Friday, October 21, 2011

मैं और तुम या हम I and U Or WE



आज कई दिन के बाद एक एसी कविता लिखी है जिसे दिल के करीब पाती हू...इसमें कुछ सच्चाई है कुछ कल्पना पर मेरे दिल के करीब है
मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
दो जिस्म दो रूह दो जान
पर भाग्य  की लेखनी से बंधे हम तुम

तुम कहते हो :हमारा साथ सात जन्मों का है
मैं कहती हू :ये मेरा सातवा और आपका पहला जन्म है
तुम कहते हो:एसा क्यों कहती हो?मेरा साथ नहीं चाहती?
मैं कहती हू: प्यार के कम होने से डरती हू
तुम कहते हो :कैसा डर?
मैं कहती हू : डर है  आपकी ऊब का
तुम कहते हो : एसा क्यों सोचती हो?
मैं कहती हू : जिसे अगाध प्रेम की कामना हो वो थोड़ी कमी से भी घबरा जाता है
तुम कहते हो: विश्वास नहीं मुझ पर ?
मैं कहती हू :मुझे खुद पर भरोसा नहीं,मेरा मन चंचल है
और तुम:तुम कुछ कहते नहीं बस मुस्कुरा देते हो

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

हम तुम आज से नहीं जुड़े
अपनी माँ के गर्भ में आने के साथ ही
तीसरे हफ्ते में जब मेरे हाथों की रेखाएं बनी
मैं तुम्हारे साथ जुड़ गई
किसी ने चुपके से उन रेखाओं में तुम्हारा
नाम लिख दिया
अक्स नहीं दीखता तुम्हारा मेरे हाथों में
तब शायद दीखता होगा
अब तो बस रेखाएं ही रेखाएं है

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
जिस दिन से मैं माँ की गर्भनाल से अलग हुई
ये बात लोगो ने भी कहना शुरू कर दी थी
की कही मेरे लिए तुम बना दिए गए हो
इश्वर ने तुम्हे मेरे स्वागत के लिए
 भेज दिया था इस दुनिया में
तब से लेकर आज तक
 या आने वाले हर कल तक
तुम मेरे साथ हो

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

जब जब सुनती हू राधा कृष्ण की कथा
सिहर जाती हू इस बात से
कही में तुम्हारी रुकमनी तो नहीं
डर ये नहीं की कोई राधा रही होगी
डर ये होता है की मेरा नाम तुम्हारे नाम के साथ
जन्म  जन्मान्तर तक याद नहीं किया जाएगा
और जब बताती हू ये बात तुम्हे, तुम मुस्कुरा देते है
जेसे मुस्कुरा रहे हो मेरे बचपने पर
और मैं खुद अपनी ही सोच पर खिलखिला देती हू

मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना

कभी कभी अचानक नींद से जाग जाती हू
और सोचती हू मेरे नाम का अर्थ
कही मेरे भाग्य से तो नहीं जुड़ गया
धर्मवीर भारती की कनुप्रिया की तरह
मैं भी तुम्हारे विरह में जीवन  व्यतीत तो  ना करुँगी
कही में तुम्हारी राधा ना बन जाऊ
फिर अपनी ही सोच को  दिल के
किसी कोने में दफ़न कर सो जाती हू
ये सोचकर  की ये मेरे मन का वहम है
जब तुम्हे सुबह बताती हू ये स्वप्न
तो तुम हस देते हो और थाम लेते हो हाथ मेरा
और मैं ?मैं तो किसी भावना को
व्यक्त करने की अवस्था में नहीं होती


मैं और तुम या हम
शब्दों का झंझावत है क्या उलझना
मुझे बन्धनों में ना बांधों
ये मेरा अंतिम जन्म ही भला
पर अपने अगले ६ जन्मों तक
मुझे याद जरूर रखना
मैं कहती हू :याद रखोगे ना?
तुम कुछ कहते नहीं बस देखते रहते हो मुझे
मैं सोचती हू :कैसा प्रेम है ये ?
तुम्हे  छोड़ना भी चाहती हूँ  और मुक्त भी नहीं करना चाहती
और फिर सोचती ही जाती हू अनंत  ....
और तुम?तुम बस मुस्कुराते हो और मुस्कुराते चले जाते हो.....




आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Thursday, October 20, 2011

मैं अधूरी सी हो गई main adhuri si ho gai

parwaz:मैं अधूरी सी हो गई

कितनी अजीब बात है पर यही सच है
तुम जब से पूरे से हुए हो मैं अधूरी सी हो गई
शायद मैंने खुद को तुम मैं खो दिया है
या खुद का एक हिस्सा खुद से थोडा सा अलग  कर दिया है
पर ये तुमसे मुलाकात के बाद ये अधूरापन कही बढ़ता सा जाता है
जब जब तुम कहते हो मैं पूरा सा हो गया
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कभी  कभी अहसास होता है
जिंदगी के पन्नो को तुम्हारे नाम करते हुए
मैं कई बार साथ में अपना  नाम लिखना भूल जाती हू
और जब जब पलटकर देखती हू उन्ही पन्नो को
तो सिर्फ तुम्हारा नाम मुझे अकेला सा कर देता है
तुम भी भूल जाते हो इन पन्नो पर मेरा नाम लिखना....
ये अहसास मुझे और भी अधुरा कर देता है
इन पन्नो पर अपने नाम को ना पाकर
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...

तुम्हे पूर्णता  देने का अहसास मेरे अधूरेपन को भरता है
पर जब तंग गलियों में साथ चलते चलते
अनायास ही तुम कभी हाथ झटक देते हो
या खुद में गुम कही आगे निकल जाते हो
मेरा ख़ाली हाथ मुझे अधूरेपन का अहसास दिलाता है
चार क़दमों की जगह  दो क़दमों के चलने की आहत मुझे अधूरापन देती है
तुम्हे शायद ये अहसास भी नहीं होता
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कभी कभी जब तुम अपने "मैं" में खो जाते हो
और भूल जाते हो हमारे हम को
अपने यंत्रो में खोकर तुम अकेले बेठे बेठे
अपने चेहरे पर मुस्कराहट ,दुःख या चिढ के भाव लाते हो
मेरी आहट से तुम खुद को असहज महसूस करते हो
और अचानक यही असहजता का भाव मेरे चेहरे पर भी आ जाता है
तब हर बार  में कही अधूरापन महसूस करती हू
तुम्हे शायद भनक भी नहीं लगती
मैं हर बार थोड़ी और  अधूरी सी हो जाती हू...


कई बार जब तुम खामोश से बेठे रहते हो
खुद में गुम हो जाना चाहते हो
तब मेरा पास होना भी तुम्हे भला नहीं लगता
 और इसी ख़ामोशी में तुम मुझे खामोश रहने का इशारा करते हो
मैं समझ  नहीं पाती तुम मुझसे दूरी चाहते हो या मेरे शब्दों से
तब अपने ही शब्दों में उलझी में खुद को अकेला पाती हू
तुम्हारा मौन ,तुम्हारे शब्द ,तुम्हारा सामीप्य , तुम्हारी दूरी
सब  बेमानी   सा लगता है उस एक पल में
जब जब तुम पास रहकर भी मुझसे दूर हो जाते हो
तुम्हे खबर नहीं होती पर
मैं हर बार थोड़ी और अधूरी सी हो जाती हू...



आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Friday, October 14, 2011

बटवारा हो गया.....

parwaz:batwara ho gaya
 सुबह से ही सारे मोहल्ले में हल्ला है
बटवारा होने वाला है बटवारा होने वाला है
सारे घरों की औरतें खुसुर पुसुर कर रही है
दीवारों के कान खड़े हो गए है
जेसे आज वो सुन ही लेंगी हर बात
और बता देगी सारे मोहल्ले को


सब कुछ खामोश है पर
इससे बड़ा कोलाहल जेसे कभी हुआ ही नहीं
इस मोहल्ले में
एसा लगता है जेसे तूफ़ान से
पहले की शांति इसी को कहते होंगे
पर समझ भी नहीं आता
की कैसा  तूफ़ान आने वाला है
बस उडती उडती सी खबरें आती है
तिवारी जी के घर में बटवारा होने वाला है

आज तिवारिन काकी
रोज की तरह चिल्ला नहीं रही बच्चों पर
ना ही तिवारी काका अपने आँगन के झूले  को दावे बेठे है
बड़ा गुस्सा आता है कभी कभी उनपर
बच्चो के झूला झूलने की उम्र में
खुद दिनभर बेठे रहते है उसपर

पर आज बड़े नीरीह से दिख रहे हैं
रह रह कर अपना चश्मा साफ़ करते है
और कहते जाते है  धूल बहुत उड़ रही है
पर सब जानते है ये धूल नहीं कोहराम है
जो रह रह कर आंसू बन उतर आता है उनकी आँखों में

