Wednesday, March 4, 2015

दम लगा के हईशा :तुमसे मिले दिल में उठा दर्द करारा (dam laga ke haisha :movie review)

छोटा सा, शहर गंगा का किनारा, कुछ गलियां  इन गलियों से ही अन्दर की तरफ जाती और छोटी गलियां जिनके दोनों तरफ कुछ घर, बड़ी गलियों में कुछ दुकानें और इन दुकानों में कुमार शानू ...नहीं कुमार शानू खुद नहीं पर उनकी आवाज़ ...और हमारे साथ उस आवाज़ को सुनता आयुष्मान खुराना ...मतलब फिल्म का नायक प्रेम ...और गाना एकदम जबर "तू मेरे इम्तेहानो में" सच कहूँ सुनकर ऐसा  लगा जेसे “अरे कितने दिनों से ये मीठी आवाज़ नहीं सुनी थी , ऐसा  लगा जेसे ओह यार हमें पता भी नहीं चला की हमने इतने दिनों से क्या खो दिया था जो इस फिल्म ने दे दिया ....
मुझे बचपन याद आ गया केसेट रिकार्डिंग  की दुकानें याद आ गई वो लिस्ट याद आ गई जो हम केसेट वाले भैया को देकर आते है गाने भरने के लिए ....दिल का आलम मैं क्या बताऊँ तुम्हे एक चेहरे ने बहुत प्यार से देखा मुझे...., मेरा दिल भी कितना पागल है ...,एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा ,,,,और भी न जाने क्या...

एक बडबोले शाखा बाबु जो खुद शादी करके मजे में है और प्रेम को सारे कुंवारों के महान कामों के उदहारण देते हैं   ,एक इंजीनियरिंग करके आया दोस्त जो तब तक पीछा नहीं छोड़ता जब तक बिचारे दसवी फेल प्रेम को मिठाई नहीं खिला देता अपने पास होने की,एक बुआ एक माँ , कुछ इधर उधर के लोग और एक कद्दावर मोटी बीवी जो सच में सारी छुईमुई हीरोइन वाली छवि को ध्वस्त करती है ....

प्रेम के पिताजी का कहना “ अरे कित्ती बार कहा है ये हैडफ़ोन लगाकर गाने न भरा कर  बीमार हो जाएगा , या दूकान में कुत्ता न घुस जाए ध्यान राखिओ”...जेसे उस ज़माने में लिए जाता है ..ऐसा लगता है यही सब तो होता था बिलकुल ऐसा ही तो सेम टू  सेम ....स्कूटर पर पीछे बैठी बीवी की चप्पल गिर जाना ,ससुराल से प्रेम का भूखा आ जाना और रस्ते में कचोरियाँ खाना , एक सिगरेट का दम भरना और जब संध्या ने कहा आप सिगरेट पीते हो तो बड़ा अकड़  के कहना "हां शराब भी पीता हु डरता थोड़ी हु किसी से" ...फिर धीरे से कहना "अच्छा ये बात घर में मत बताना" ...पति पत्नी के कमरे में जाने पर सास और बुआ का मुह दबाकर हसना ....पति का पत्नी से कहना अपनी पढाई का रोब न झाड़ो ....सब कुछ असा लगता है अरे एक दम सही ऐसा ही तो होता था डिक्टो .....

एक मिनट मुझे लग रहा है लिखते लिखते इतना खो न जाऊ की इस फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट ही लिख डालू ....तो कहानी बताना बंद करती हु वो आप लोग खुद देख आइयेगा पर इतना कह सकती हु ये फिल्म  सच में लम्बे समय के बाद प्यार की महक लेकर आई है ...ये मेट्रो वाला हाई फंडू प्यार नहीं है ,न गाव वाला दबा छुपा डरा घूंघट वाला प्यार ये ऐसा प्यार हे जो शादी से शुरू होता है दिखावे से त्रस्त  आदमी की मजबूरी से गुजरता हुआ तलाक तक जाता है और फिर साथ रहने की मजबूरी से फिर शुरू होकर , अपनेपन ,सपोर्ट की सीढियां चढ़ता हुआ एकदम्मी सच्चे सच्चे पक्के ,गंगा मैया की कसम टाइप प्यार तक जाता है ....

अच्छा वापस से कहानी बताना बंद करती हूँ... हाँ तो फिल्म देखते हुए बार बार लगा जैसे ये फिल्म दिल के उस कोने को छूती है जिसे छूने वाली लिस्ट में बहुत ही कम फिल्मों का नाम लिखा जा सकता है ... एक ऐसे नायक नायिका की कहानी जो अपनी अपनी कमजोरियां जानते हैं लड़का जानता  है वो कम पढ़ा लिखा है लड़की जानती है वो मोटी है सब कुछ परफेक्ट......
ऐसी फिल्म जिसे देखते हुए लगता नहीं की हम कही दूर बेठे हैं सब कुछ अपने आस पास होता दीखता है ,छोटी छोटी चालाकियां,चुहलबाजियाँ ,सब अपना सा लगता है ,एक सीधा सा लड़का जो अपने माँ बाप की बहु को रोक लेने की चालाकियों का खुलासा करता है ,एक पढ़ी लिखी लड़की जो चांटा मरने से भी नहीं डरती और जरुरत पड़ने पर साथ भी निभाती है प्यार करती है तो जताती भी है ...पर मॉड टाइप नहीं है भोली है पर आत्मसम्मान वाली है ...सब कुछ खुद में से गुजरता हुआ सा लगता है ...पता ही नहीं चलता फिल्म गुजर रही है या हम फिल्म में से होकर गुज़र गए....

