ईंट, गारा, मिटटी,सीमेंट ,रेती से बनी चंद दीवारें और इन दीवारों के जुड़ जाने से बना एक मकान, इन मकानों को घर बनाने की जद्दोजहद में उलझे इंसान और इस सब के साथ इन दीवारों में सुराख करती कुछ खिड़कियाँ . खिड़कियाँ जो शायद हवा को अन्दर बाहर करने,रौशनी को कोने कोने में फेलाने के लिए बनाई जाती होंगी कभी. पर अब ये सिर्फ यही काम नहीं करती...अब ये खिड़कियाँ ना जाने कितने छोटे बच्चो को आसमान में उड़ते पंछी दिखाती है, बूढी आँखों को पुराने दिनों की याद दिलाती,ना जाने कितने धड़कते दिलों को सामने वाली खिड़की पर एक और धड़कता दिल देखने का आनंद देती ,इशारों का आदान प्रदान करते देखती होंगी !
हर खिड़की के पीछे की अपनी एक कहानी होती है ,अपने को पर्दों में ढंककर इन खिडकियों को लगता है जेसे ये हर कहानी को अन्दर दफ़न कर लेंगी,ठीक वेसे ही जैसे कब्र दफ़न कर लेती है अपने अन्दर हर तरह के, हर ढंग के ,हर किस्म के इंसान को...पर ये खिड़कियाँ नहीं जानती शायद, कि कब्रें भी नहीं दबा पाती अपने अन्दर सब कुछ. कुछ किस्से, कुछ कहानियां, कुछ बातें और कुछ यादें रह जाती है इंसानों के जाने के बाद भी ,दुसरे इंसानों के जेहन में और ये सिलसिला चलता रहता है हमेशा . ठीक वेसे ही सब कुछ नहीं छुपा पाती ये खिड़कियाँ ,कभी उड़ते परदे,बोलती दीवारें,सूजी ऑंखें, खिलखिलाने की आवाजें वो सब बयां करे देती है जो ये खिड़कियाँ छुपाने की कोशिश करती है....कहते है ना दाइयों से पेट नहीं छुपता वेसे ही कितनी ही कोशिश कर ली जाए खिडकियों के पीछे हर कहानी नहीं छुपाई जा सकती.....कोई ना कोई बात आ ही जाती है बाहर ...
इन खिडकियों से दिखती हैं कुछ बोलती सी आंखें हर रोज सुबह और एक हाथ जो जाने वाले को अलविदा कहता है ,मै अपनी खिड़की से देखती रही हू ये सब. जाने कितनी उम्मीदें होती हैं उन आँखों में की जिसे अलविदा कहा जा रहा है वो जब शाम को आएगा तो ऐसा होगा वेसा होगा ,और साथ में दिखता है कल की उम्मीदों में से कुछ के पूरे ना होने का दर्द.पर नई उम्मीदें पुरानी उम्मीदों को नाउम्मीद नहीं होने देती उन्हें दे देती है एक संबल और ये सिलसिला हर रोज चलता रहता है.....
इन हाथों और आँखों को देखकर मुझे कभी कभी इनके पीछे की आत्माएं अपने अन्दर महसूस होती है. हर बात उनके एंगल से सोचती हू कुछ देर. अभी क्या चल रहा होगा इनके मन में ,क्या उम्मीदें क्या विश्वास लेकर जी रही है ये ,किन अंतर्द्वंदों से जूझ रही होंगी जेसे कई प्रश्न होते हैं उस समय ,ठीक वेसे ही जेसे हर बार अमृता प्रीतम को पढने के बाद उनकी आत्मा उतर आती है शरीर में ....हर बार उन्हें खुद में महसूस करने लगती हू.....उनकी कविताएँ ,उनका दर्द ,उनका प्यार,उनका अलगाव सब खुद में महसूस करने लगती हू.....ऐसा लगता है जेसे कुछ देर के लिए उनने मेरे अन्दर जनम ले लिया और सौप रही है अपनी विरासत मुझे....