सब साँसे रोककर इन्तेजार कर रहे हैं
किसके हिस्से क्या आएगा
सब बहस में लगे हैं
किसी को मकान चाहिए
कोई गाओ बाहर का खेत मांगता है
कोई कहता है नुक्कड़ वाली दूकान मुझे दो

तिवारिन आँखें फाड़े सबको देखती है
और रह रहकर  दर्द उठता है सीने में
जेसे अपना पिलाया हुआ दूध
बेकार गया लगता हो आज

तिवारी काका कुछ नहीं कहते
दिन भर बोलने वाली काकी भी चुप है
दोनों वृद्ध मन ही मन सोचते हैं 
ले लेने दो इन्हें सब
कट जाएगी बची हुई जिंदगी एक दुसरे के साथ
सच है बुढ़ापे में
एक दुसरे का ही तो सहारा होता है वृद्धों को

देखते ही देखते सब बट गया
घर दुकान बर्तन बिस्तर
खेत खलिहान,चोबारा छत
यहाँ तक की काकी की मृत्यु के बाद
कौनसी चूड़ी कौन सा कंगन
किसके हिस्से में आएगा सब बाँट लिया बेटों ने

सारे मोहल्ले  ने राहत की सांस ली
इतने दंगे फस्साद तू तू मैं मैं के बाद
आखिर सब बट ही गया
पर तभी आवाज़ आई
अभी कुछ और भी कुछ बाकि है
काका झल्लाए बोले
अब क्या हमारे मरने पर
कौन अर्थी उठेगा ये भी अभी ही बाटोंगे ?

नहीं ये नहीं आप दोनों कहाँ
किसके साथ रहोगे ये बाटना बाकि है
दोनों वृद्ध ने एक दुसरे की तरफ देखा
और काका बोले हम थोड़े थोड़े
 दिन सबके साथ रह लेंगे

फिर आवाज़ आई नहीं साथ नहीं
आपको एक एक करके रहना होगा
माँ जब बड़े भैया के घर रहेगी तो
आप   मेरे साथ रहना
इस तरह दोनों जगह थोड़े थोड़े दिन रहना
इस तरह खर्चा बंट जाएगा

ये सुनते ही काकी जमीन पर बैठ गई
और उनके मुह से बस बार बार यही शब्द निकलते थे
इन लोगो ने माँ बाप बाँट लिए
हाँ सच में अब बटवारा हो गया.....

Thursday, October 13, 2011

यादों में मिलते हैं..

parwaz:yadon me milte hain

फिकर ये नहीं की वो दूर हो गए हमसे
फ़िक्र ये है की हम आज भी उनकी यादों में मिलते हैं..
उनकी आँखें आज भी नम हो जाती है हमारे लिए
दर्द के निशान आज भी बातों  में मिलते है

दोस्त  भी आजकल काम में मसरूफ हो गए
रूबरू मिल नहीं पाते ,देर रात के ख्वाबों में मिलते है

वो मोहब्बत के किस्से जो कभी मशहूर थे गुलशन में
फूल बनकर तहखाने की  बंद किताबों में मिलते है

माँ से मिले हुए जब अरसे बीत जाते है
उसके आंसू रात भर मेरी आँखों में मिलते हैं

 जिन्हें दिन के उजालो  ने बर्बाद कर दिया
वो फ़रिश्ते आजकल चांदनी रातों में मिलते है

वो खुदा जिसको ढूढ़ते फिरते हो फिजाओं में
उसके अंश गरीबों की दुआओं में मिलते है

वो खूबान* जो कभी मेरी रूह  का हिस्सा थी
आजकल उनसे हम यादों  की पनाहों में मिलते है..

वो अपने जो गले मिलकर दुआ सलाम करते थे
आजकल  दूर रहते है ज़रा  फासले से मिलते है
ज़माने के दस्तूर सीखकर  आबदार* हो गए
जिन्दादिली से नहीं सिर्फ दुनियादारी से मिलते है

1)खूबसूरत औरत २)polished दिखावटी
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
कनुप्रिया 

Tuesday, October 11, 2011

क्यों? why?

प्यार किया तो प्यार किया, बना दिया अफसाना क्यों
तुम बदले या हम बदले अब ये सब गिनवाना क्यों ?

दोनों का ये साझा है ,बस अपना इसे बताना क्यों
तुम पहले या हम पहले इन बातों पर अड़ जाना क्यों ?

