पिछले साल के मुंगडा ओ मुंगडा वाले गणेश इस वर्ष कोई जन्नत की वो हूर नहीं के साथ आए....अजीब लगता है ना सुनकर पर हाईटेक ज़िन्दगी के साथ लोगो ने पहले गणेश जी को हाईटेक बनाया और अब गणेश पंडालों में बजने वाले गाने आपको चौका देंगे गणेश जी भी सोचते होंगे क्या है भाई कुछ तो शर्म करो
मंगलवार रात जब में अपने किचन में खाना बना रही थी बाहर बड़ा शोर था बेन्ड बज रहे थे हल्ला गुल्ला था और फिर आवाजें पास आती गई और बेकग्राउंड में इक गाना गूंजा "जिसे देख मेरा दिल धड़का मेरी जान तड़पती है कोई जन्नत की वो हूर नहीं मेरे कोलेज की इक लड़की है " (फूल और कांटे ) इक बार को तो मन खुश हो गया (मुझे पसंद है ये गाना) लगा लगता है कोई बारात आ रही है फिर ध्यान आया ये तो भक्त लोग अपने प्रिय गणेश जी को पंडाल तक ला रहे हैं थोड़ी देर के लिए बड़ा अजीब लगा क्या है ये? लोग बेसिक मर्यादाएं भी क्यों भूल जाते हैं एसा लगता है जेसे बेन्ड वाले को पैसा दिया है तो पूरा ही वसूलेंगे चाहे उपलक्ष्य कोई भी हो हर तरीके के गाने बजवा लिए जाए और उन पर डांस भी कर लिया जाए पाता नहीं फिर कब नाचना मिले.
शादियों में भी बड़े बूढों की उपस्थति का ख्याल करके फूहड़ गाने नहीं बजवाए जाते पर सार्वजनिक ईश्वरीय कार्यक्रमों में ये सब क्यों ? क्या इश्वर का कोई लिहाज नहीं .... ये तो ठीक है पिछले साल जब गणेश जी आए थे तो गाना था "मुंगडा ओ मुंगडा मैं गुड की डली " सुनकर लगा था हद्द है इश्वर ने लोगो को इक दिमाग दिया है उसका प्रयोग ना करेंगे तो जंग ना लग जाएगा ? या उसे बचाकर क्या इश्वर को वापस देना है की हे इश्वर हम तो इसका प्रयोग कर नहीं पाए पूरा बचाकर ले आए अब आप ही इसका अचार डाल लीजिए ....
इतिहास कहता है पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थपना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। वर्तमान में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।
इतिहास कहता है पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थपना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। वर्तमान में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।
पर हमने इस त्यौहार को क्या रूप दे दिया , इक अलग पंडाल या स्टेज बनाकर विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित करना (जिनमे गीत संगीत प्रतियोगिता भी शामिल हो सकती है ) इक अलग बात है उनका विरोध में नहीं कर रही क्यूंकि ये सार्वजनिक उत्सव है और एसे ही उत्सवों के दौरान बच्चो और बड़ों को प्रतिभा दिखने का मौका मिलता है और कई बार एसी प्रतिभाओं को सही दिशा मिल जाती है पर इस उत्सव में देवता भी सम्मिलित है और उनका लिहाज रखना भी बनता है ...
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा है की जेसे ही गणेशोत्सव समाप्त होता है और गणेश विसर्जन होता है उसके बाद का नदियों तालाबों और समुन्दर का नज़ारा भी देखने लायक होता है प्यार से लाए हुए गणेश जी ठोकर खाते दिखाई देते हैं हर जगह प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की मूर्तियाँ कही गणेश जी की सुंड कही कान दिखाई देते हैं सच में एसा लगता है गणेश जी अपनी किस्मत पर रोते होंगे और दुर्गत पर भी ....इसका एक बेहतर उपाय है इको फ्रेंडली मूर्तियाँ पर लोग उन्हें अपनाते नहीं और सार्वजनिक पंडालों का स्टार तो जेसे गणेश जी मूर्ति के साइज से नापा जाता है जिसकी मूर्ति बेहतर वो पंडाल बेहतर ,वहा चंदा ज्यादा ...और गणेश जी बन गए धंधे का हिस्सा .....
काश लोग एक छोटी इको फ्रेंडली मूर्ति की स्थापना करे और जो पैसा बचे उसका कही बेहतर जगह प्रयोग करे ......तो पर्यावरण भी बेहतर हो और जरूरतमंद की मदद भी....
उम्मीद हे आज नहीं तो कल ताक पर रख दिया गया दिमाग उतारा जाएगा और उसका सही प्रयोग किया जाएगा ताकि एसे सार्वजनिक उत्सव सिर्फ शोर शराबा ना लाएं बल्कि कई जरुरतमंदों के लिए खुशियाँ भी ले आए....
ये लेख मीडिया दरबार और भास्कर भूमि पर भी देखा जा सकता है
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भीये लेख मीडिया दरबार और भास्कर भूमि पर भी देखा जा सकता है
7 comments:
अपने ठीक कहा, आज गणेश उत्सव का स्वरूप ही बदल गया है,इस उत्सव के माध्यम से हमे कला सगीत नाटक आदि की प्रतियोगिता रखकर लोगो को
प्रोत्साहित कर अच्छा संदेश देने की कोशिश करनी
चाहिए,,,,,,,सार्थक आलेख,,,,,,
RECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का
उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
बहुत अच्छा लिखा है आपने शत प्रतिशत सही गणेश विसर्जन से जो जल प्रदूषण होता है ये एक विकट समस्या बनती जा रही है और गणेश जी के साइज की तो होड़ लगी है जब की भावना है तो एक नन्हे से गणेश जी भी पूजे जा सकते है विसर्जन की समस्या कम होगी या दूसरा पर्याय जो आपने बहुत अच्छा बताया की सार्वजनिक मूर्ती स्थापना भी इस समस्या को कम कर सकती है और भगवान् सद बुद्धि दे लोगों को जो पूजा के नाम पर गलत संगीत गलत नाच का कार्यक्रम रखते हैं बहुत अच्छी जानकारी देती हुई पोस्ट के लिए बहुत बहुत बधाई आपको
सामाजिक मान्यताओं को पर्यावरणीय रूप दिया जाये।
Had to tweet this. I ride when I can – but will have to do this all next week. More people certainly should.
बहुत सटीक लेख !
अब कहाँ रहा कोई त्यौहार
बस बची हुई है जीत हार
गणेश जी क्या बेचते हैं
जब आदमी खुद एक
अब हो गया है बाजार !
पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
बेह्तरीन अभिव्यक्ति
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