Tuesday, March 17, 2015

तेरे इस शहर के बच्चे मुझे बच्चे नहीं लगते

उतने मासूम नहीं लगते,उतने कच्चे नहीं लगते
तेरे इस शहर के बच्चे मुझे बच्चे नहीं लगते

जहाँ लगते थे मेले कभी गर्मी की छुट्टी में
उन जगहों को अब झूले अच्छे नहीं लगते

वो सिक्के जो बोए थे कभी नाना के बाग़ में
पूरी जेबें भरे नोट भी उन सिक्को से नहीं लगते

जो लोग दूसरों की गलतियों का तमाशा बना दे
अपने बच्चो के गुनाह माफ़ करे तो सच्चे नहीं लगते

मेरे शहर में लोग ऐसे ही थे जेसे इस शहर में है
लाख कोशिश करू ये लोग मेरे मन से नहीं लगते ...

वहां भी ऐसे घर थे, बाग़ थे दिन और रात थे
परदेस में ये सब भी अपने वतन से नहीं लगते

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

10 comments:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 19 - 03 - 2015 को चर्चा मंच की चर्चा - 1922 में दिया जाएगा
धन्यवाद

Unknown said...

एक सच्ची ग़ज़ल.........
http://savanxxx.blogspot.in

अशोक सलूजा said...

खो गयी मासूमियत को ...खोजती मासूम निगाहे ...
बहुत सुंदर ...शुभकामनायें .

indianrj said...

"जो लोग दूसरों की गलतियों का तमाशा बना दे
अपने बच्चो के गुनाह माफ़ करे तो सच्चे नहीं लगते"

वाह क्या बात कही है।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

क्या बात है !.....बेहद खूबसूरत रचना....

Unknown said...
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Unknown said...


कनु जी आपकी ये कविता बहुत ही रोचक है आपने बहुत ही सलीखे से बता दिया की आज के ज़माने में वो पहले जैसी बात नई रह गयी पहले का बचपन कही खो सा गया है आप इसी प्रकार से अपनी अमूल्य रचनाएं शब्दनगरी पर भी प्रकाशित कर सकती हैं ....

Jhumkabareillyka said...
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Jhumkabareillyka said...

इसे पढ़ूँ ,या इसको महसूस करूँ , या इसमें डूब जाऊ !बस यही मन करता है !
एक एक शब्द ,एक भाव और एहसास सब अपना जैसा लगता है !
अद्भुत लेखन और सोच के लिए अभिनंदन,नतमस्तक प्रणाम !

अजय said...

Umda..