अश्क दिल में है तब तक ओंस है पानी इन्हें बनाना क्यों
मोती बन जाने दो इनको ,दुनिया को दिखलाना क्यों?

जब कह दिया तो कह दिया दिल की बात छुपाना क्यों
शब्दों से दिल को जीतो तीर उन्हें बनाना क्यों?

शमा जली तो अपनी लौ मैं जला दिया परवाना क्यों
प्रेम अपनों से भी हो सकता है चाहिए दीवाना क्यों ?

जो चला गया वो चला गया रह रह कर उसे बुलाना क्यों
नए स्नेह का पौध लगाओ घावों को सहलाना क्यों  ?

मन निर्मल है तो निर्मल है  लोगो को समझाना क्यों
पाप पश्चाताप से धुल जाते फिर गंगा के तट जाना क्यों ?

कल  गुलाब भी मिलेंगे आज काँटों से डर जाना क्यों
राहों पर जब चल दिए तो फिर लौटकर  वापस आना क्यों ?

गारे का घर भी सुन्दर है ईटों से सर टकराना क्यों
परदेसों में मन पत्थर है अपना देश भुलाना क्यों?

कोई पागल प्रेम के पीछे किसी को धन का नशा चढ़ा
जब सारे के सारे पागल है तो खोले पागलखाना क्यों ?

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Monday, October 10, 2011

कहाँ तुम चले गए ?सुबह से आँख में नमी सी है jagjeet singh we will miss you

जगजीत सिंह अपने साथ भारत की न जाने कितनी ही जिंदगियों के अकेलेपन का सहारा ले गए,न जाने कितने  मोह्हबत भरे दिलों की आवाज़ ले गए,न जाने कितने दिलों की दर्द से लड़ने का माद्दा ले गए ,जाने कितने प्रेमियों के पहले प्रेम के अनुभव का एक हिस्सा खोखला कर गए ,जाने कितनी रातों  को  संगीत से ख़ाली कर गए और हजारों दिलों में बस यादें दे गए यादें जो दिलों में हमेशा महकती रहेगी...और खालीपन जो हमेशा सालता रहेगा और गज़लें जो हमेशा दिलों पर राज़ करेगी और याद दिलाती रहेगी वो आवाज़  जो कल तक हमारे आस पास से आती थी पर अब शायद कही दूर से गूंजेगी...... .कहाँ तुम चले गए क्यों तुम चले गए.....


कहाँ तुम  चले गए ?तुम थे तो
किसी को देखकर ख्याल आता था "जिंदगी धुप तुम घना  साया"
जब सामने कोई आ जाता था तो ना जानिए क्या हो जाता था
और हजारों ख्वाहिशें थी जिन पर दम निकल जाता था

तुम थे तो कागज़ की कश्ती  भी प्यारी प्यारी लगती थी
और परदेश में रहकर भी देश के चाँद से यारी रहती थी
उनके आने की खबर महकने से खुशबुओं से घर महकता था
और झुकी झुकी सी नजर बेक़रार हुआ करती  थी

तुम थे तो पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल जानता था हमारा
और हर शाम किसी के आने की खबर मेहका करती थी
हम सोचा करते थे "तेरे बारे में जब सोचा नहीं था तो मैं तनहा था मगर इतना नहीं था"
और तमन्ना फिर मचल जाए अगर वो मिलने आ जाए

तुम थे तो हम चलते फिरते कह देते थे "मेरे जैसे बन जाओगे जब इश्क तुम्हे हो जाएगा"
और किसी के मिलने आने की बात से ही तम्मना फिर मचल जाती थी"
तुम थे तो सरकते जाते थे रुख से नकाब आह्स्ता आहिस्ता
और आईने जैसे चहरे हुआ करते थे

तुम थे तो किसी के मुस्कुराने पर गम छुपाने की बात मन में आती थी
और दिल में दबी फरियादें भी आँखों में दिख जाती थी
कोई होंठो से छु लेता था तो गीत अमर हो जाते थे
और शाम से ही आँख में नमी सी आ जाती थी

किसका चेहरा अब हम देखे उन गजलों के लिए
तेरी आवाज़ दिल में बस गई उम्र भर के लिए
बिन चिट्ठी बिन सन्देश कहाँ  तुम चले गए
पर जाते जाते तुम हमें अच्छी निशानी दे गए

अब तो बस यही कह सकते है
शाम से आँख में नमी सी है
सदमा तो है मुझे भी की तुझसे जुदा हू मैं
पर हाथ छूटे तो भी रिश्ते नहीं टूटा करते
इसलिए बस चाक जिगर के सी लेते हैं जेसे भी हो जी लेते हैं.....
क्यूंकि अपनी मर्जी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं...


आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Friday, October 7, 2011

सपनो की खेती और इश्वर sapnon ki kheti aur ishwar

अचंभित हू इश्वर की इस लीला पर की उसने अपनी चित्रकारी के लिए हम सबको बना दिया पहले महिला बने या पहले पुरुष इस बात को करने का कोई मतलब नहीं क्यूंकि इस बात पर वैज्ञानिकों से लेकर धर्मगुरुओं तक सब अपना सर फोड़ चुके हैं पर मेरा मन बंदरों को पूर्वज मानने तैयार नहीं होता क्यूंकि अगर वही सब मानना है तो पहले धर्म ,शास्त्र सबको एक तरफ रखकर सोचना पड़ेगा और अगर सब कुछ अलग रखकर ही सोचना है तो लिखने  या सोचने से बेहतर है सिद्धांतों को गढ़ा जाए पर  मैं सिद्धांतों  को पूरी तरह मानने वालों में से नहीं हू क्यूंकि एक सिद्धांत तभी तक सही होत है जब तक अगला सिद्धांत आकर उसे कचरे के डब्बे में जाने पर मजबूर ना कर दे .
हर नई खोज तभी तक नई होती है जब तक  कुछ नया आकर उसे पुराना ना करे  ठीक वेसे ही जेसे मोहल्ले की नई बहु तब तक नई रहती है जब तक एक नई बहु आकर अपनी बड़े बड़े घुंघरू वाले पायल की झंकार से मोहल्ला ना गूंजा दे,जिस दिन मोहल्ले में दूसरी बहु आई, कोई नई बहु पुरानी हो जाती है ठीक वेसे ही एक नई खोज या सिद्धांत आकर बाकि को पुराना या गलत साबित कर देता है.इसलिए सिद्धांतों की दुनिया किसी ज्यादा बुद्धिमान इंसान के पैदा होने तक ही टिकी है .

इश्वर ने अपनी चित्रकारी में हर रंग डाला ,पर अपने खेल खेल में एक बड़ा काम कर दिया उस चित्र में जान डाल दी और छोड़  दिया चित्र को बिना किसी एक्सपाईरी डेट के ताकि अंत की कोई निर्धारित तिथि ना रहे .  इस सबसे बड़ी बात हम सब की पीढ़ियों को छोड़ दिया शापित यहाँ भटकने के लिए .दे दिए हमें छोटे छोटे मकसद ताकि हम जिंदगी भर उन मकसदों को पूरा करने के लिए भटकते रहे.उसने अपने मजे के लिए हम सबको एक होड़ का, एक दौड़ का हिस्सा बना दिया पर इस सबसे बड़ी बात उसने इस रेस का कोई अंत नहीं बनाया ,बस हमें प्रतिभागी बनाकर  एक दुसरे से होड़ करने के लिए छोड़ दिया. ताकि कोई एक आविष्कार करे तो दूसरा उससे बेहतर करने की सोचे,एक सामाजिक प्रतिष्ठा  पाए तो दूसरा उससे ज्यादा पाने की सोचे ,ठीक वेसे ही जेसे "उसकी साडी मेरी साडी से सफ़ेद केसे" और ये भावना सिर्फ महिलाओं को नहीं पुरुषों को भी बराबर रूप से दी या शायद थोड़ी ज्यादा ही उसकी बीवी मेरी बीवी से सुन्दर कैसे ?उसका घर मेरे घर से अच्छा कैसे ?उसका रुतबा मेरे रुतबे से ज्यादा कैसे?यहाँ तक की उसका बच्चा मेरे बच्चे से होशियार कैसे"?और बस इस होड़ में दे दिया हमें भटकाव अनंत काल का.

