए , कौन से रंग के कपडे पहने ,या क्या खाया   ये सब बताने का मतलब बस इतना है की मे इस फिल्म को देखने के विचार के पीछे की अपनी मानसिक स्थति और इस फिल्म को देखने की अपनी जिज्ञासा के भावो को आप तक पहुंचा सकू.


 इस फिल्म ने मुझे निराश नहीं किया फिल्म बहुत  ही अच्छी बनी है. वेसे  सूरज बडजात्या की फिल्म ' विवाह " के समय से ही  शाहिद मेरे पसंदीदा हीरो है पर सच कहू तो इस फिल्म को देखते हुए कही ये महसूस ही नहीं हुआ की शाहिद मेरे पसंदीदा हीरो हैं .इस फिल्म  मे उनके अभिनय मे बहुत निखार दिखाई देता है .पंजाबी विस्थपित मुस्लिम लड़की अयात और सिक्ख लडके हेरी के बीच पनपी एक प्रेम कथा पर आधारित ये फिल्म बार बार इन्हें एक दुसरे से मिलाती है दूर करती है फिर मिलाती है .सच कहू तो सोनम कपूर अपने नाम अयात (चमत्कार संकेत) को एक शब्द देती सी लगी है एकदम चमत्कारिक एकदम पवित्र रुई  के फाहे जैसी सुन्दर  .

फिल्म के शुरुवाती भाग मे शाहिद  ने  खेतों मे ट्रक्टर पर बैठकर  गन्ने चूसते लड़के के पात्र मे जान डाल दी है ,इसी के साथ ट्रेन के आगे से गाड़ी निकलने का द्रश्य भी उनके खिलंदरपने  को दर्शाता है.कहानी का पंजाबी पुट आपको हसने पर मजबूर कर देगा और सिर्फ आपको ही नहीं कई बार आपके साथ हॉल मे बेठे और लोग भी ठहाके मारकर  हस्ते सुनाई देंगे .चाहे वो गाड़ी मे साईंकिले पार्क कर देने वाला सीन  हो या कुर्सियां पास करने वाला सब फिम के पहले हिस्से को हसी ख़ुशी भरा बनाता है .

बाकि की पूरी फिल्म  मे कही आपको गंभीर सन्देश मिलेगा , कही गांधीवाद की झलक दिखाई देगी, कहीं अनंत प्रेम दिखाई देगा और कहीं आतंकवाद और आतंरिक कलह  के दुष्परिणाम.और इन सब बातों का प्रभाव हमारे नायक नायिका के जीवन पर पड़ता दिखाई देगा .

कहानी आपको नहीं बताउंगी क्यूंकि फिर आपका देखने का मजा शायद कम हो जाए पर इस फिल्म के एक रिव्यू मे मैंने पढ़ा की प्रेम पर आधारित  इस फिल्म मे प्रेम ही नदारत है ,इस बात को सच कहा जा सकता है क्यूंकि आजकल प्रेम की परिभाषाएं  बदल गई है  आजकल जब तक नायक नायिका के बीच कुछ लव सीन ना दिखाई दे,उनके माँ बाप उन्हें एक दुसरे से अलग करते ना दिखाई दे ,वो घरवालों से प्यार के लिए बगावत करते ना दिखाई दे ,फिल्म मे जब तक नायक नायिका एक दुसरे के लिए रोते आंसू बहाते ना दिखाई दे तब तक जैसे लोगो को प्रेम दीखता ही नहीं. क्यूंकि इस फिल्म मे छुप छुप कर देखना ,कागज की पर्चियों पर लिखकर बात करना ,एक दुसरे को बारिश की बूंदों से खेलते देखना ही प्रेम की शुरुआत है और बस उसके बाद बिछोह है .पर मेरे ख्याल से यही आत्मिक प्रेम इस कहानी को दूसरी कहानियों  से अलग बनाता है .

