Tuesday, April 1, 2014

परिक्रमा शब्दों की :परवाज़

कई दिनों से कुछ लिखा ही नहीं जिसे यहाँ औसत किया ये कुछ  टुकड़े है कविताओं के  बस जो फेसबुक पर बिखरे थे समेत लाई हूँ …
1. नज़दिकियां बढ़ी तो पता चला आसमां भी तंगदिल होता है...
   कितने छोटे थे वो लोग जो सर पर साये की तरह थे 


2. मैं तेरे नाम को हज़ार जगह लिखती हूँ,
पर जो खो गया है लौटकर वापस नहीं आता....
तेरे नाम को हर जगह से मिटाती हूँ, 

पर जो बस गया है वो जाते नहीं जाता

3. ठहरे तो भी दिक्कत जाए तो भी ग़म हो,
तुम दिल के लिए जैसे सावन की तरह हो गए
आबो हवा की तरह अंदाज़ बदलने लगे,
तुम हर बार एक नए मौसम की तरह हो गए

की रश्क भी कैसे करें तेरे आशिकमिजाज़ से
हर चेहरे का अक्स लिए बैठे हो दर्पण की तरह हो गए....
रोक ले कैसे तुम्हें पल्लू से बांधकर ?
हर शीश की शोभा हो तुम चंदन की तरह हो गए...


4. बरसों से तेरे नाम का कलमा नहीं पढ़ा
तू खुद को खुदा मानकर कब तक इतराएगा
जा नाम को तेरे अपने नाम से जुदा किया
तू अपनी खुदाई को अब कैसे बचाएगा
 
  


5.  नींद न आए तो शिकवा करें किससे
कहीं दूर समंदर में सारे ख्वाब गर्क हैं
ये धूप के शहर हैं यहां कैसे मिले कोई
और अब नमी के शहर की नीयत में फर्क है...


6. तू मुल्कों मुल्कों में ढ़ूंढ़ उसे आवारा होकर बादल सा
वो इश्क तुझी में तन्हा था ,बन बैठा था पागल सा
तेरे रस्ते तेरी मंज़िल,सूना रस्ता सूनी मंज़िल
तेरा सब बस इक तेरा था वो रह गया यायावर सा.....

 
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