तुम अट्टालिकाओं के चन्द्रमा हो सकते हो जिसकी चांदनी छन छन कर रूपगर्विकाओं के आँचल पर सोंदर्य की वर्षा करे! पर मेरे लिए तुम चाँद की खुरचन की तरह हो जिसका कण कण आत्मा को शीतल कर दे ,सारी दुनिया के लिए प्रेम भरे गीत हो सकते हो जो होंठों पर आते ही मन को श्रृंगार रस से भर दे पर मेरा मन तो तुम्हे विरह गीत की तरह अंतर्मन में उतार लेना चाहता है नहीं चाहता तुम्हे गुनगुनाना ,अगर गुनगुना लिया तो शब्द हवा में फेलकर जाने कहा तक पहुँच जाएँगे और दूर तक की हवा आद्र हो जाएगी.
इसमें मेरा ही स्वार्थ निहित है कैसे तुम्हे सारी दुनिया में गाकर अन्य होंठों को तुम्हारा स्पर्श करने दू ? .
तुमसे सबकी आशा हो सकती है की तुम कीचड में कमल की तरह खिलो पर मेरा प्रेमी मन तुम्हे कष्ट भरी दुनिया में नहीं देख सकता चाहे दुनिया के भले के लिए ही पर में तुम्हारे कीचड में उतर जाने की कामना कैसे करू ? तुम आत्मा का दर्पण बन जाना चाहते हो ,पर जानते हो ना इतना पवित्र और स्वच्छ हो जाना तुम्हे मुझ से दूर कर देगा क्यूंकि मेरे आत्मा तुम्हारे प्रेम के मोह में पड़ी हुई है और और इक निर्मोही आत्मा ही इतनी पवित्र हो सकती है बताओ तो भला मै तुम्हारे पवित्र हो जाने के लिए अपना प्रेम कैसे न्योछावर कर दू....?
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
इसमें मेरा ही स्वार्थ निहित है कैसे तुम्हे सारी दुनिया में गाकर अन्य होंठों को तुम्हारा स्पर्श करने दू ? .
तुमसे सबकी आशा हो सकती है की तुम कीचड में कमल की तरह खिलो पर मेरा प्रेमी मन तुम्हे कष्ट भरी दुनिया में नहीं देख सकता चाहे दुनिया के भले के लिए ही पर में तुम्हारे कीचड में उतर जाने की कामना कैसे करू ? तुम आत्मा का दर्पण बन जाना चाहते हो ,पर जानते हो ना इतना पवित्र और स्वच्छ हो जाना तुम्हे मुझ से दूर कर देगा क्यूंकि मेरे आत्मा तुम्हारे प्रेम के मोह में पड़ी हुई है और और इक निर्मोही आत्मा ही इतनी पवित्र हो सकती है बताओ तो भला मै तुम्हारे पवित्र हो जाने के लिए अपना प्रेम कैसे न्योछावर कर दू....?
सच कहती हू तुम्हे शिखर कलश सा देखना मेरे ख्वाबों की दुनिया है . मेरा अपना क्या ? कुछ नहीं .कुछ नीव के पत्थर भी तो चाहिए जो ईमारत को मजबूती दे आधार दें बस मुझे वही बन जाना है तुम्हारे लिए .... पर तुम्हे शिखर कलश बना लेने और तुम्हारी ईमारत की नीव का पत्थर बनकर भी मै तुमसे अपना प्रेम नहीं त्याग सकती ना ही ये मोह त्याग सकुंगी. तुम मुझे स्वार्थी कह सकते हो ये सारा संसार भी मुझे स्वार्थ मै नेत्रहीन हुई जान सकता है परन्तु मै तो बस प्रेम की अंधी हू ,प्रेम की मारी हू .
तुम शांत हो सागर की तरह पर तुम्हारी लहरें मुझे विध्वंस का आभास देती है मै उन्मुक्त हू नदी की तरह पर मेरी धारा शांत है जानती हू ये हमारे व्यक्तित्वों का विरोधाभास है पर तुम सागर हो जाओ ये मैं कैसे स्वीकार करूँ ? मेरी तरह हर नदी की तुम शरणस्थली बन जाओ ये मेरा मोहि मन स्वीकार नहीं करता .काश मै भी तुम्हारी तरह सारे संसार को अपना कर लेना और संसार का अपना हो जाना स्वीकार कर पाती. बताओ तो भला अगर मैं एसी हो जाऊ तो क्या तुम मेरा तुम्हारे जेसा हो जाना स्वीकार कर सकोगे...?
तुम हर बार की तरह मौन हो शायद कुछ कहना नहीं चाहते या शायद तुम्हारा मौन कही शब्द जंगल में अस्तित्व खोज रहा है और मेरी मुखरता ? मेरी मुखरता तो अल्पविरामों और पूर्णविरामों के बीच अपने मायने बदल रही है ना तुम्हारा मौन "शब्द अस्तित्व" पाता है ना मेरी मुखरता अर्थों में बदल पाई है . और हम दोनों की यही स्तिथी वाचालता और घोर शांति दोनों ही स्तिथियों से ज्यादा भयानक है ...
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
11 comments:
मुश्किल लगता है-
आभार ||
"मेरा तुम्हारे जैसा हो जाना स्वीकार कर सकोगे?" गंभीर प्रश्न है. अब तक कहाँ स्वीकार कर सके हैं, इसे वो... कोमल अहसास... शुभकामनाये
प्रेम एकनिष्ठ होना चाहता है सार्वदेशीय नहीं।
एक जैसा होना कठिन हो जाता है..एक दूसरे के पूरक होना सुग्राह्य है..
सुन्दर रचना....
कोमल एहसास......
अनु
दर्द तड़प और बेचैनी के, है इलाज अब सारे
एक दावा इनको भी लिख दो क्यूँ रोयें बेचारे,,,,,
RECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
बहुत ही खूबसूरत रचना आभार
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है
किसी के लिए इतनी तड़प, इतनी बैचैनी .... और उसका मौन ... भावनाओं का संगम है ये पोस्ट ...
बेहतरीन लिखा है आपने
सादर
ऐसा होना मुमकिन तो नहीं
strong expression....
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