Tuesday, August 2, 2011

एक सच्चा किस्सा -प्रतिक्रिया अवश्य दें

चाहती हू इस बात को मन में ही दबा लू
पर क्या करू बार बार होंठों  पे आने को मचल रही है
अन्दर ही अन्दर जेसे घुटन हो रही है
मन में एक  दर्द सा हो रहा है.....

किस्सा बहुत आम सा है पर बात खास है....आज तक में मानती आ रही थी लड़कियां बहुत आगे बढ़ गई है. पढाई लिखाई ने उन्हें एक समझ दी है ,और ये बात सच भी है ,पर फिर भी कुछ लोग (महिलाए लड़कियां) असी है जिनने  सिर्फ पढ़ा है समझा नहीं चरित्र में उतारा भी नहीं. हमारे मालवा में एक कहावत है " भनियों है पर गुणियों कोणी "(अर्थात पढाई तो की पर उसे गुणों में नहीं उतारा ) ये कहावत हिंदी की उसी कहावत का पर्यायवाची मानी जा सकती है जो कहती है "पढ़े लिखे गंवार ".
ये किस्सा मेरे आस पास किसी के साथ घटित हुआ  और इस किस्से को सुनकर असा लगा जेसे लड़कियां और महिलाएं किस हद तक ओछी सोच रख सकती हैं.महिला सशक्तिकरण ,महिला विकास महिला शिक्षा जेसी सब बातें कुछ देर के लिए खोखली  सी लगने लगी .मन में ना जाने कितने सवाल उठने लगे.....

सच्चा किस्सा है ये पात्रों  के नाम नहीं बताउंगी आप लोगो को पर, जेसा का तेसा आप लोगो को सुना देना चाहती हू नाम पात्र सब बदल रही हू ताकि किसी तरह का कोई विवाद ना हो पर ये सत्यघटना है .हो सकता में ज्यादा प्रतिक्रियावादी हू  इसलिए यहाँ लिख रही हू या ये भी हो सकता है कुछ लोग इस किस्से  को आम बात माने पर मुझे आम बात नहीं लगी...पढ़कर आप लोग ही निर्णय लीजिए की आखिर क्या है ये.

हाँ तो ये किस्सा मेरी एक देल्ही में रहने वाली एम बी ए होल्डर एक प्राइवेट बैंक में कार्यरत सहेली के साथ घटित हुआ .गाव (गाव मतल बहुत छोटा गाव नहीं)से उसके सास ससुर और ३ ननद उन लोगो के पास कुछ दिन के लिए  रहने आए .पढ़े लिखे लोग है.खुद को सबसे ज्यादा समझदार भी मानते है.बाकि सारी  दुनिया को लगभग मुर्ख की श्रेणी में रखने में भी कोताही नहीं करते .बाहरी टिप ताप उनके लिए सब कुछ है एसा कहा जा सकता है.

हाँ तो एक छुट्टी के दिन मेरी सहेली घर में साफ़ सफाई के काम में लगी हुई थी.तभी उसकी ननद की सहेली घर आई जो वही दिल्ली में रहकर पढ़ रही थी .वो सारे बैठकर बातें करने लगे. मेरी सहेली अपना काम भी निपटाती जा रही थी और बातों में भी शामिल होती जा रही थी.तभी मेरी सहेली की सास ने आगंतुक लड़की से पूछा तुम कब शादी कर रही हो? लड़की ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया "घर वाले ढूंढ रहे हैं आंटी जब सही लड़का मिल जाएगा कर लूंगी" सास का जवाब था हाँ बात तो ठीक है.