अगर आप सच मे रूहानी प्रेम को देखना चाहते है  एसे नायक नायिका को देखना चाहते है जो प्रक्टिकल है पर, प्रेम के लिए बरसों एक दुसरे का इन्तेजार करते है ,कोई दिखावा नहीं कोई रोना धोना नहीं यहाँ तक की एक दुसरे से किसी तरह का कोई संपर्क भी नहीं हो पाता क्यूंकि दोनों को एक दुसरे का पता  ही नहीं होता कौन कहा है कसा है कुछ नहीं , बस प्रेम है जो दोनों को एक दुसरे से बांधे हुए है  वही उन्हें एक दुसरे से दूर नहीं होने देता ,दोनों के शरीर एक दुसरे से दूर पर रूहें एक दुसरे मे समाई हुई है. फिल्म को देखकर एक बार आपको भी ये अहसास होगा काश एसा रूहानी प्रेम सबके जीवन मे हो .इस फिल्म की एक खास बात और ये है की ये आपमें दूसरी कई प्रेम कहानियों की तरह  प्रेम की उत्तेजना नहीं पैदा करती बल्कि  आपका हाथ पकड़कर पावन प्रेम की और बढ़ा ले जाती है .

पंकज कपूर ने पहली फिल्म डाइरेक्ट की है एसा लगता ही नहीं.वेसे वो एक मजे हुए कलाकार है,रंगमंच के अभिनेता भी रहे हैं और ये अनुभव उनकी फिल्म मे साफ़ दिखाई देता है .उन्होंने हर कलाकार से बेहतरीन काम निकलवाया है और हर सीन को बेहतर बनाने की कोशिश की है जो फिल्म दिखाई देता है.

अब आपको एक किस्सा सुनाती हू जो उस दौरान हुआ जब हम फिल्म देख रहे थे शाहीद और सोनल एक दुसरे के करीब ठीक आमने सामने खड़े हैं सीन को थोडा ब्लैक एंड व्हाइट स्टाइल मे फिल्माया गया है जिसमे सोनम कपूर के होंठों की चथक लाल रंग की लिपस्टिक को उभरकर दिखाया गया है कैमरा दोनों के चेहरे पर जूम किया हुआ है और द्रष्य चल रहा है  तभी मेरे पास वाली सीट पर बेठे तकरीबन ६० वर्षीय अंकल अपनी पत्नी से कहते है ये इसके होंठों  पर इतने डार्क कोलोर की लिपस्टिक केसे  आ गई पिछले सीन मे तो नहीं थी और आंटी ने जवाब दिया तुम वही देख रे हो? और फिर अंकल बोले अरे नहीं नहीं  और इसके साथ की दोनों की दबी सी हंसी सुनाई दी.इसके साथ ही एक हसी की आवाज़ थी जो मेरी थी  और थोड़ी देर बाद लोकेश की हसी की आवाज़ भी इस हसी मे शामिल हो गई.

चलिए फिर से फिल्म की बात करते हैं.फिल्म मे शाहिद कपूर को देखकर आराधना  के राजेश खन्ना की याद आ जाती है इसी से आप समझ सकते हैं की उनका रोल काफी अच्छा है .रिश्तों और फिल्म के सभी पात्रों  के आस पास घूमती ये कहानी हर कलाकर को किरदार मे दम डालने की जगह देती है और कलाकारों ने अपनी पूरी कोशिश भी की है चाहे वो घोडा गाड़ी चलाने वाला  चाचा हो ,अयात और हेरी की दोस्त रज्जो हो (जो हलके से रूप मे फिल्म मे विलेन जैसी दिखाई देती है) ,फूफी का किरदार अदा करने वाली सुप्रिया पाठक हो या दो पक्के दोस्तों का किरदार अदा करने वाले अयात के अब्बा और कश्मीरी पंडित अनुपम खेर हो .

