गुवाहाटी की घटना ने मुझे आहत किया है वेसा आहत नहीं जैसा आम तौर पर लोग हो जाते हैं किसी अपने के साथ दुर्घटना हो जाने पर ..अब हम लोग उतने आहत होते ही नहीं लगता है मीडिया के नकली आंसुओं ने हमें भी कुछ उसी तरह के घडियाली आंसू बहाने ,ना बरसने वाले बादलों की तरह सिर्फ गद्गड़ाने वाला बना दिया है .मैं आहत हू क्यूंकि हम सब एसे हो गए है , मैं आहत हू की आम जनता सिर्फ मूक दर्शक हो गई है ...
ज्यादातर लोग आहत है क्यूंकि कल को जब उनकी बहु बेटियों के साथ भरी सड़क पर एसा होगा तो लोग क्या एसे ही खड़े रहेंगे ज्यादातर लोग अपनी ढपली अपना राग गा रहे हैं . २,४ दिन में शायद लोग भूल भी जाए या कुछ और दिन याद रख ले फिर भूले ...
पर क्या सच बात सिर्फ इतनी है की हम कितने दिन याद रखेंगे या कितनी जल्दी भूल जाएँगे ? अगर बात सिर्फ इतनी ही है बात को करना ही क्यों? क्यों हर जगह गुस्सा दिखाना बोलना या बुरे शब्दों में कहे तो थोड़ी देर भोकना और फिर अपनी रोटी की जुगाड़ में लग जाना ? लगता है ना दिल पर एसी बुरी तुलना क्यों? पर सच मानिये दिल पर लग रहा है ये अच्छी बात है क्यूंकि जिनके दिल पर लग रहा वहा अभी रौशनी की किरण बाकि है ....
मुझे पिछले उन सभी दिनों से लग रहा है जबसे ये घटना हुई है. हर मिनिट हर क्षण लग रहा है पढ़ रही हू देख रही हू सोच रही हू पर ये लगना बंद नहीं हो रहा घबराहट हो रही है अन्दर से....लोग अपनी अपनी अपनी शिकायतें कर रहे हैं किसी को पोलिस से शिकायत है ,किसी को उस भीड़ से शिकायत है जिसने विरोध नहीं किया, कुछ लोग अपनी ढपली लेकर महिलाओं को आत्म रक्षा सिखाने के गीत गा रहे हैं पर मुझे किसी से शिकायत नहीं बस शर्म है जो ख़तम नहीं हो रही शर्म है उस सोच पर जिसने कुंठित होकर घिनोना रूप धारण कर लिया है .
अजीब है ये बात की कुछ लोग लड़की के कपड़ों पर घर आने जाने के समय पर आपत्ति उठा रहे हैं (इसमें महिलाएं भी शामिल हैं) ..अजीब इसलिए नहीं की उन्हें आपत्ति है अजीब इसलिए की एसी सोच लेकर वो जिन्दा है अभी भी ....एसे लोग बार बार सिक्के का दूसरा पहलु देखने की बात कर रहे हैं पर हम लोग कब तक सिक्के का दूसरा पहलु देखने की बात कर करके सिर्फ दूसरा पहलु ही देखते रहेंगे ,कब तक समस्या की जड़ को छोड़कर इधर उधर भटकते रहेंगे?
आहत करती है ये बात की लड़की के छोटे कपडे लडको को एसे कृत्य करने के लिए भड़का सकते है ...ये बात तो मैं मानती हू "दुनिया गोल है पर गोलाइयों से बाहर भी इक दुनिया है", एक खुली साफ़ सुथरी सोच है, ये बात पिछड़ी और संकुचित सोच रखने वाले लोग जाने कब मानेंगे ?
एक लड़का जब बरमूडा पहनकर घर से निकलता है तो शरीर का दिखने वाला हिस्सा होता है २ टांगे, हाड मॉस से बनी हुई और जब एक लड़की वही बरमूडा पहनकर घर से निकलती है तो उन टांगों के साथ एसा क्या दिखता है लोगो को जिसका इतना विरोध है अब इसमें दोष किसका है किसी लड़की का या गन्दी नज़रों का ये सब जानते है पर मानने में उन्हें संस्कृति का हास दिखाई देता है !
क्यों एसे विचार रखने वाले लोग जीभ लपलपाने वाले घटिया और कुंठित लोगो को पागल कुत्तों की तरह बंद कर देने का विचार नहीं रखते? जब पागल कुत्ता राह चलते को काट लेता है तो दोष पागल कुत्ते को दिया जाता है और एक कुंठित मानसिकता वाला इंसान राह चलती लड़की की इज्जत उतारने की कोशिश करे तो दोष लड़की का क्यों?
