सुबह ८.३० की वो ए सी बस मेरे घर से ऑफिस आने का साधन बनती है रोज ,अनवरत , हमेशा की दिनचर्या है मेरी. उसी बस में बैठकर मैं ऑफिस तक आती हू .वैसे बेठना कहना सही नहीं क्यूंकि आज तक मुझे कभी उस बस में बेठने की जगह नहीं मिली ज्यादातर सफ़र खड़े होकर ही करना पड़ता है पर में फिर भी खुश रहती हू क्यूंकि कम से कम बेस्ट की बस की तरह भाग दोड़ कर और गंभीर भीड़ में लोगो से टकराते, माफ़ी मागते हुए ,लोगो के टकराने पर भी कुछ ना कह पाने के गम से जूझते हुए नहीं आना पड़ता . ये एक बस छूटी की मुझे ना जाने कितने पापड़ बेलते हुए भाग दौड़ करते हुए ऑफिस आना पड़ता है...
हाँ तो मैं ए सी बस पर थी आज सुबह मुझे मेरी किस्मत और भगवन के करम से फिर ए सी बस मिल ही गई किस्मत और भगवन का करम इसलिए कह रही हू क्यूंकि में बहुत ही बिखरी बिखरी सी लड़की हू आज भी बचपना है मुझमे जिसमे लोग अलार्म बजने पर खुद से ही कहते है १० मिनिट और सो जाती हू १० मिनिट में कोई फर्क नहीं पड़ेगा और ये १० मिनिट का फरक मुझे दौड़ लगाकर लंच तैयार करने और नहाने ,तैयार होने , भागते भागते दूध पीने और जल्दी जल्दी सीढियां उतरने पर मजबूर कर देता है....पर जाने क्यों सब जानते समझते में सुधरती नहीं या शायद सुधरना नहीं चाहती.
मैं फिर बातों में उलझ गई न तो में कह रही थी आज बस में खड़े होने के बाद हमेशा की तरह अलग अलग चेहरों से नजर टकराई कुछ से टकराकर नजरों में जान पहचान वाले भाव उभरे तो कुछ से टकराकर परावर्तित हो गई जैसे उनकी भाव शुन्यता और अनजानापन आकर्षण का केंद्र ना हो मेरे लिए .इन्ही चेहरों के साथ एक और अनुभव जो इस तरह की बस में होता है वो है अलग अलग खुशबुओं का अहसास सारे खिड़की दरवाजे बंद होने के कारन शायद ज्यादा बढ़ जाता है. जानती हू गवारों जैसी बात लगे शायद क्यूंकि सब जानते है की ए सी बस में खिड़कियाँ होती नहीं पर इसी के कारन ये खुशबुओं वाला अहसास हावी होता है.
तरह तरह की खुशबुएँ कुछ इतर की , कुछ परफ्यूम की , बॉडी लोशन की, हैयेर जेल की,क्रीम ,पौडर और भी ना जाने कितनी तरह तरह की खुशबुएँ...कभी आकर्षित करती कभी सर को भन्नाने और दर्द की कगार पर पहुंचती इन खुशबुओं से रोज ही दो चार होना पड़ता है .कभी कभी लगता है इन सारी खुशबुओं को ओढ़कर हम सब जैसे दिखावे की दुनिया के करीब आ जाते है...अपने आप से अपने खुद से काफी दूर , जैसे इन लिपे पुते चेहरों और तेज़ खुशबुओं के पीछे सब अपना दर्द ,अपनी तकलीफें अपने असली रंग रूप को दबा लेना चाहते हो. कभी जकड़ती सी लगती है ये तरह तरह की खुशबुएँ ....
हाँ तो आज इन्ही खुशबुओं और लिपे पुते जाने अनजाने चेहरों के बीच मुझे एक नया चेहरा नजर आया वो मेरे काफी पास खडी थी ,थोड़ी ही देर में उसने मुझे पूछा आप कहा तक जा रही है ?जवाब में मैंने कहा एल एंड टी तक.फिर प्रश्न था :आप मुझे बता देंगी स्टॉप आएगा तो?में पहली बार जा रही हू मैंने कहा हाँ क्यों नहीं? बिलकुल बता दूंगी और फिर छोटा मोटा बातों का सिलसिला चल पड़ा वैसे भी ये मेरी आदत है में लोगो के साथ बड़ी जल्दी घुल मिल जाती हू, और मुंबई में क्यूंकि हम दो लोगो के सिवा घर में कोई है नहीं तो ,जहा भी बातें करने का मौका मिलता है वहा चूकती नहीं .अभी ये शहर मुझे इतना नहीं बदल पाया की मैं घुन्नो की तरह व्यवहार करू ,पर हाँ कोशिश में जरूर है मुझे बदलने की देखते हैं कौन जीतता है .