गहरे तौर पर देखेंगे तो इस फिल्म मे कोई विलेन नहीं ना माँ बाप ना रिश्तेदार सबसे बड़ी विलेन है परिस्थितियां .और पंकज कपूर ने ये परिस्थतियाँ युद्धों और आतंरिक कलह के रूप मे दिखाई है .चाहे वो अयोध्या कांड हो ,कारगिल युद्ध हो ,फिर अहमदाबाद के दंगे सब को इतने बेहतरीन तरीके से एक दुसरे से जोड़ा गया है और इन सबका प्रयोग इतने आराम से नायक नायिका को एक दुसरे से दूर करने और मिलवाने के लिए किया गया है जैसे सब सच हो .कहीं कहीं आपको लगेगा की बिचारे फिर नहीं मिल पाए या कब तक ये चलेगा पर पूरी कहानी  और कांसेप्ट पर गौर करेंगे तो इस खिचाव को भूल जाने का मन करेगा.नायक नायिका अपने प्रेम को याद करते हैं पर अपनी परिस्थितिओं का जमकर सामना करते है रोते बिलखते नहीं ना ही जिंदगी से दूर होते है.कही कहीं आपको लगेगा प्रेम जैसा कुछ कहा है? पर फिर जब गौर करेंगे तो बरसाती बूँद,फूलों की खुशबु,और ओंस की बूँद जेसा पवित्र और रूहानी प्रेम दिखाई देगा....

मौसम को आप एक एसी फिल्म के रूप मे देख सकते है जो कुछ ना कहते हुए भी प्रेम और भाईचारे का बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है ,प्रेम का पागलपन  नहीं दिखाती पर रूहानी प्रेम की सीढ़ियों तक पंहुचा देती है , विलेन नहीं दिखाती पर ये दिखा जाती है की अधुरा प्रेम क्या असर कर सकता है ?कैसे दो चाहने वालों की जिंदगी मे उथल पुथल  का एक कारण बन सकता है ,ये फिल्म ये भी नहीं दिखाती की जुदाई के कारन बनाए  जाते हैं पर एसी परिस्थितियां दिखाती है जब आप जुदाई के लिए किसी को दोष नहीं दे सकते.और साथ ही बहुत ही प्यारा सन्देश की दंगा करने वालों और जान लेने वालों का कोई धर्म नहीं होता वो बस साए होते सिर्फ साए.....इसे आप प्रेम कहानी मत समझे क्यूंकि एक प्रेम कहानी से कहीं ज्यादा ये संदेशात्मक कहानी है ...

ये हो सकता है की मेने इसे कुछ ज्यादा ही रूहानी ढंग से लिया हो पर ये सच है की इस फिल्म को एक बार देखना बनता है ...कम से कम उन लोगो के लिए तो जरूर बनता  है जो अच्छे कांसेप्ट ,संदेशात्मक फिल्मों और साफ़ सुथरी प्रेम कहानियों के कदरदान है....


आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

18 comments:

SANDEEP PANWAR said...

साठ साल में भी बुढढे को लाली की याद आ रही थी।

प्रवीण पाण्डेय said...

चलिये प्रेम का संदेश पाने के लिये देख आते हैं।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर...बधाई

अजित गुप्ता का कोना said...

मीडिया ने तो ऐसी-तैसी कर रखी थी। लेकिन मेरा भी मन था अब तुम कहती हो तो देखने का हम भी जुगाड़ बिठाते हैं। जुगाड से अर्थ है कि पतिदेव कौन से समय अपनी क्‍लीनिक छोड़ सकेंगे, यह चक्‍कर चलाना है। मैंने तुम्‍हारी पोस्‍ट को बहुत सावधानी से नहीं पढ़ा है, अपनी आँखों से ही फिल्‍म देखना चाहती हूँ। नहीं तो मैं तुम्‍हारी सोच से ही उसे देखने लगूंगी।

asianweblink said...
This comment has been removed by the author.
asianweblink said...

लेखिका कीमा के साथ पुलाब भी अच्छा पका लेती है .. वो भी बेहतरीन और जयेकेदार .

कभी लुफ्त उठाना है तो कनु का कोना (नॉन ओफिसिअल रेस्टोरेंट) 24x7 ओपन है!
आपका
डी एस राजावत "माधव"
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Nikhil said...

