Monday, January 20, 2014

इतिहास में स्त्री की झूठी भूमिका

 हमें नहीं चाहिए इतिहास की उन किताबों में नाम
जिनमें त्याग की देवी बनाकर स्त्री-गुण गाए जाए
त्याग हमारा स्त्रिय गुण है जो उभरकर आ ही जाता है
पर इसे बंधन बनाकर हम पर थोपने का प्रपंच बंद करो......

नहीं चाहिए तुम्हारी झूठी अहमतुष्टि के लिए अपनी आत्मा से प्रतिपल धिक्कार....
तुम अपने आहत अहम के साथ जी सकते हो पर हम बिखरी आत्मा के साथ नही....
तुम अगर नर हो तो हमारे जीवन में नारायण का किरदार निभाना बंद करो....

ये सारे घटनाक्रम जो कल इतिहास में लिखे जाने हैं
लिखे जाएंगे तुन्हारे अनुयायियों द्वारा, तुम्हारे गुणगान के लिए
हमेशा की तरह किसी द्रोपदी को महाभारत का कारण सिद्ध करते हुए...
या किसी सीता पर किए गए अविश्वास को धर्म का चोगा पहनाते हुए...

तुमहारे इतिहास के पदानुक्रम में हमें ऊपर या नीचे
कहीं कोई स्थान नहीं चाहिए
हम अपने हिस्से के पन्ने स्वयं लिख लेंगे .....
हो सकता है उन्हें धर्मग्रंथ का मान न मिले
पर तुम्हारे इतिहास में मानखंड़न से बेहतर है
अपनी क्षणिकाओं में सम्मान के साथ लिखा जाना.....
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

11 comments:

Anju (Anu) Chaudhary said...

सच में ....थोपी हुई मान्यताओं को अब तोड़ना ही होगा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (21-01-2014) को "अपनी परेशानी मुझे दे दो" (चर्चा मंच-1499) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्रवीण पाण्डेय said...

हम वर्तमान को ही संतुष्ट कर लें, वही बहुत है।

रविकर said...

बहुत बढ़िया
आभार आपका-

संजय भास्‍कर said...

मान्यताओं को तोड़ना ही होगा

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

इतिहास में हों या साहित्य में... एक बन्धन ही तो है इनमें बँधकर या क़ैद होकर रह जाना... आवश्यकता है उस कारा को तोड़ने की... लेकिन "हम अपने हिस्से के पन्ने स्वयम लिख लेंगे" ऐसा क्यों.. एक बन्धन से निकलकर दूसरा बन्धन क्यों स्वीकार करना..!!
बनना है तो प्राणवायु बनो... जिसे कोई बाँधकर नहीं रख सकता... फिर भी वो जीवनदायिनी है... मुक्त है!!
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति!!

वाणी गीत said...

सुननी है अब साथ चलने की कहानी !!
बहुत बढ़िया !

Amrita Tanmay said...

हाँ , खुद लिखना है इतिहास।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

दूसरों का मुंह ताकने से बेहतर है अपना हाथ-पैर चलाना। सफलता यहीं से मिलती है। किसी और को अपनी नियति तय करने की अधिकार मत दो। नियति खुद बदल जाएगी।

अच्छी पोस्ट।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

बहुत सुंदर !!

ओंकारनाथ मिश्र said...

समय की ज़रुरत भी यही है कि इतिहास के उन पन्नों का अस्तित्व हटाया जाय तो सौद्येश्य लिखे गए अपने हाथ में कमान लेने के लिए. सुन्दर रचना.