एसे लोगो को द्रोपदी के चीरहरण का दोष भी द्रोपदी को देना चाहिए... कह दीजिए उसी की कोई गलती रही होगी जो भरी सभा में उसे चीर हरण के लिए लाया गया फिर कृष्ण को उसकी अस्मिता बचाने आने की जरुरत ही क्या थी ?
सिर्फ कुछ अंगों के अलग होने से महिला पुरुषों की भोग की वास्तु मानी जा सकती है क्या हड्डियों के ढांचे पर मांस की मात्रा का अंतर उसे इतना अलग बना देता है की भरी सड़क पर उन अंगों को निर्वस्त्र करने की कोशिश की जाए ?
हम माने या ना माने अंतर सोच का है ना की रहन सहन का ....और उससे भी बड़ा अंतर है सामाजिक पतन का जो बढ़ता जा रहा है ,किसने हक दिया पुरुष नाम के प्राणी को की वो एक खाप पंचायत बनाए और वहा स्त्रियों से सम्बन्धित निर्णय इस तरह ले जेसे वो अपने पालतू जानवरों के लिए निर्णय ले रहे हो ? और अगर वो सच में स्वयं को संरक्षक माने बेठे हैं तो रक्षा कीजिए एसे नज़रबंद मत कीजिए या फिर वो सुरक्षा नहीं कर सकते तो कृपा करके अपना खिताब वापस दे दे या कह दे की महिलाओं को क्या संरक्षित प्राणी घोषित करना चाहिए बाघों की तरह ? अगर यही चाहते हो तो ये भी करके देख लो क्यूंकि बाघ भी बचे नहीं रह सके क्युकी शिकारी की सोच नहीं बदली .....
ज्यादातर लोग आहत है क्यूंकि कल को जब उनकी बहु बेटियों के साथ भरी सड़क पर एसा होगा तो लोग क्या एसे ही खड़े रहेंगे ज्यादातर लोग अपनी ढपली अपना राग गा रहे हैं . २,४ दिन में शायद लोग भूल भी जाए या कुछ और दिन याद रख ले फिर भूले ...
पर क्या सच बात सिर्फ इतनी है की हम कितने दिन याद रखेंगे या कितनी जल्दी भूल जाएँगे ? अगर बात सिर्फ इतनी ही है बात को करना ही क्यों? क्यों हर जगह गुस्सा दिखाना बोलना या बुरे शब्दों में कहे तो थोड़ी देर भोकना और फिर अपनी रोटी की जुगाड़ में लग जाना ? लगता है ना दिल पर एसी बुरी तुलना क्यों? पर सच मानिये दिल पर लग रहा है ये अच्छी बात है क्यूंकि जिनके दिल पर लग रहा वहा अभी रौशनी की किरण बाकि है ....
मुझे पिछले उन सभी दिनों से लग रहा है जबसे ये घटना हुई है. हर मिनिट हर क्षण लग रहा है पढ़ रही हू देख रही हू सोच रही हू पर ये लगना बंद नहीं हो रहा घबराहट हो रही है अन्दर से....लोग अपनी अपनी अपनी शिकायतें कर रहे हैं किसी को पोलिस से शिकायत है ,किसी को उस भीड़ से शिकायत है जिसने विरोध नहीं किया, कुछ लोग अपनी ढपली लेकर महिलाओं को आत्म रक्षा सिखाने के गीत गा रहे हैं पर मुझे किसी से शिकायत नहीं बस शर्म है जो ख़तम नहीं हो रही शर्म है उस सोच पर जिसने कुंठित होकर घिनोना रूप धारण कर लिया है .
अजीब है ये बात की कुछ लोग लड़की के कपड़ों पर घर आने जाने के समय पर आपत्ति उठा रहे हैं (इसमें महिलाएं भी शामिल हैं) ..अजीब इसलिए नहीं की उन्हें आपत्ति है अजीब इसलिए की एसी सोच लेकर वो जिन्दा है अभी भी ....एसे लोग बार बार सिक्के का दूसरा पहलु देखने की बात कर रहे हैं पर हम लोग कब तक सिक्के का दूसरा पहलु देखने की बात कर करके सिर्फ दूसरा पहलु ही देखते रहेंगे ,कब तक समस्या की जड़ को छोड़कर इधर उधर भटकते रहेंगे?