बातों ही बातों में पता चला की वो आज ही ज्वाइन करने आई है बाकि भीड़ के कारन ज्यादा बात नहीं हुई.थोड़ी देर में ही उसे सीट मिल गई और मेरी नजर घूमकर उससे मिली .सच कहू तो प्यारी से लड़की थी वो चटकीला पिंक फूलों वाला सूट ,उसी रंग के टॉप्स ,एक कड़ा , मचिंग चप्पल और सबसे बड़ी बात चेहरे पर मासूमियत.देखकर ही लगता था बाहर से आई है मुंबई की नहीं है कारन दो थे पहला ये की मुंबई में नए नए आए लोग अलग से पहचान में आ जाते है और दूसरा उसका मचिंग प्रेम ,क्यूंकि मुंबई में ऑफिस जाते लोगो को आप इस तरह से कम ही देखेंगे .उसे देखकर वो समय याद आ गया जब स्कूल के पहले दिन नया बैग ,उसी रंग का तिफ्फिन ,और उसी रंग की बोत्तल लेकर जाते थे. वैसे सच कहू तो जब मैंने बैंक की अपनी पहली नौकरी ज्वाइन की थी तो मुझे ये मचिंग प्रेम नहीं था पर मेरे पापा को लगता था की पहला दिन है ऑफिस का तो उनने मुझे एक पिंक बोतल,पिंक तिफ्फिन,पिंक बरसाती,,पिंक बैग सब दिलाकर पूरा पिंकी बना दिया था :) बस क्यूंकि में पिंकी दिखना नहीं चाहती थी इसलिए पिंक ड्रेस नहीं पहना और बाद में अक्भी ये मौका नहीं मिला क्युंकी प्राइवेट बैंक में official ड्रेस होता है .
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
15 comments:
ओह वही देरी फिर जल्दबाजी। ऐसा लगा मेरे यहां ही यह घट रहा है। नाम का इतना असर। बहुत अच्छा लिखा है,बहुत ही अच्छा।
बिलकुल सही लिखा है आपने और बहुत ही खुबसूरत ....
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।
सादर
-----
परिंदों का मन
धीरे धीरे वह भी भीड़ का हिस्सा बन जायेगी।
nice to read once again.
kanuji, i often read your blog and would like others to read your words too.
In appriciation of the quality of some of your content wanna introduce you another blog www. jan-sunwai.blogspot.com which is going to publish a book for good blog writers, its a platform for writers like you as well as for the people looking for legal help.
Kindly check http:// www. jan-sunwai.blogspot.com
Regards.
संस्मरण के साथ आपबीती ...........कुछ अलग लगी......बढ़िया|
welcome ajit aunty .naam ke sath saath surname bhi ek hai :) asar to hoga hi...seema ji ,praveen sir,yashwant ji ,suresh ji sabhi ka dhanyawad
Bahut hi sunder likha hai....
apka blogg bhi pashand aya..
follow kar rahe hain....!
aisa laga mai aap biti sun raha hoo, mai jab 1 st time manglor job karne gaya of comapny bus mai betha to meri halat shayad kuch kuch pinky jaisi , or kuch tumhari jaisi thi , bus sabko sungh raha tha , nice very nice ,
बड़े शहरों में अक्सर मासूमियत को गुम होते देखा है...इंसान मशीन बनते चले जाते हैं! जो अपनी सादगी, अपना वजूद बचा पाते हैं...वो विरले ही हैं!
बहुत अच्छा लिखा है,बहुत ही अच्छा।
aap ne bahut achha likha hai.is bhedchal duniya ke bisangatiyo ko apne apne lskhni se mukhar swar diya hai.apka yeh sansmaran aaj ke yuva yuvatiyo ke saath ghatne wali roz ki kahani hai.is tarah ke sansmaran hamare jivan ke adambar aur vstavikta ko bade rohak aur maryadit dhahg se ujagar karta hai.
hy very well written.........:)
बहोत अच्छे | धन्यवाद |
Post a Comment