मेरी सहेली फिर काम में लग गई तभी उसके कानों में आगंतुक की आवाज़ आई "क्या करें आंटी डर लगता है लड़के वाले ना जाने क्यों लड़कियों को प्रदर्शन की चीज समझते है जैसे उनकी ही इच्छाएं है लड़कियों की कुछ इच्छाएं कुछ मन नहीं(उसने एसा क्यों बोला मेरी सहेली नहीं समझी शायद वो किसी के साथ हुए बुरे व्यवहार के लिए बोल रही हो ) मेरी सहेली ने बीच में कहा " हाँ कई लोगो के साथ एसा होता है" .इसी के बीच में मेरी सहेली की तथाकथित पढ़ी लिखी ननद बोली लड़कियां  जाने एसा क्यों सोचती है यार बिचारे लड़के वाले भी तो अपना लड़का देते है ...इस बात की प्रतिक्रिया में आगंतुक ने जवाब दिया "काहे का लड़का देते है सिर्फ कुछ दिन के लिए अपना लड़का बिदा करके देखे तो उन्हें समझ आएगा की आखिर लड़की के माँ बाप का क्या दर्द होता है .और इस बात के जवाब में मेरी सहेली की ननद ने जो जवाब दिया वो चोकाने वाला था उसे सुनकर हर औरत को या तो गुस्सा  आएगा या शर्म आएगी की  इस बात पर की आज के ज़माने में महिलाएं एसा भी इस हद तक भी सोच सकती है "उसने कहा - हाँ तो क्या हुआ शादी करके घर लाते हैं तो उस लड़की को पालते  भी तो है, उसे जिंदगी भर खिलाते भी तो है ".आगंतुक ने थोडा विरोध किया और जब उसे लगा इन लोगो को समझाना मुश्किल है वो जल्दी जाना है बोलकर चली गई.आश्चर्य इस बात का है की मेरी सहेली की सास ने भी बात का विरोध नहीं किया जो खुद को प्रगतिवादी या काहे तो मॉडर्न  बताने से कही पीछे नहीं हटती  बल्कि दबे शब्दों में समर्थन किया .

मेरी सहेली जब मुझे बता रही थी उसकी आँख में आंसू थे बस बोलती जा रही थी बोली कनु देख ना घर बाहर सब काम देखती हू ,पति का हर कदम पर साथ देने की कोशिश करती हू पर देख ना केसी मानसिकता वाले लोग मिल गए है मुझे .हर बात में ये लोग इसी मानसिकता के साथ सोचते है.

बाकि बातें आप लोगो को नहीं बताउंगी क्यूंकि उसके जीवन को सार्वजनिक करने का मेरा इरादा नहीं है में बस इस किस्से पर आप सभी पाठकों की प्रतिक्रियां जानना चाहती हू . किस्से के साथ अपनी भी कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहती क्यूंकि तब क्यूंकि मेंपात्र को स्वयं जानती हू इसलिए शायद अतिश्योक्ति कर दू.आप लोगो को क्या लगता है क्या कहा जाना चाहिए एसी मानसिकता के लोगो को जो खुद को मॉडर्न कहते है पर अपनी बहुओं के लिए एसे विचार रखते है ?

19 comments:

Mohini Puranik said...

यही सोच की कमी है, महिला पुरुष बादकी बात है, दोनों मनुष्य है, इतनी समझ अभी भी लोगोंमे नहीं हैं| अगर वह बहेनजी पालने और खाने पिलाने का हिसाब करें तो सृष्टि की निर्माता हर जननी क्या बोलें? बच्चे का भी भाव करें| क्षमा करियेगा मैं जरा तीखे शब्द बोल रही हूँ| पर ऐसी मानसिकता के लिए हम और क्या बोल सकतें हैं?

फिर तो दहेज भी जायज़ ही होगा इनके हिसाब से| फिर विवाह एक संस्कार है या व्यापार?

अगर आपने सामने बात होती तो मुझे पता है, मुझे और भयानक उत्तर मिलते ऐसे लोगों से| यह मैंने अपने आस पास काफी देखा है|

महिलओने अपनी सोच स्वतन्त्र करनी चाहिए, तभी शिक्षा का उपयोग होगा|

SANDEEP PANWAR said...