आहत करती है ये बात की लड़की के छोटे कपडे लडको को एसे कृत्य करने के लिए भड़का सकते है ...ये बात तो मैं मानती हू "दुनिया गोल है पर गोलाइयों से बाहर भी इक दुनिया है", एक खुली साफ़ सुथरी सोच है, ये बात पिछड़ी और संकुचित सोच रखने वाले लोग जाने कब मानेंगे ?
एक लड़का जब बरमूडा पहनकर घर से निकलता है तो शरीर का दिखने वाला हिस्सा होता है २ टांगे, हाड मॉस से बनी हुई और जब एक लड़की वही बरमूडा पहनकर घर से निकलती है तो उन टांगों के साथ एसा क्या दिखता है लोगो को जिसका इतना विरोध है अब इसमें दोष किसका है किसी लड़की का या गन्दी नज़रों का ये सब जानते है पर मानने में उन्हें संस्कृति का हास दिखाई देता है !
क्यों एसे विचार रखने वाले लोग जीभ लपलपाने वाले घटिया और कुंठित लोगो को पागल कुत्तों की तरह बंद कर देने का विचार नहीं रखते? जब पागल कुत्ता राह चलते को काट लेता है तो दोष पागल कुत्ते को दिया जाता है और एक कुंठित मानसिकता वाला इंसान राह चलती लड़की की इज्जत उतारने की कोशिश करे तो दोष लड़की का क्यों?
एसे लोगो को द्रोपदी के चीरहरण का दोष भी द्रोपदी को देना चाहिए... कह दीजिए उसी की कोई गलती रही होगी जो भरी सभा में उसे चीर हरण के लिए लाया गया फिर कृष्ण को उसकी अस्मिता बचाने आने की जरुरत ही क्या थी ?
सिर्फ कुछ अंगों के अलग होने से महिला पुरुषों की भोग की वास्तु मानी जा सकती है क्या हड्डियों के ढांचे पर मांस की मात्रा का अंतर उसे इतना अलग बना देता है की भरी सड़क पर उन अंगों को निर्वस्त्र करने की कोशिश की जाए ?
हम माने या ना माने अंतर सोच का है ना की रहन सहन का ....और उससे भी बड़ा अंतर है सामाजिक पतन का जो बढ़ता जा रहा है ,किसने हक दिया पुरुष नाम के प्राणी को की वो एक खाप पंचायत बनाए और वहा स्त्रियों से सम्बन्धित निर्णय इस तरह ले जेसे वो अपने पालतू जानवरों के लिए निर्णय ले रहे हो ? और अगर वो सच में स्वयं को संरक्षक माने बेठे हैं तो रक्षा कीजिए एसे नज़रबंद मत कीजिए या फिर वो सुरक्षा नहीं कर सकते तो कृपा करके अपना खिताब वापस दे दे या कह दे की महिलाओं को क्या संरक्षित प्राणी घोषित करना चाहिए बाघों की तरह ? अगर यही चाहते हो तो ये भी करके देख लो क्यूंकि बाघ भी बचे नहीं रह सके क्युकी शिकारी की सोच नहीं बदली .....
क्या कुछ अंगो को छुपा देने भर से औरत की इज्जत सच में बच जाएगी ? किसने कहा ये बात की इज्जत सिर्फ औरत की होती है जेसी इज्जत औरत की होती है ठीक वही इज्जत आदमी की भी होती है अंतर बस इतना है की औरत की इज्जत का एसा हव्वा बनाया जाता है की वो अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा उस इज्जत को बचाने के बारे में सोचने में लगा देती है और आदमी उसे लूट लेने के बारे में सोचने में ...
मीडिया को दोष देना थोडा बनता है क्यूंकि उनके लिए जब तक कोई खबर टी आर पी बढ़ने वाली होती है वो महिला का अंग अंग जूम करके केमेरा में दिखाएंगे और जेसे ही वो टी आर पी कम हुई वो दूसरा कोई किस्सा ढूंढ लेंगे जूम करने के लिए पर हम लोग कब तक इस पेन ,जूम ,लॉन्ग शोट में उलझे रहेंगे हमारी अपनी आत्मा नहीं कहती विरोध करो ख़ुद विरोध करो,क्या महिलाओं की ख़ुद की आँखों की शर्म इतनी मर गई है की एसी घटनाओं पर विरोध तक नहीं जाताना चाहती ?