मौसम पर आपकी राय पढ़कर संतोष हुआ कि फिल्म किसी को तो अच्छी लगी....मगर, मुझे लगता है ये फिल्म अगर 15 साल पहले रिलीज़ हुई होती तो शायद आपकी सभी बातें मुझे बहुत अच्छी लगतीं...मौसम के इस रुहानी प्यार में कई झोल हैं, जो फिल्म को कमज़ोर करते हैं....मुझे तो कहीं भी गांधीवाद या आतंकवाद पर विचार करती फिल्म नज़र नहीं आई...हां, गाने अब तक ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं....मैं तो अब भी कहूंगा कि मौसम एक महंगी फिल्म है, जिसमें इतने देशों में एक छोटी सी प्रेम कहानी घूमी है कि दर्शक अपने साथ स्कूल की एटलस किताब ले जाना न भूलें...पता ही नहीं चलता कि दिल कहां टूटता है और हाथ कहां...

kanu..... said...

धन्यवाद् सभी का कमेन्ट के लिए.निखिल जी बहुत ख़ुशी हुई की मेरी पोस्ट ने आपको मजबूर कर दिया कमेन्ट करने के लिए.आपकी बात अपनी जगह सही है ये कोई extra ordinary ,super hit ,फिल्म नहीं है .पर इसे सामान्य से अच्छी फिल्म कहा जा सकता है. आपको फिल्म ने ना पसंद आने के अपने कारन हो सकते है पर आम दर्शक की तरह फिल्म देखने के बाद मुझे फिल्म अच्छी लगी.ये नहीं कह सकती की दुबारा देखने जाउंगी पर एक बार के लिए अच्छी है और एसी फिल्म है जो आपको ३ घंटे बंधे रखती है और बाहर निकलते समय किसी को गली देने का मन नहीं करता ना ही ये कहने का मन करता है की कहा टाइम बर्बाद कर दिया .बाकि मुझे पसंद आई ये फिल्म और अभी तक ज्यादातर लोगो ने फिल्म की तारीफ की है....

रेखा said...

आपकी पोस्ट पढ़कर फ़िल्म देखने का मन तो कर रहा है ....चलो देख ही लेंगे

दिगम्बर नासवा said...

अपने बारीकी से इस फिल्म के कई पहलुओं को उजागर किया है ... आपका अंदाज़ भी लाजवाब है ...

Smart Indian said...

रिव्यू का अन्दाज़ अच्छा लगा, पंकज कपूर के टेलेंट में मुझे भी कोई शक़ नहीं है।

Vikas said...

आपका अँदाजे बयाँ मौसम को लेकर बेहतरीन ऐसे ही नही रहा होगा ।किसी को बोरियत भरा लगा होगा तो किसी के आँखो से आँसू भी झरे होँगे ।उम्मीद करता हूँ आगे आप अन्य फिल्मो की खुबियाँ रूहानी अँदाज मेँ बयाँ करेँगी ।

kanu..... said...

dhanyawad anurag sir aur vikas.

Anupam Karn said...

dekhi nhi ab tak....
par padhkar lagaa ki ek baar to dekhunga

abhaar

kanu..... said...

thanks rajeev ji

सियाना मस्कीनी said...

आग कहते हैं, औरत को,
भट्टी में बच्चा पका लो,
चाहे तो रोटियाँ पकवा लो,
चाहे तो अपने को जला लो,

abhi said...

शायद ब्लॉग पे मैंने मौसम फिल्म की पहली समीक्षा पढ़ी है..मैंने भी देखी थी फिल्म,फिल्म के कुछ सीन्स वाकई जबरदस्त बने हैं और कुछ तो ऐसे 'मोमेंट्स' हैं जो कई सारी बातें याद दिला जाते हैं..
मुझे मौसम एक अच्छी,सोफ्ट फिल्म लगी...लेकिन एडिटिंग और हो सकती थी(सही मायने में एडिटिंग बुरी हुई है फिल्म की).,..
लेकिन मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता....बहुत लोगों को फिल्म पसंद नहीं आई, लेकिन मुझे अच्छी लगी!

Praveen said...

hello kanu.....aapka andaaze baya mujhe bahut accha laga.....maine aapka pura blog bahut hi dheeraj k sath padha. Pr jb mai muvi dekh raha tha to mujhe ye sb nhi pata tha ki mujhe kis cheez pe gaur krna chahiye aur kis pe nhi....bt ap mai muvi ko acchi nazariye se dkhta hu.