Friday, November 18, 2011

मैं क्या करूँ

तुम मुझसे दुनियादारी की उम्मीद करते हो
मेरी मोहब्बत दुनियादारी ना माने मैं क्या करूँ   ?

तुम कहते हो तुममे ,मुझमे कुछ फासला रखो
मेरा मन तुम्हे खुद से अलग ना जाने  मै क्या करू ?

तुम कहते हो बचपना छोड़ो ,संजीदगी लाओ
तुम्हारे प्यार की तरह मेरा बचपना भी ना जाए मैं क्या करू ?



तुम कहते हो इतना प्यार नहीं अच्छा
पर ना चाहूँ तो  भी दिल तुम्हे चाहे मैं क्या करू?

तुम सागर से गंभीर  मै नदिया सी तरंगिनी
ये तरंगे तुम्हारी गंभीरता से डर जाए मै क्या करू ?

तुम्हे आकाश बनना है मुझसे  धरती सी उम्मीदें है
पर धरती  सा धीर मुझमे ना आए मै क्या करू ?

तुम्हारा सारी दुनिया से मिलना है मेरे लिए एक बस तुम हो
मेरा हर पल बस तुममे ही गुज़र  जाए में क्या करू.....?

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

21 comments:

सदा said...

वाह ....बहुत खूब कहा आपने ... बेहतरीन ।

Yashwant R. B. Mathur said...

यह पंक्तियाँ बहुतों की मनोदशा को शब्द दे रही हैं।
एक एक पंक्ति अपनी बात को ब-खूबी बयां करती है।

सादर

Nirantar said...

दर्द-ऐ-दिल को
मन से
बयां किया आपने
दीवानगी का
सबूत दिया आपने




कई मुकाम आते मोहब्बत में
दूर नहीं रह पाता इंसान
मंजिल-ऐ-मोहब्बत के खातिर
कुछ भी कर सकता इंसान

Rajesh Kumari said...

dil ki gaharaaiyon se nikli kavita.bahut achchi lagi.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बहुत खूब।

Sunil Kumar said...

ख्याल बहुत अच्छे है आखिरी शेर में अल्फाज़ की बंदिश पर ध्यान दें , कुल मिला कर अच्छी ग़ज़ल , मुबारक हो

Pallavi saxena said...

तुम्हारी लेखनी की तारीफ में मुझे समझ न आय मैं क्या लिखूँ :-)हमेशा की तरह सुंदर रचना ....

POOJA... said...

bahut badhiya Ghazal...
koshishe hi kaamyaab hoti hain...
zari rakhen...

रश्मि प्रभा... said...

tumhari gambheerta se meri tarangen darr jayen to ... bahutbadhiyaa

प्रवीण पाण्डेय said...

न जाने कितनी बातों में हमारा बस नहीं चलता है।

Udan Tashtari said...

अच्छी ग़ज़ल ..बहुत खूब।

Atul Shrivastava said...

'तुम सागर से गंभीर... मैं नदिया सी तरंगिनी...'
वाह बेहतरीन प्रस्‍तुति।

sushila said...

दिल के भाव उमड़ पड़े कागज़ पर । पढ़कर आनन्द आ गया। हम सब कभी ना कभी ह्रिदय की ज्वार-भाटा में गोते लगाते ही हैं । मैं तो यही कहूँगी -

बरबस खिंचा जाता है
हाथों से छूटा जाता है
मुझसे बागी हो जाता है
उस से राज़ी हो जाता है
क्या इंतज़ार में पाता है
क्यों खुद को भरमाता है !"
सुशीला श्योराण

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ... प्यार और बचपना दोनों आठ ही रहें तो अच्छा है ... बहुत उम्दा लिखा है ...

Smart Indian said...

सुन्दर कविता, यह भी होता है और वह भी।

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर भावों को संजोया है।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

मोहब्बत की इंतहा को खूबसूरती से बयां किया है.

अनुपमा पाठक said...

हर बात वश में नहीं होती...!
सहज अभिव्यक्ति!

प्रेम सरोवर said...

आपके पोस्ट पर आकर अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट शिवपूजन सहाय पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद

Unknown said...

bahut sundar rachana;;;;
padh kar accha laga;;

Anonymous said...

Hehe, the post took quite a while to read but it sure worth it