इसे मेरी बदकिस्मती कहा जा सकता है की पिछले कई महीनों से जब से ये नया जॉब ज्वाइन किया है मुझे एक बार भी इन खिडकियों से झांककर जाते हुए इंसान को अलविदा कहने का मौका नहीं मिला क्यूंकि मुझे घर से सुबह साढ़े आठ बजे ही निकल जाना होता है और लोकेश १० बजे ऑफिस जाते है ,हाँ जब कभी वो मुझसे पहले ऑफिस जाते हैं में जरुर झांककर अलविदा कहने के लिए खिड़की तक जाती हू पर अब वो सर उठाकर ऊपर नहीं देखते क्यूंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं होती की में खिड़की पर खडी होउंगी....जिंदगी कितनी उलझी सी हो गई है इस भाग दौड़ में....
कभी कभी खुद को लोकेश की जगह पर रखकर देखती हू तो सोचती हू क्या पता शायद उनके मन में भी ये टीस उठती हो , की मैं क्यूँ किसी खिड़की से झांककर उन्हें अलविदा नहीं करती.....क्यूँ मेरा हाथ जाते जाते उन्हें ये संबल नहीं देता की संभल कर जाना,या क्यों मेरी आँखें उनसे ये नहीं कहती की समय से आना मैं इन्तेजार करुँगी.....जब जब खुद को उनकी जगह रखकर सोचती हू तो लगता है मेरी तरह उनके भी कई छोटे छोटे सपने इन खिडकियों के पीछे दफ़न हो रहे हैं....और जब जब ये सोचती हू अन्दर ही अन्दर एक घुटन सी होने लगती है ,ठीक वेसी ही जेसी किसी बहुत बोलने वाले इंसान को दिन भर का मौन व्रत रखने के बाद होती होगी या कम बोलने वाले इंसान को बार बार बोले जाने के लिए कहे जाने पर होती होगी.....हर बार एक बात बड़ी टीस के साथ सर उठाती हैं कि पुरुषों के भी अपने दर्द अपनी तकलीफें होती होंगी जो कह नहीं पाते. कभी पुरुष होने का अहसास उन्हें रोने नहीं देता होगा और कभी ना बोल पाना उन्हें भी उतनी ही तकलीफ देता होगा जितना स्त्री-जाती को देता है....
ये खिड़कियाँ जो खुद तो खामोश रहती हैं पर अपने अन्दर ना जाने कितनी सिसकियाँ ,मुस्कुराहटें,दर्द ख़ुशी सब दबाए बैठी है......शायद इसीलिए लोगों ने परदे लगाना शुरू किया होगा ताकि घर की बातें खिडकियों से बाहर की दुनिया में ना फेल जाए ...पर काश लोग कोई एसा पर्दा भी लगा पाते जो आँखों को बोलने से रोक पाता,भावो को निकलने से ,घावों को उभरने से,दीवारों को कानाफूसी करने से और मन को उड़ने से रोक पाता......या काश ये खिड़कियाँ भी मुखर हो जाती.....या !!! या हमारे मन में भी एक खिड़की होती जिसमे झांककर हम सामने वाले कि कहानी पढ़ पाते,उसके भाव समझ पाते ...पर काश !!!!!!!...................
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
हर खिड़की के पीछे की अपनी एक कहानी होती है ,अपने को पर्दों में ढंककर इन खिडकियों को लगता है जेसे ये हर कहानी को अन्दर दफ़न कर लेंगी,ठीक वेसे ही जैसे कब्र दफ़न कर लेती है अपने अन्दर हर तरह के, हर ढंग के ,हर किस्म के इंसान को...पर ये खिड़कियाँ नहीं जानती शायद, कि कब्रें भी नहीं दबा पाती अपने अन्दर सब कुछ. कुछ किस्से, कुछ कहानियां, कुछ बातें और कुछ यादें रह जाती है इंसानों के जाने के बाद भी ,दुसरे इंसानों के जेहन में और ये सिलसिला चलता रहता है हमेशा . ठीक वेसे ही सब कुछ नहीं छुपा पाती ये खिड़कियाँ ,कभी उड़ते परदे,बोलती दीवारें,सूजी ऑंखें, खिलखिलाने की आवाजें वो सब बयां करे देती है जो ये खिड़कियाँ छुपाने की कोशिश करती है....कहते है ना दाइयों से पेट नहीं छुपता वेसे ही कितनी ही कोशिश कर ली जाए खिडकियों के पीछे हर कहानी नहीं छुपाई जा सकती.....कोई ना कोई बात आ ही जाती है बाहर ...