उसने अपनी चित्रकारी में एक रंग और डाला सपनो का रंग उम्मीदों का रंग वो यही तक करता तो बात अलग थी पर उसने कहानी में ट्विस्ट डाला हमें रात में देखे जाने वाले सपनो से ज्यादा दिन के सपने दिखाए ताकि उसकी इस दौड़ को ज्यादा से ज्यादा प्रतिभागी मिले ,उसने हमें सपने बनाना सिखाया  पर सपने उगाने की कला नहीं सिखाई आखिर क्यों ?जब हम उसने हमें गेहू धान उगाना सिखाया तो सपने उगाना क्यों ना सिखा दिया ? उसने बरसो की मेहनत के बाद पानी बनाने का फ़ॉर्मूला तो बता दिया पर पर नदियाँ बहाने का या नदियाँ उगाना क्यों नहीं सिखाया?
उसने हमें इन सारे छोटे छोटे कामों में उलझाकर बड़े कामों से हमें दूर कर दिया नई नहीं चीजें सिखाकर बड़ी बड़ी पर ज्यादा महत्वपूर्ण बातें  सिखाना भूल गया या शायद जान बूजकर नहीं सिखाई और वो थी अपनी जिंदगी नियंत्रित करने की कला,सपने उगाने की कला ,मुस्कुराहटें पैदा करने की कला ,धरती पर धुप खिलाने की कला ,नदियाँ उगाने की कला ,मतलब उसने हम सबके साथ ठीक वही किया जो एक कुशल व्यापारी करता है अपने नौकर को हर बात सिखाता है पर व्यापार का गूढ़ रहस्य नहीं बताता कुछ बातें छुपा जाता है ताकि व्यापर की कमान उसके हाथ में रहे .गोया की इश्वर  ड्राईविंग इन्सट्रकटर हैं एक ब्रेक हमेशा अपने हाथ में रखता है,  और अपनी इस मनमानी को उसने भाग्य का नाम दे दिया .ताकि कोई उसपर उंगली ना उठा सके .

इसमें कोई दौमत नहीं की वो ग्रेट है पर उसने अपने खिलाडियों को उस भट्टी में झोंक दिया जहा की आग कभी बुझती नहीं ,उसने हमें दिमाग नाम की एक चीज दी पर सारे नियंत्रण अपने हाथ में रखे ,और बीच बीच में गड़बड़ी करने के लिए एक दिल दे दिया ताकि खेल में अगर वो गलत मोहरा चले तो हम उसे दोष ना दे सके दोष कभी दिल पर तो कभी भाग्य पर आ पड़े....उसने हमें मोह दे दिया ताकि हम इसी खेल को सच मान बेठे  ,नरक का  डर,स्वर्ग की सुन्दरता बखान सब हमारी स्मृतियों में डलवा दिया,डलवा दिया इसलिए क्यूंकि ये सारी बातें हमारे मनों में डालने वाले उसी के भेजे हुए खिलाडी थे.उसने अपने चित्र को लाइव बनाने के लिए हमें धर्म ,जाती,बड़ा छोटा,दोस्त दुश्मन जेसी बातें सिखा दी ताकि उसके बनाए इस बड़े से चित्र में सब कुछ अच्छा अच्छा ना हो.  हमें छोड़  दिया खेलने के लिए ये खेल औए वो निष्ठुर कही दूर बेठा सारा तमाशा देखता है हमें रोते चीकते चिल्लाते देखता है ठीक वेसे ही जेसे कुत्ते की पूँछ में पठाखा बंधकर बच्चे खुश होयते है वो भी हमें बेठा देखता है .उसने इस चित्र  में सुन्दरता भी दिल खोलकर उढ़ेली पर हमें ये सुन्दरता भोगने का सुख ना दिया ,हमें तो बस मोहरा बनकर छोड़ दिया  और खुद स्वामी बन बेठा ताकि जब दुःख हो हम उसका मुह ताकें और उसका स्वामित्वा बना रहे.....

हम उसे इश्वर कहते है पर वो तो सबसे बड़ा छलिया है वो ही तो है जो हम सबकी डोर हाथ में लेकर अपने बने लाइव चित्र का प्रसारण देखता रहता है और जब मन होता कहानी में कोई ट्विस्ट डाल देता है ताकि उसके मनोरंजन में कोई कमी ना हो......काश वो हमें इन छोटे छोटे कामों में ना उलझाता...तो हम लेखक डॉक्टर कवी इंजिनियर नेता या पंडित ना नहीं होते तब हम सब किसान होते और तब  हम सब आँखों में सपने नहीं देख रहे होते बल्कि  कही ना कही अपने खेत पर धान की क्यारियों में सपने  उगा रहे होते......