माता पिता के दिए संस्कारों को क्या कहना कोई माता पिता अपने बच्चे को रेप करना नहीं सिखाते पर क्या वो महिलाओं की इज्जत करना भी नहीं सिखा सकते? अगर वो इतना भी नहीं सिखा सकते तो उनकी बात करना ही बेकार है क्यूंकि एसे माता पिता को नवजात बेटियों को नहीं अपने नवजात बेटों को कूड़े के ढेर में फेकने वालों की श्रेणी में मान लेना चाहिए क्यूंकि जब वो मूलभूत बात नहीं सिखा सकते तो जनम देकर वो सिर्फ समाज बिगाड़ रहे है और उनका भविष्य भी अँधेरे की गर्त में ही समझिए...
इतनी बातों के बाद भी अगर ज्ञान चक्षु नाम की चीज या दिल नाम की चीज पर कोई असर नहीं पड़ता तो जाइये वापस अंधेरों में और खोज लाइए कुछ और कुतर्क में इंतज़ार करुँगी ...क्यूंकि महिलाओं के पास ज्यादा रास्ते नहीं है या तो अब विरोध के लिए उठ खडी हो या दबती जाए कुचलती जाए और शरीर की गोलाइयों वाली सोच में ख़ुद को और अपनी सोच को भी कैद कर लें ...
(शीर्षक निखिल आनंद गिरि की जल्दी ही पोस्ट होने वाली कविता से प्रेरित )
मीडिया को दोष देना थोडा बनता है क्यूंकि उनके लिए जब तक कोई खबर टी आर पी बढ़ने वाली होती है वो महिला का अंग अंग जूम करके केमेरा में दिखाएंगे और जेसे ही वो टी आर पी कम हुई वो दूसरा कोई किस्सा ढूंढ लेंगे जूम करने के लिए पर हम लोग कब तक इस पेन ,जूम ,लॉन्ग शोट में उलझे रहेंगे हमारी अपनी आत्मा नहीं कहती विरोध करो ख़ुद विरोध करो,क्या महिलाओं की ख़ुद की आँखों की शर्म इतनी मर गई है की एसी घटनाओं पर विरोध तक नहीं जाताना चाहती ?
माता पिता के दिए संस्कारों को क्या कहना कोई माता पिता अपने बच्चे को रेप करना नहीं सिखाते पर क्या वो महिलाओं की इज्जत करना भी नहीं सिखा सकते? अगर वो इतना भी नहीं सिखा सकते तो उनकी बात करना ही बेकार है क्यूंकि एसे माता पिता को नवजात बेटियों को नहीं अपने नवजात बेटों को कूड़े के ढेर में फेकने वालों की श्रेणी में मान लेना चाहिए क्यूंकि जब वो मूलभूत बात नहीं सिखा सकते तो जनम देकर वो सिर्फ समाज बिगाड़ रहे है और उनका भविष्य भी अँधेरे की गर्त में ही समझिए...
इतनी बातों के बाद भी अगर ज्ञान चक्षु नाम की चीज या दिल नाम की चीज पर कोई असर नहीं पड़ता तो जाइये वापस अंधेरों में और खोज लाइए कुछ और कुतर्क में इंतज़ार करुँगी ...क्यूंकि महिलाओं के पास ज्यादा रास्ते नहीं है या तो अब विरोध के लिए उठ खडी हो या दबती जाए कुचलती जाए और शरीर की गोलाइयों वाली सोच में ख़ुद को और अपनी सोच को भी कैद कर लें ...
(शीर्षक निखिल आनंद गिरि की जल्दी ही पोस्ट होने वाली कविता से प्रेरित )
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी.
16 comments:
"माता पिता के दिए संस्कारों को क्या कहना कोई माता पिता अपने बच्चे को रेप करना नहीं सिखाते पर क्या वो महिलाओं की इज्जत करना भी नहीं सिखा सकते? अगर वो इतना भी नहीं सिखा सकते तो उनकी बात करना ही बेकार है क्यूंकि एसे माता पिता को नवजात बेटियों को नहीं अपने नवजात बेटों को कूड़े के ढेर में फेकने वालों की श्रेणी में मान लेना चाहिए "
इन विचारों से पूरी तरह से सहमत।
सादर
अच्छा या बुरा कुछ भी कोई इंसान मां के पेट से सीख कर नहीं आता और न ही उसे इस दुनिया में सिखाए जाते हैं.....
हां अच्छाई सीखने के मौके इंसान को कदम कदम पर मिलते हैं, पर अफसोस वह इन कदम कदम पर मिलने वाली सीखों से परे जाकर उन बुराईयों की ओर खींचता चले जाता है तो न सिर्फ हमारी संस्कृति में वर्जित है, बल्कि सभ्यता की दृष्टि से भी ठीक नहीं......