इन खिडकियों से दिखती हैं कुछ बोलती सी आंखें हर रोज सुबह और एक हाथ जो जाने वाले को अलविदा कहता है ,मै अपनी खिड़की से देखती रही हू ये सब. जाने कितनी उम्मीदें होती हैं उन आँखों में की जिसे अलविदा कहा जा रहा है वो जब शाम को आएगा तो ऐसा होगा वेसा होगा ,और साथ में दिखता है कल की उम्मीदों में से कुछ के पूरे ना होने का दर्द.पर नई उम्मीदें पुरानी उम्मीदों को नाउम्मीद नहीं होने देती उन्हें दे देती है एक संबल और ये सिलसिला हर रोज चलता रहता है.....
इन हाथों और आँखों को देखकर मुझे कभी कभी इनके पीछे की आत्माएं अपने अन्दर महसूस होती है. हर बात उनके एंगल से सोचती हू कुछ देर. अभी क्या चल रहा होगा इनके मन में ,क्या उम्मीदें क्या विश्वास लेकर जी रही है ये ,किन अंतर्द्वंदों से जूझ रही होंगी जेसे कई प्रश्न होते हैं उस समय ,ठीक वेसे ही जेसे हर बार अमृता प्रीतम को पढने के बाद उनकी आत्मा उतर आती है शरीर में ....हर बार उन्हें खुद में महसूस करने लगती हू.....उनकी कविताएँ ,उनका दर्द ,उनका प्यार,उनका अलगाव सब खुद में महसूस करने लगती हू.....ऐसा लगता है जेसे कुछ देर के लिए उनने मेरे अन्दर जनम ले लिया और सौप रही है अपनी विरासत मुझे....
इसे मेरी बदकिस्मती कहा जा सकता है की पिछले कई महीनों से जब से ये नया जॉब ज्वाइन किया है मुझे एक बार भी इन खिडकियों से झांककर जाते हुए इंसान को अलविदा कहने का मौका नहीं मिला क्यूंकि मुझे घर से सुबह साढ़े आठ बजे ही निकल जाना होता है और लोकेश १० बजे ऑफिस जाते है ,हाँ जब कभी वो मुझसे पहले ऑफिस जाते हैं में जरुर झांककर अलविदा कहने के लिए खिड़की तक जाती हू पर अब वो सर उठाकर ऊपर नहीं देखते क्यूंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं होती की में खिड़की पर खडी होउंगी....जिंदगी कितनी उलझी सी हो गई है इस भाग दौड़ में....
कभी कभी खुद को लोकेश की जगह पर रखकर देखती हू तो सोचती हू क्या पता शायद उनके मन में भी ये टीस उठती हो , की मैं क्यूँ किसी खिड़की से झांककर उन्हें अलविदा नहीं करती.....क्यूँ मेरा हाथ जाते जाते उन्हें ये संबल नहीं देता की संभल कर जाना,या क्यों मेरी आँखें उनसे ये नहीं कहती की समय से आना मैं इन्तेजार करुँगी.....जब जब खुद को उनकी जगह रखकर सोचती हू तो लगता है मेरी तरह उनके भी कई छोटे छोटे सपने इन खिडकियों के पीछे दफ़न हो रहे हैं....और जब जब ये सोचती हू अन्दर ही अन्दर एक घुटन सी होने लगती है ,ठीक वेसी ही जेसी किसी बहुत बोलने वाले इंसान को दिन भर का मौन व्रत रखने के बाद होती होगी या कम बोलने वाले इंसान को बार बार बोले जाने के लिए कहे जाने पर होती होगी.....हर बार एक बात बड़ी टीस के साथ सर उठाती हैं कि पुरुषों के भी अपने दर्द अपनी तकलीफें होती होंगी जो कह नहीं पाते. कभी पुरुष होने का अहसास उन्हें रोने नहीं देता होगा और कभी ना बोल पाना उन्हें भी उतनी ही तकलीफ देता होगा जितना स्त्री-जाती को देता है....
