Friday, October 18, 2013

हत्यारे हो जाने से विधर्मी कहलाने में भले ......


तुम लाशों के ढेरों पर तिलक लगाकर खुश होगे
या खून की नदियों को अज़ान सुनाकर खुश होगे
तुम धर्म के रंगों से मरघट में होली खेलोगे
या बच्चो के सर से माँ का आँचल चुराकर बहलोगे


तुम संगीत की ध्वनि में करूणा का रस भर दोगे
या बचपन के कन्धों पर बारूद की बोरी धर दोगे
तुम सावन की बूंदों  में जहर की धारा  घोलोगे
जब बोलोगे तब बस नफरत की बोली बोलोगे

तुम धर्म की ठेकेदारी में जीवन को कमतर समझोगे
प्रेम और अपनेपन  के बंधन को कमतर समझोगे
तुम आत्मप्रशंसा में सारी दुनिया में परचम फैला दोगे
जो खून बहा है रास्तों में उसका  जवाब कहाँ दोगे ?

हम धर्म की नहीं ,ठेकेदारों के अंधत्व की निंदा करते हैं
आस्था के ,अपनत्व के हत्यारों की निंदा करते हैं
गर यही धर्म है यही नीति तो हम हाथ छुड़ाकर लो चले
हत्यारे हो जाने  से विधर्मी कहलाने में भले ......

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

10 comments:

Madan Mohan Saxena said...

सुंदर रचना , शुभकामनाएं

Unknown said...

भावपूर्ण रचना |

मेरी नई रचना:- "झारखण्ड की सैर"

Smart Indian said...

एकदम सच्ची बात!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बेहतरीन भावपूर्ण सुंदर रचना !

RECENT POST : - एक जबाब माँगा था.

दिगम्बर नासवा said...

सच कहा है ...
धर्म तो ये नहीं ही हो सकता कभी ...

Pallavi saxena said...

सही है, हत्यारा हो जाने से तो लाख गुना अच्छा है विधर्मी हो जाना...

प्रवीण पाण्डेय said...

गहरी पीड़ा व्यक्त करती रचना..

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

हम्म्म! बात गहरी है और दर्द भरी भी। पता है कनु ! तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने धर्म को एक हथियार बना दिया है। एक ऐसा हथियार जिसे निरीह लोगों को ख़ून से रंग देने की कुशलता के साथ बनाया गया है । मानवजन्य धर्म आज के सभ्य समाज के सबसे बड़े कलंक हैं। मनुष्य का स्वाभाविक धर्म लोगों को जोड़ता था आज के धर्म सिर्फ़ खून की बात करते हैं ।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

कनु जी! शब्द "विधर्म" और "अधर्म" पर एक बार पुनः चिंतन कीजियेगा।

Saras said...

कनु जी ....हर शब्द वितृष्णा में डूबा हुआ..हर भाव ज़हर में बुझा हुआ .....वाकई ...सशक्त .सार्थक रचना