गुवाहाटी की घटना एक अकेली घटना नहीं है... आए दिन इस तरह की घटनाएं होते रहती हैं और ये सारी घटनाएं हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति पर ही सवालिया निशान खडे करने का काम करती हैं.......
महिलाओं को लेकर ये सोच मन में डर भर देता है....
उस दिन की घटना में भी जो शामिल रहे होंगे उनकी मां होगी, स्वाभाविक है.... बहन हो सकती है.... बेटी भी हो सकती है..पर उनने उस लडकी में काश एक पल के लिए भी उनका अक्श देख लिया होता तो ये घटना नहीं होती......
गंभीर विषय पर बेबाक लेखन......
अब हल तो खुद ही ढूँढना होगा
मुझे तो सिर्फ सारा खेल सोच का लगता है सोच बदलेगी तभी कुछ होगा। वरना कुछ नहीं हो सकता इस समाज का। क्यूंकि यहाँ खुली मानसिकता रखने वालों की तुलना में संक्रीर्ण मानसिकता रखने वाले लोग अधिक हैं। जो हर बात को केवल अपने नज़रिये और अपने हालातों अर्थात(उनके आस-पास का माहौल) कैसा है, के आधार पर देखते हैं। और उसी आधार पर अपनी राय देते हैं। इसलिए कोई कपड़ों को देखता है, तो कोई समय को....जिसको जो दिखता है, वो वही कहता है। इस मामले में क्या और कितना सच है, यह कहना भी मुश्किल है क्यूंकि मीडिया ने इसे बहुत बढ़चढ़ कर दिखाया है। फिर वहज चाहे TRP ही क्यूँ न रही हो। इस घटना के लिए किसी भी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सभी कहीं न कहीं जिम्मेदार है चाहे सामाजिक सोच हो,चाहे वो लोग जिन्होंने ऐसा किया, कहीं न कहीं वह लड़की भी और मीडिया तो है ही, उसके साथ-साथ हमारी पूरी कानून व्यवस्था हम किसी एक को दोषी मानकर नहीं चल सकते।
बरसों पहले साहिर साहब की लिखी और फिल्म प्यासा की नज़्म याद आ गयी ......
ये गलियां ,ये कूंचे ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिंद पर उनको लाओ ....???
हमसबको ...
शुभकामनायें !
शर्मनाक....... काश दिन बदले!!!
बिलकुल सत्य है. लेकिन सर जिसके कपडे जो ही पहने तो अच्छा हे, आजकल लडकिय लडको से भी ज्यादा फित्तिंग कपडे पहनकर या अपना देह प्रदर्शन कर लडको को अपनी और आकर्षित करती हे, ये खरी बात हे जिसपर आसानी से किसीको यकीन होगा नहीं, यदि bharat में लडकिया जींस टीशर्ट पहनना छोड़ दे तो में ये कहूँगा की हिंदुस्तान के हालत सुधर सकते हे, आजकल की लडकिया अपने आप में बहुत भाव खाने लगी हे, खुच ही लडकिया सही होगी बाकि हालत बहुत ख़राब हे. टीशर्ट, लेगी, पजामा, आदि में बहार आना आजकल आम बात हे. खैर....
हल नज़र नहीं आता... सशक्त लेखन
सही कह रही हैं आप .अपराध तो अपराध है और कुछ नहीं ..
गजब की प्रतिक्रिया है ये शर्मनाक घटना पर.... लेकिन कई बातों पर अभी और चिंतन की जरुरत है.. इस तरह के अपराध सिर्फ पुरुष ही नहीं कर रहे, इनमे महिलाएं भी शामिल है.. इसलिए सारा दोष पुरुषों को देकर हल तलाशा जायेगा तो निराशा ही हाथ लगेगी...
lokendra singh rajput ji me aapki baat se sahmat hu me stri ya purush ko doshi nahi manti har us prani (stri ,purush ya aur koi ) ki SOCH ko dohi manti hu jo kunthit mansikta se grast hai.
कैसे परिवारों और किस तरह के लडके ऐसा करते हैं यह एक ख़ास विचारणीय बिंदु है !
गंभीर और विचारणीय पोस्ट .लिखती रहे
सोच सिर्फ विचारों का है,,,
गंभीर विषय पर सटीक लेखन....
RECENT POST ...: आई देश में आंधियाँ....
यह मानसिकता दुखी करती है।
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