parwaz: |
डर कैसा फिर तन्हाई से ?
मिलन का नहीं कोई मौसम
घाव सिए ना कोई तुरपन
जीवन के झूठे सब मेले
मन से कोई यूँ ना खेले
मोह लगाया सौदाई से
डर कैसा फिर तन्हाई से ?
तुम बिन सूना घर आँगन
बरसो से आया ना सावन
खुशियों से होती है सिरहन
आस लगाए बैठी विरहन
रीते आंसू आँखों से सब
बोलो लौट आओगे कब
जाने वाले चले गए
क्या होगा अब सुनवाई से
प्यार हुआ जब हरजाई से
डर कैसा फिर तन्हाई से ?
अंतर्मन का दर्द है ऐसा
पानी के बिन बादल जैसा
सूखी नदिया मन की ऐसे
तड़क जाए है धरती जैसे
तेरे बिन हालत है ऐसी
जैसे बौर हो रूठा अमराई से
प्यार हुआ जब हरजाई से
डर कैसा फिर तन्हाई से ?
9 comments:
आह...
बहुत बढ़िया..
लाजवाब रचना.
सपनों को मान मिले न मिले,
अपने में रहना सीख लिया
बहुत सुंदर प्रस्तुति,बेहतरीन लाजबाब रचना,...
welcome to new post --काव्यान्जलि--यह कदंम का पेड़--
बेहतरीन भाव।
सुंदर रचना।
बहुत खूबसूरत अहसासों से सजी पोस्ट|
सुंदर रचना, फिर डर कैसा तन्हाई से...
यह गीत तो किसी फ़िल्म में जुदाई की सिचुएशन में बहुत सही बैठेगा!
Bahut hi khoobsoorat rachna..
kabhi waqt mile to mere blog par bhi aaiyega.. aapka swagat hai..
palchhin-aditya.blogspot.com
A topic near to my heart thanks, ive been wondering about this subject for a while.
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