ये खिड़कियाँ जो खुद तो खामोश रहती हैं पर अपने अन्दर ना जाने कितनी सिसकियाँ ,मुस्कुराहटें,दर्द ख़ुशी सब दबाए बैठी है......शायद इसीलिए लोगों ने परदे लगाना शुरू किया होगा ताकि घर की बातें खिडकियों से बाहर की दुनिया में ना फेल जाए ...पर काश लोग कोई एसा पर्दा भी लगा पाते जो आँखों को बोलने से रोक पाता,भावो को निकलने से ,घावों को उभरने से,दीवारों को कानाफूसी करने से और मन को उड़ने से रोक पाता......या काश ये खिड़कियाँ भी मुखर हो जाती.....या !!! या हमारे मन में भी एक खिड़की होती जिसमे झांककर हम सामने वाले कि कहानी पढ़ पाते,उसके भाव समझ पाते ...पर काश !!!!!!!...................
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
14 comments:
मकान का सड़क से संवाद का माध्यम है खिड़कियाँ।
behad sundar..
kaash ye khidkiyaan mukhar ho jati....bahut sahi
बहुत ही सुन्दर पोस्ट कनु जी बधाई और शुभकामनाएं
खिड़कियाँ बोलती गयी आपके इस आलेख के माध्यम से और हम सुनते गए...
सुंदर लिखा है!
Kabhi khidki ki zarurat ko aaj se pehle itni shiddat k sath mehsus nahi kia...
Bahut khub.. shadi k baad jab mere 'wo' bahar jayenge.. to ye yaad rakhungi :)
बेहतरीन।
मानवीय संवेदनाओं को खिडकी से जोडकर काफी कुछ कह दिया आपने।
सुंदर.... दिलचस्प।
सुन्दर लगा यह गवाक्ष निबन्ध!
भीतर बाहर की दुनिया को जोडती या अलग करती है ये खिड़कियाँ ...
रोचक !
हमने खिड़की की और इतना ध्यान कभी नहीं दिया पर आपने उसको लेकर कितनी बढिया पोस्ट लिख डाली.......बहुत सुन्दर|
हर एक बात बड़ी तीस के साथ सर उठती है की पुरुषों के भी अपने दर्द अपनी टकलेफ़फेन होती होंगी जो कह नहीं पाते कभी पुरुष होने का एहसास उन्हें रोने नहीं देता होगा और कभी न बोलपाना भी उतनी ही तकलीफ देता होगा जितना की स्त्री जाती हो देता है ....एकदम सही बात काही है आपने न जाने क्यूँ लोग हमेशा स्त्री को ही भावनाओं से जोड़ कर देखते हैं वाकई काश हमारे मन के अंदर भी एक खिड़की होती जिसमें झन कर हम सामने वाले के मन के अंदर उठते मनोभावों को समझ पाते ....बहुत सुंदर विचारों से सजी सच को ब्यान करती खूबसूरत प्रस्तुति .... keep it up!!!
कनु जी ..
छिपाती दिखाती खिड़कियाँ..आलेख पढकर अच्छा
आपमें प्रतिभा है कोशिश जारी रखे....
आपके पोस्ट पर आना बहुत बढ़िया लगा ! मेरे पोस्ट पर आपका निमंत्रण है । बेहतरीन प्रस्तुति!
इनलेट और एक्जास्ट सी होती जा रही है जिंदगियां (विंडो नहीं स्प्लिट), बिना खिड़कियों के.
Post a Comment