कुछ रूहानी नहीं ,कुछ कानफोडू नहीं,कोई ड्रामा नहीं ,कोई धमाल नहीं,शादी के ताम झाम नहीं सब कुछ सिंपल और यही चीज़ इस फिल्म को सबसे अलग बनाती है साथ में एक सोशल मेसेज भी की खूबसूरती सिर्फ शरीर से नहीं होती और प्यार इस सब बहुत ऊपर की चीज़ है ..पर कही भी ये मेसेज थोपा हुआ नहीं लगता क्यूंकि इसे किसी आदर्शवादी ढंग से नहीं दिखाया धीरे से बीज बोया गया धीरे धीरे फलने दिया गया ...कोई ज्ञान नहीं आराम से पनपता हुआ प्यार ....

आयुष्मान और भूमि दोनों की एक्टिंग जबरजस्त ,सारे चरित्र अभिनेता अभिनेत्री या साइड एक्टर्स इतनी स्वाभाविक एक्टिंग करते हुए दीखते हैं जेसे कोई दम नहीं लगाया गया हो सब उनकी खुद की भावनाएं है ... ये फिल्म चोपड़ा केम्प ने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे जेसे बड़े केनवास पर नहीं बनाई पर यकीन मानिये इसके रंग उतने ही बेहतरीन है ...राइटर ने बारीक बारीक चीज़ों का ध्यान रखा है और देखकर असा बिलकुल नहीं लगता जेसे राइटर कोई हाई फंडू पेंटिंग बना रहा था ऐसा लगता है जैसे गावों में तीज त्योहारों पर बनाया हुआ मांडना है जिसमे हर चीज सही जगह पर होना ही उसे सबसे बेहतरीन बनाता है ....और कुमार सानु के गाने इस मांडने को बनाते हुए गए जाने वाले लोकगीत ...

फिल्म के लास्ट में एक गाना है तुमसे मिले दिल में उठा दर्द करारा , शूटिंग कपडे सब देखकर लगता है हम पुरानी (ज्यादा पुरानी  नहीं गोविंदा वाली ) फिल्मों के दौर में हैं....और सबसे बड़ी बात फिल्म जब ख़तम होती है तो लगता है अरे ये खत्म क्यों हो गई और बहार निकलते ही पहले शब्द इसे तो एक बार और देखूंगी ...अरे असा नहीं की मुझे समझ नहीं आई एक बार में J बस ये वो फिल्म है जिसे मैं बार बार देख सकती हूँ...

 हाँ बस जब फिल्म देखने गई तब ये दुःख जरूर हुआ की यशराज ने इस फिल्म का थोडा और प्रमोशन क्यों नहीं किया और अच्छे पोस्टर्स क्यों नहीं बनवाए क्यूंकि इस फिल्म को तो सिर्फ डायलोग ,सिर्फ आस पास की घटनाओं के लिए भी देखा जा सकता है ....उस दिन थिएटर खाली थे पर फिल्म के चलने की खबर से में खुश हूँ कुछ फिल्में माउथ पब्लिसिटी से ही चमकती है ....
 

अरे हाँ एक बात और भूमि इसमें सच में प्यारी लगी है 

(रिव्यू कैसा लगा बताइयेगा ):)

3 comments:

Unknown said...

बहुत ही बढ़िया लिखा आपने.. शानदार... लगा जैसे फिल्म सामने घूम रही है। एक दर्शक के रूप में फिल्म की गहरी समीक्षा. . . जिसमें आपने फिल्म की कहानी के साथ साथ सभी पक्षों पर अपनी कलम चलाई है। फिल्म का प्रमोशन अवश्य कम हुआ, किन्तु आज भी ऐसे दर्शक हैं जो तारीफ सुनकर इसे देखने जरूर जा सकते हैं।

Unknown said...

सच में, बहुत समय बाद ऐसी पिक्चर देखी, जिसमें सब कुछ बहुत सिंपल था. ये पिक्चर कनेक्ट कर गयी ऑडियेन्स के साथ. सारे किरदारो ने बहुत बाड़िया रोल प्ले किया. आयुष्मान और भूमि बहुत अच्छे लगे. भूमि तो लाजवाब थी, बहुत सुंदरता से उन्होने पूरा रोल निभाया.

आपके ग्वारा की गयी फिल्म समीक्षा भी बहुत सटीक है कनुप्रिया. आपने सही कहा, कुछ फिल्में माउथ टू माउथ पब्लिसिटी से चलती हैं और ये पिक्चर उन्हीं में से एक है!

Madan Mohan Saxena said...

Bahut sundr kanuji