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

Monday, October 3, 2011

प्यार में कोई तर्क नहीं होता No arguments in love


वो जब भी आसमाँ के उस छोर को देखती है  जहा से आगे उसकी नजर नहीं जाती, तब हर बार यही सोचती है उड़  जाऊ कही दूर इस पिंजरे से जहाँ अपने पंखों के कुचले जाने का डर ना हो , सोचने लगती है हमेशा धरा  और आकाश के प्रेम के विषय में .सोचने लगती है पंछियों की उन्मुक्त दुनिया के बारे में.हर सुबह जब वो जगती है यही सोचती है आज का दिन अच्छा होगा ,आज मुस्कुराहटें खेलेगी चेहरों पर ,आज सब कुछ उसकी सोच की तरह एक दम परफेक्ट होगा पर ये परफेक्ट की परिभाषा हर बार मात दे देती है उसे  ,क्यूंकि वो बस यही सुन सुन कर बड़ी हुई है की दुनिया में कुछ भी परफेक्ट नहीं होता . पर गलत है ये बात क्यूंकि ,एक चीज हमेशा से परफेक्ट होती है वो है उम्मीदें ,उम्मीदें जो दुसरे उससे करते हैं और वो दूसरों से करती है ,ये उम्मीदें हमेशा से परफेक्ट होती है कभी कोई कमी नहीं होती और उम्मीदों का टूटना तो उससे ज्यादा  भी परफेक्ट होता है .
वो सोचती है दुनिया में हर तकलीफ,दुःख ,परेशानी अपने आप में परफेक्ट होती है  या उसके एकदम करीब. रोज देखती है अपने घर की खिड़की से कई लोगो को और हर किसी को देखकर सोचती है ये दौड़ लगा रहा है परफेक्ट होने के लिए और एक दिन आएगा जब ये भी मान लेगा की दुनिया में कुछ भी परफेक्ट नहीं होता . उसके घर में कांच के गिलास नहीं टूटते ये परफेक्ट उम्मीदें टूटती हैं हर रोज जब ये टुकड़े उसके दिल में कही चुभते हैं तो कही से एक और उम्मीद सर उठा लेती है आज नहीं तो कल सब परफेक्ट होगा और सच मानिये ये उम्मीद भी पिछली वाली उम्मीद की तरह एकदम परफेक्ट होती है .

कितना सोचती है ना वो ?उसके हाथों में, पैरों  में चाहे सरपट  भागने का दम ना रहे पर पर उसकी ये सोच भागती रहती है बिना रुके लगातार .पहले भी एसे ही भागती थी उसकी सोच तब अम्मा कहती थी गुडिया इतना नहीं सोचा कर इतना सोचना लड़की जात के लिए ठीक नहीं ,और जब भी अम्मा कहती थी वो चिढ़कर  टाल देती थी हुह लड़की जात के लिए कुछ भी ठीक ना है अम्मा पर ठीक तो बस इतना है की वो उम्मीदें ना करे किसी से पर दूसरों की उम्मीदों  को ना तोड़े ,तुम भी तो यही करती आई हो ,पर मैं ना करूंगी एसा.कभी ना करुँगी .मेरी दुनिया में बेबसी ना होगी,ना किसी पर इतनी निर्भरता की अपने मन की छोटी छोटी खुशिया भी छोडनी    पड़े

पर अब समझ आता है उसे क्यों कहती थी अम्मा एसा .कभी कभी सोचती है आंसू दुनिया में उसके सबसे प्यारे साथी हैं कम से कम ये तो उसका साथ नहीं छोड़ते , उसे अकेला दीवारों से सर टकराने के लिए मजबूर नहीं करते ,कभी कभी उसे लगता है कभी कभी दुःख इतने अपने से लगने लगते है हैं की कही से अचानक सुख आ भी जाए तो आँखों पर विश्वास  ही नहीं हो शायद .

कभी कभी वो महसूस  करती है की इस भरी भीड़ में वो चलती जा रही है बस चलती जा रही है और उसके हाथ में जो हाथ है उस हाथ का अहसास भी शायद मरने लगा है अब बस रास्ता ही रास्ता है कही कोई छोर नहीं . फिर एक उम्मीद आती है जो उस हाथ के मरे हुए अहसास में थोड़ी सी जान फूंक देती है जेसे एकदम सूखी हुई मनीप्लांट की पत्तियों में कोपलें उग आई हो ,वो उस हाथ में थोडा कम्पन महसूस करती है और ये कम्पन उसमे उम्मीद जागा देता है की साथ चलने वाले हाथ का चहरा एक बार पलटकर उसकी तरफ देखेगा और ये रास्ता थोडा आसान सा अपना सा दिखाई देने लगेगा....पर फिर ये अहसास अपने आप ही खतम हो जाता है जब साथ वाले चहरे में कोई हलचल दिखाई नहीं देती ,पर  वो कल के लिए उम्मीद  मरने नहीं देती एक परफेक्ट उम्मीद को बचा लेती  है अपने अन्दर ठीक वेसे ही जेसे एक माँ बचा   लेती है अपने गर्भ   की बच्ची को इस उम्मीद के साथ की ये दुनिया उसे उतने दुःख नहीं देगी जितने आज तक नारी को मिलते आए है.....