सोच अपनी-अपनी।
तभी तो एक ही परिवार में दो बहुएँ, सास व बहु अगर तालमेल विचारों का न हो तो महाभारत का मैदान बना देती है।

Acupressureindia said...

बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ/ शुभकामनायें!!

Anonymous said...

Wichaaraneeya post..bahut umda..
swagat hai aapaka mere blog par..
http://sureshilpi-ranjan.blogspot.com

Saru Singhal said...

We live in a hypocrite society. This is nothing. I have witnessed people saying demeaning things to their daughter-in-laws. The worst part is that the so-called high society people are more backward. But, one thing is for sure, sister-in-laws have a big mouth. They forget that they are females too.

S.N SHUKLA said...

कनु जी
बहुत सुन्दर पोस्ट और उतनी ही सुन्दर प्रस्तुति भी , अच्छा लगा

प्रवीण पाण्डेय said...

अपनी अपनी सोच है, मिलकर परिवार बनता है।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह भई वाह! बहुत ख़ूब

डॉ. मोनिका शर्मा said...

यह सोच अफसोसजनक है.... पर हमारे परिवेश का सच भी है....

kanu..... said...

is post par pratikriya dene ke lie aap sabhi ka hardik dhanyawad.aap sabhi ki baat se sahmat hu.parivaar sab logo ke milne se hi banta hai.....

Dorothy said...

सार्थक एवं सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
सादर,
डोरोथी.

kanu..... said...

नवागंतुकों का ब्लॉग में स्वागत है .डोरोथी जी कमेन्ट के लिए धन्यवाद्

Bharat Bhushan said...

किसी की जीवन शैली पर क्या टिप्पणी की जाए. हम स्वयं बहुत सी बातें ठोकरें खा कर सीखते हैं. परिवार की शांति सब से बड़ी चीज़ है.

Sunil Padiyar said...

Agree with you Kanu. The thought process of some people has not developed yet. There are even worst cases than what you have mentioned (though you haven't mentioned the complete story...) And interestingly, this thought is more with the people who have a son.. not with people who have daughters.. . (By people I meant - women... though they belong to the same gender!)

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

कनु जी,ठीक ऐसी ही बातें मुझे भी खटकती रहती हैं.....जब तक स्त्री खुद अपनी मानसिकता नहीं बदलेगी....तब तक उसके आसपास उसीके घर में उसीकी किसी रिश्तेदार के साथ किसी-ना-किसी किस्म का अत्याचार होता ही रहेगा....और अपनी चुप्पी से वो भी इस अत्याचार में भागीदार बनी रहेगी.....!!

kanu..... said...

rajeev ji aapki baat se poori tarah se sahmat hu main.
blog me aapka swagat hai...
bhushan sir,sunil and rajeev sabhi ka dhanyawad

संजय भास्‍कर said...

उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बधाइयाँ

suvarna said...

कनु जी, पहली बार आपका ब्लॉग पढने का अवसर मिला, अच्छा लगा. आपको बधाई. ये प्रस्तुति भी बहुत अच्छी है. और सच्ची भी. ये सच है परिवार सबसे बनता है फिर अपेक्षाओं का बोझ एक पक्ष पर ही क्यों होता है? क्षमता, ममता, सामर्थ्य, धैर्य सब मे अव्वल पर फिर भी समानता की लडाई? कब तक चलेगा ये? माँ पर आपकी कविता अच्छी लगी, मेरे ब्लॉग पर 'बिटिया' पढियेगा, जो मैने अपनी बिटिया के लिए लिखी है, शायद अच्छी लगे.
http://lamhalamhazindagee.blogspot.com

nikhil arya said...

खूबसूरत अंदाज़ और प्रस्तुति. अच्छा लगा आपको पढकर. कभी हमारे शब्दों पर भी नज़र डालें. nikhilkcin.jagranjuncgtion.com