कई बार वो वो इस बात पर पूरा विश्वास कर लेती है की इंसान को अपने कर्मो की सजा इसी जनम में भोगकर  जानी होगी और जेसे ही ये  विश्वास घर जमाता है वो अपने पाप ढूँढने  लगती है, वो बददुआएं  टटोलने लगती है जो कभी उसको मिली होगी पर जब जब गठरी में कुछ एसा दिखाई नहीं देता जो उसके इस खालीपन के अभिशाप का कारन दिखाई दे तो वो फिर ये मान लेती है की पिछले जनम के पाप ज्यादा होंगे जो इस जनम में ट्रान्सफर कर दी  चन्द्रगुप्त ने .कभी कभी डर जाती है इस बात से की उसकी दुआ , बद्दुआ बड़ी जल्दी लगती है तब उसे हर बार भस्मासुर की कहानी याद आ जाती है जिसमे वो अपने ही सर पर हाथ रखकर खुद को राख कर लेता है और ये सोचकर ही वो सिहर जाती है की कही उसने खुद कभी खुद को ही बद्दुआ तो नहीं दे दी अनजाने में ?

कभी कभी सोचती है प्यार दुनिया की सबसे भली चीज है पर इससे कई ज्यादा बार वो ये सोचती है की प्यार दुनिया की सबसे बुरी चीज है क्यूंकि वो आपको सारी दुनिया से दूर कर देता है और एक दिन एसा आता है जब प्यार से लगाईं हुई  आपकी  सारी उम्मीदें दम तोड़ देती है और ये दुनिया भी आपका साथ नहीं दे पाती क्यूंकि प्यार के लिए आप कब का दुनिया को छोड़ चुके होते है .फिर कुछ नहीं होता आपके पास, ना पैसा ना प्यार और ना ये दुनिया .पर फिर सोचती है ये उतना भी बुरा नहीं क्यूंकि तब आपके पास सोचने के लिए कुछ तो होता है चाहे अच्छा या बुरा पर कुछ तो.....

कभी कभी लगता है जैसे प्यार में दिल से ज्यादा दिमाग का इस्तेमाल किया जाना चाहिए ताकि कोई अपने प्यार से की हुई उम्मीदों के टूटने से ना टूटे पर फिर अपनी इस सोच पर खुद ही मुस्कुरा देती है क्यूंकि जहा तर्क होते हैं वहा प्यार कैसे  हो सकता है बस विश्वास होता है जो या तो मजबूत होता है या बार बार टूटकर अगली उम्मीद की नीव पर फिर खड़ा हो जाता है.और बस ये सोचते ही उसकी खुले आकाश में उड़ना भुलाकर पिंजरे में रहना भला लगने लगता है . सच है प्रेम तो प्रेम है इसमें कोई तर्क नहीं होता......

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी(चित्र गूगल से साभार )

Sunday, October 2, 2011

बस यूं ही bas yun hi


मुझे खुद से बस एक ही तकलीफ रहती है
तू जब सामने नहीं होता तभी करने को बातें खूब रहती है

मैं तुझसे दूर रहकर भी अकेले चल ही लेती हू
पर तेरा साया नहीं होता तभी दुखों की धूप रहती है
तेरे बिन ज़माने की बातें  सुनना हो जाता है मुश्किल
तेरे होने से जिंदगी थोड़ी महफूज रहती है

बदलते वक़्त के संग मोहब्बत के रंग बदल गए
बदल जाएगा ये मौसम यही उम्मीद रहती है

किसी को दर्द देने के बहाने  लाख होते है
थोड़ी सी मुस्कराहट देकर देखो  ख़ुशी महफूज रहती है

हमेशा ना ही करना सबसे आसान पहलु है
एक कदम तो बढाओ कदमो  में जन्नत रहती है


कोई किसी के बिन नहीं मरता ये कवडा सच है दुनिया का
मगर अपनों के संग ही तो जिंदगी जेसे महबूब रहती  है. 


सिर्फ साँसों का चलना ही अगर जिंदगी की शर्त  बन जाए 
तो मान लो हर शख्श में इक लाश रहती है


आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी