ये पोस्ट लिखने का शायद ये सही समय नहीं पर समय का क्या है ये कभी सही कभी गलत नहीं होता शायद, ये तो बस समय होता है हम चाहे तो भी रोक नहीं पाते और चाहे तो भी आगे नहीं बढ़ा सकते .और इस गुजरे हुए समय की कुछ यादें आपको हमेशा हँसाती रुलाती रहती है ,वेसे आंसुओं का भी क्या है आते जाते रहते है कभी ख़ुशी के कभी गम के . पर हर जब भी आते है कोई ना कोई भावना उमड़कर बरस जाती है वेसे भावनाओं का चाल चलन समय जेसा ही है ना जबरजस्ती लाइ जा सकती है ना ही जोर जबरजस्ती से भुलाई जा सकती है ,उमड़ गई तो बरस जाएगी और नहीं तो हम रीते के रीते (ख़ाली ).
आज घर बहुत याद आ रहा है खेर इसमें कोई नई बात नहीं घर तो रोज ही याद आता है पर बात ये है की आज थोडा ज्यादा ही याद आ रहा है.शायद दिवाली गई है ना अभी अभी इसलिए.याद आ रहा है पर लिख क्यों रही हू इसका बस एक ही कारन है लिखना ही एक एसा हथियार है मेरे पास जो मेरी भावनाओं को संयत करने मदद कर सकता है .
हाँ तो बात हो रही थी घर की. आम जिंदगी रही है मेरी पढ़ाकू, कम मस्ती करने वाली गंभीर लड़कियों सरीखी,पर एक ही बात रही है जो शायद अलग रही अन्य लोगो से वो है भावनाओं का अतिरेक.बात बात में रो देना,हसतेहँसते भी आंसू पोछना मेरी हमेशा की आदत रही है .
खेर बात हो रही थी दिवाली की,मेरे घर की दिवाली मुझे जिंदगी भर याद रहेगी इसलिए नहीं की कुछ बहुत ही ख़ास होता था उस दिन, बल्कि इसलिए की मेरी दिवाली सिर्फ दिवाली के दिनों में शुरू नहीं होती थी.अपने कॉलेज केदिनों
से ही मुझे याद है घर में चाहे कोई भी पेंटर आया हो मैंने अपना कमरा किसी को पैंट नहीं करने दिया .हर साल अपना कमरा मैं खुद पैंट करती थी ,रंगों का चुनाव ,कौन सी दिवार पर कौन सा रंग होगा खिड़की पर कौन सा रंग होगा ,कमरे की सेट्टिंग में क्या बदलाव होंगे हर निर्णय मेरा योगदान होता था .
वेसे वो कमरा सिर्फ मेरा नहीं था मेरी छोटी बहन भी उसमे बराबर की हक़दार थी पर रंगों के चुनाव तक सीमित रहना पसंद था उसे दुसरे कामों में मदद जरुर करती थी पर मेरी तरह पुताई करने का काम पसंद नहीं था उसे. मेरे इस शौक पर ज्यादातर मम्मी पापा नाराज होते थे की ये सब लड़कियों का काम नहीं बेटा एसे बड़े स्टूल पर चढ़ना ,पुताई करना क्या जरुरत है ? पर इस सब से मेरी भावना जुडी हुई थी मुझे लगता था मेरा कमरा है अगर इसे मैं खुद सजाऊँगी तो मेरी महक रहेगी साल भर यहाँ .धीरे धीरे मेरी इन भावनाओं को देखकर मम्मी पापा ने भी मना करना बंद कर दिया था.
कोई विश्वास करे या ना करे अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा होने बैंक में जॉब शुरू करने यहाँ तक की शादी के लिए जॉब छोड़ने तक मैं अपने घर में हमेशा से दरवाजों के पीछे दीवारों के कोनो पर बारीक अक्षरों में अपना नाम लिखिती थी और जब डांट पड़ती थी तो कहती थी मम्मा अभी डांट रही हो पर जब चली जाउंगी तब ये सब ही मेरी याद दिलाएँगे .एसा मन करता था की हर कोने में मेरी निशानी हो हर हिस्सा मुझे याद करे .कोई कोना एसा ना रह जाए जहा मेरी निशानी ना हो .
हाँ तो दिवाली के दिन पूरे घर के हर कोने में ,हर कमरे में ,मदिर के सामने ,किचेन में ,सीढ़ियों पर,हर दरवाजे के सामने ,आँगन में,मैं गाते पर हर जगह रंगोली में बनाते थे हम .बेल ,बूटे,छोटीबड़ी आकृति जो बनता जरूर बनाते यहाँ तक की घर के सामने का रोड भी साफ़ करवाकर उसके दोनों तरफ बेल बूटे बना देते थे ,शायद हमारा बस चलता तो पूरा शहर रंग देते पर पूरा घर रंगने में ही लगभग पूरा दिन निकल जाता था .कपड़ों के नएपन से ज्यादा घर के अपनेपन का ख्याल था मुझे और मेरी इन भावनाओं की कदर मेरे घरवालों ने हमेशा की .चेहरे को लीपने पोतने से ज्यादा मैंने दिल की ख़ुशी में विश्वास किया और वो ख़ुशी मुझे मेरे घर से हमेशा मिली भी.
सच है शायद आज घर इसलिए इतना याद आ रहा है क्यूंकि वो सब हुआ उस समय .मेरी शादी भोपाल के उस घर से नहीं हुई बड़ा मन था मेरा की एसा हो पर नहीं हुआ मेरे घर बारात आई नहीं हम लड़कीवाले अपना बोरिया बिस्तर बंधकर मेरे पतिदेव के शहर गए वही से हमारी शादी हुई ,मुझे आज भी याद है रात के ८.३० के लगभग समय हो रहा था जब हम लोग बस में बेठने के लिए उस घर को बंद करके निकल रहे थे किसी ने मेरे हाथ में नारियल दिया और कहा बेटा घर को प्रणाम कर ले फिर पलटकर मत देखना अपशगुन होता है तब कितना रोई थी मैं मन ही मन बस एक ही बात सोची जाती थी की मेरे घर को पलटकर देखना भी अपशकुन हो सकता है क्या ?,एक ही ख्याल आता था मेरा घर मुझसे छूट जाएगा ,और सच मैं एसे ही वो घर मुझसे छूटगया.
इसे नियति का खेल ही कहिये या संयोग की मेरी शादी के बाद ३,४ महीनो में ही मेरे मेरे मम्मी पापा ने भी वो घर छोड़ दिया और सबकुछ बेचकर इंदौर शिफ्ट हो गए .मेरे पापा आज भी कहते हैं तेरा मन था उस घर में इसलिए वहा थे अब यहाँ आ गए .वेसे उस शहर को छोड़ने का प्लान पहले से था पर वो कई सालों से सिर्फ प्लान था मैं वो घर वो शहर छोड़ना नहीं चाहती थी शायद इसलिए वो घर मुझे ना छोड़ता था , जब तक मैं थी वो घर मुझसे छूटता ना था जेसे ही मैंने घर छोड़ा सबसे छूट गया .कभी कभी लगता है वो घर मुझे ना छोड़ना चाहता था जब मैं उसे छोड़ दिया तो उसने सबको छोड़ दिया.खेर वो घर छूटने के साथ ही वो शहर भी छूट गया.वो शहर जहा मैंने अपना बचपन ,लड़कपन सब बिताया अच्छा बुरा नया पुराना,ख़ुशी दुःख हर बात वहा से जुडी है.बहुत याद आता है भोपाल,आज भी मेरे सपनो में वही घर आता है क्यूंकि मेरे लिए तो वही घर है.
वेसे इंदौर वाला घर भोपाल छोड़ने के ३,४ साल पहले ही खरीद लिया गया था इसलिए उस घर से मेरा परिचय काफी अच्छा था आना जाना लगा रहता था पर फिर भी भोपाल वाला घर मेरी यादों में हमेशा रहेगा.शादी के बाद सिर्फ १ बार ही भोपाल वाले घर जाना हुआ ,उसके बाद २ बार इंदौर गई पर इंदौर वाला वो घर सर्वसुविध्युक्त और भोपाल वाले घर से आधुनिक होते हुए भी मेरी स्मृति में वो जगह नहीं ले पाया और शायद कभी ले भी ना पाए.
इस बार दिवाली के पहले जब पापा से बात हुई उनकी आवाज़ में कुछ भारीपन था जिसे वो दबाने की कोशिश कर रहे थे उनने कई बातें की इतना कहा बेटा तू गई रोनक चली गई इस बार पुताई करवाने का मन नहीं कर रहा ,अब किन किन आँखों में आंसू थे ये मैं कह नहीं सकती पर फ़ोन पर बस इतना महसूस हुआ की फ़ोन पर बात कर रहे हम दो लोगो के सिवा इंदौर वाले घर में कुछ और आँखें भी नम थी....
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
आज घर बहुत याद आ रहा है खेर इसमें कोई नई बात नहीं घर तो रोज ही याद आता है पर बात ये है की आज थोडा ज्यादा ही याद आ रहा है.शायद दिवाली गई है ना अभी अभी इसलिए.याद आ रहा है पर लिख क्यों रही हू इसका बस एक ही कारन है लिखना ही एक एसा हथियार है मेरे पास जो मेरी भावनाओं को संयत करने मदद कर सकता है .
हाँ तो बात हो रही थी घर की. आम जिंदगी रही है मेरी पढ़ाकू, कम मस्ती करने वाली गंभीर लड़कियों सरीखी,पर एक ही बात रही है जो शायद अलग रही अन्य लोगो से वो है भावनाओं का अतिरेक.बात बात में रो देना,हसतेहँसते भी आंसू पोछना मेरी हमेशा की आदत रही है .
खेर बात हो रही थी दिवाली की,मेरे घर की दिवाली मुझे जिंदगी भर याद रहेगी इसलिए नहीं की कुछ बहुत ही ख़ास होता था उस दिन, बल्कि इसलिए की मेरी दिवाली सिर्फ दिवाली के दिनों में शुरू नहीं होती थी.अपने कॉलेज केदिनों
से ही मुझे याद है घर में चाहे कोई भी पेंटर आया हो मैंने अपना कमरा किसी को पैंट नहीं करने दिया .हर साल अपना कमरा मैं खुद पैंट करती थी ,रंगों का चुनाव ,कौन सी दिवार पर कौन सा रंग होगा खिड़की पर कौन सा रंग होगा ,कमरे की सेट्टिंग में क्या बदलाव होंगे हर निर्णय मेरा योगदान होता था .
वेसे वो कमरा सिर्फ मेरा नहीं था मेरी छोटी बहन भी उसमे बराबर की हक़दार थी पर रंगों के चुनाव तक सीमित रहना पसंद था उसे दुसरे कामों में मदद जरुर करती थी पर मेरी तरह पुताई करने का काम पसंद नहीं था उसे. मेरे इस शौक पर ज्यादातर मम्मी पापा नाराज होते थे की ये सब लड़कियों का काम नहीं बेटा एसे बड़े स्टूल पर चढ़ना ,पुताई करना क्या जरुरत है ? पर इस सब से मेरी भावना जुडी हुई थी मुझे लगता था मेरा कमरा है अगर इसे मैं खुद सजाऊँगी तो मेरी महक रहेगी साल भर यहाँ .धीरे धीरे मेरी इन भावनाओं को देखकर मम्मी पापा ने भी मना करना बंद कर दिया था.
कोई विश्वास करे या ना करे अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा होने बैंक में जॉब शुरू करने यहाँ तक की शादी के लिए जॉब छोड़ने तक मैं अपने घर में हमेशा से दरवाजों के पीछे दीवारों के कोनो पर बारीक अक्षरों में अपना नाम लिखिती थी और जब डांट पड़ती थी तो कहती थी मम्मा अभी डांट रही हो पर जब चली जाउंगी तब ये सब ही मेरी याद दिलाएँगे .एसा मन करता था की हर कोने में मेरी निशानी हो हर हिस्सा मुझे याद करे .कोई कोना एसा ना रह जाए जहा मेरी निशानी ना हो .
मेरी सगाई के बाद भी एक दिवाली आई थी उस घर में शादी को थोडा ही समय बचा था मम्मी पापा ने बहुत कहा बेटा अब तो मत कर ये सब क्यूंकि पूरा घर पैंट करने के लिए पुताई वाले आए थे पर मैंने अपनी जिद नहीं छोड़ी बस यही कहती रही मुझे अपनी यादें छोड़ जाने दो पापा जब चली जाउंगी तो ये कमरा आपको मेरी याद दिलाएगा .....और सच मेंउस कमरे मेरे आने के बाद बहुत याद दिलाई होगी उन्हें मेरी ......
हाँ तो दिवाली के दिन पूरे घर के हर कोने में ,हर कमरे में ,मदिर के सामने ,किचेन में ,सीढ़ियों पर,हर दरवाजे के सामने ,आँगन में,मैं गाते पर हर जगह रंगोली में बनाते थे हम .बेल ,बूटे,छोटीबड़ी आकृति जो बनता जरूर बनाते यहाँ तक की घर के सामने का रोड भी साफ़ करवाकर उसके दोनों तरफ बेल बूटे बना देते थे ,शायद हमारा बस चलता तो पूरा शहर रंग देते पर पूरा घर रंगने में ही लगभग पूरा दिन निकल जाता था .कपड़ों के नएपन से ज्यादा घर के अपनेपन का ख्याल था मुझे और मेरी इन भावनाओं की कदर मेरे घरवालों ने हमेशा की .चेहरे को लीपने पोतने से ज्यादा मैंने दिल की ख़ुशी में विश्वास किया और वो ख़ुशी मुझे मेरे घर से हमेशा मिली भी.
सच है शायद आज घर इसलिए इतना याद आ रहा है क्यूंकि वो सब हुआ उस समय .मेरी शादी भोपाल के उस घर से नहीं हुई बड़ा मन था मेरा की एसा हो पर नहीं हुआ मेरे घर बारात आई नहीं हम लड़कीवाले अपना बोरिया बिस्तर बंधकर मेरे पतिदेव के शहर गए वही से हमारी शादी हुई ,मुझे आज भी याद है रात के ८.३० के लगभग समय हो रहा था जब हम लोग बस में बेठने के लिए उस घर को बंद करके निकल रहे थे किसी ने मेरे हाथ में नारियल दिया और कहा बेटा घर को प्रणाम कर ले फिर पलटकर मत देखना अपशगुन होता है तब कितना रोई थी मैं मन ही मन बस एक ही बात सोची जाती थी की मेरे घर को पलटकर देखना भी अपशकुन हो सकता है क्या ?,एक ही ख्याल आता था मेरा घर मुझसे छूट जाएगा ,और सच मैं एसे ही वो घर मुझसे छूटगया.
इसे नियति का खेल ही कहिये या संयोग की मेरी शादी के बाद ३,४ महीनो में ही मेरे मेरे मम्मी पापा ने भी वो घर छोड़ दिया और सबकुछ बेचकर इंदौर शिफ्ट हो गए .मेरे पापा आज भी कहते हैं तेरा मन था उस घर में इसलिए वहा थे अब यहाँ आ गए .वेसे उस शहर को छोड़ने का प्लान पहले से था पर वो कई सालों से सिर्फ प्लान था मैं वो घर वो शहर छोड़ना नहीं चाहती थी शायद इसलिए वो घर मुझे ना छोड़ता था , जब तक मैं थी वो घर मुझसे छूटता ना था जेसे ही मैंने घर छोड़ा सबसे छूट गया .कभी कभी लगता है वो घर मुझे ना छोड़ना चाहता था जब मैं उसे छोड़ दिया तो उसने सबको छोड़ दिया.खेर वो घर छूटने के साथ ही वो शहर भी छूट गया.वो शहर जहा मैंने अपना बचपन ,लड़कपन सब बिताया अच्छा बुरा नया पुराना,ख़ुशी दुःख हर बात वहा से जुडी है.बहुत याद आता है भोपाल,आज भी मेरे सपनो में वही घर आता है क्यूंकि मेरे लिए तो वही घर है.
वेसे इंदौर वाला घर भोपाल छोड़ने के ३,४ साल पहले ही खरीद लिया गया था इसलिए उस घर से मेरा परिचय काफी अच्छा था आना जाना लगा रहता था पर फिर भी भोपाल वाला घर मेरी यादों में हमेशा रहेगा.शादी के बाद सिर्फ १ बार ही भोपाल वाले घर जाना हुआ ,उसके बाद २ बार इंदौर गई पर इंदौर वाला वो घर सर्वसुविध्युक्त और भोपाल वाले घर से आधुनिक होते हुए भी मेरी स्मृति में वो जगह नहीं ले पाया और शायद कभी ले भी ना पाए.
इस बार दिवाली के पहले जब पापा से बात हुई उनकी आवाज़ में कुछ भारीपन था जिसे वो दबाने की कोशिश कर रहे थे उनने कई बातें की इतना कहा बेटा तू गई रोनक चली गई इस बार पुताई करवाने का मन नहीं कर रहा ,अब किन किन आँखों में आंसू थे ये मैं कह नहीं सकती पर फ़ोन पर बस इतना महसूस हुआ की फ़ोन पर बात कर रहे हम दो लोगो के सिवा इंदौर वाले घर में कुछ और आँखें भी नम थी....
हाँ तो शादी के बाद दोनों दिवाली पर मुझे मेरा घर बहुत याद आया ,दिवाली आने के पहले से ही यादों ने अपनी माया फेला ली वो रंगोली,वो दीवारों के रंग,वो अपनापन,वो रात दिन एक करके भी घर सजाना सब बहुत याद आया और शायद जिंदगी भर याद आता रहे ,इस बार भी दिवाली पर जब जब रंगोली के रंग हाथों में लिए घर बहुत याद आया .सच कहते है मोह बड़ी ख़राब चीज है एक बार पड़ गया तो जान चली जाए मोह नहीं जाता.हाँ बस इतना हो सकता है की मोह दूसरी जगह भी बढ़ा लिया जाए जेसे मैंने अपने पतिदेव से बढ़ा लिया ठीक वेसा ही मोह जेसा मुझे मेरे घर से था ,मेरे मम्मी पापा से था पर पुराना मोह नहीं भुलाया गया...सच है मेरा नैहर छूट गया ,पीहर छूट गया , पर यादें नहीं छूटी मेरा घर नहीं छूटा ..........
आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी
20 comments:
अपना काम स्वयं करने का आनन्द ही निराला है।
भावुक कर देने वाली पोस्ट...
क्या बात है.....यार तुम जूनियर तो हो ही मेरी मगर मेरी और तुम्हारी तो भावना यें भी word to word मिलती हैं। मेरा भी वो घर छूट गया जिसमें मैंने अपनी ज़िंदगी के 22 साल गुज़ारे छूटा क्या आब तो टूट भी गया :( सरकार द्वारा मेरी यादें हमेशा के लिए मिटा दी गईं....अब अगर कुछ है यादों के नाम पर तो वो सिर्फ और सिर्फ मेरे दिल में हैं। आज सोचती हूँ, तो लगता है कभी-कभी यह सरकारी मकान वाला हिसाब भी अच्छा नहीं खास कर बच्चों के लिए तो ज़रा भी नहीं, क्यूंकि जिस किसी का भी बचपन जहां बीतता है वहाँ से उसके जीवन जुड़ा होता है। आज तुम्हारे इस लेख को पढ़कर ऐसा लगा मानो तुम मेरे ही ज़िंदगी को ब्यान कर रही हो....
सुन्दर प्रस्तुति
भावुक कर दिया आपकी पोस्ट ने।
गजब की लेखनी।
सच में पुरानी यादें कभी नहीं भूलतीं.....
आपका लेख पढ़ कर मुझे इफ्तिखार आरिफ साहब का एक शेर याद आ गया है:-
मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर (भरोसे मंद)कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे
घर वोही होता है जिसमें लोग दिल से रहते हैं...जो सिर्फ ईंट पत्थर का नहीं बना होता जिसमें इंसानी ज़ज्बात जड़े रहते हैं...अपना घर छोड़ने का दुःख बयाँ नहीं किया जा सकता...आपने इस तकलीफ को बहुत सार्थक शब्द दिए हैं...मेरी बधाई स्वीकार करें
नीरज
भावमय करती प्रस्तुति ।
यादें दिल में सदा महफूज़ रहती हैं...!
बहुत ही भावनात्मक पोस्ट लिखी है आपने। ये यादें ही हैं जो हमारे जहन से कभी नहीं मिटती। बस अच्छी यादों को इसी तरह अपने साथ रखिये।
सादर
जाने क्या-क्या छूट जाता है, बस यादें ही बचती हैं।
bahut bhavna poorn ,marmik post man ko kamjor to kargayee par acchi bhilagi/nari man ka ek dastawez sa ban gaya aaapka aalekh.
sunder lekh likh leti hai aap.meri hardik shubhkamnaye.lekin itna gahrai se mat likh keejiye ,kai baar man tak nam ho jata hai.aabhar
जिस घर में बचपन बीता होता है वह घर हमेशा मन में बसा रहता है। सपनों में भी वहीं घर आता है। मेरे साथ तो यही होता है, आजतक सपने में अपना मैके वाला घर ही आता है। बहुत अच्छी पोस्ट।
बड़ी ही सहजता के साथ घर के लगाव को प्रस्तुत किया है.जिस घर में बचपन बीता हो उससे ऐसा मोह होना स्वाभाविक ही है.आपकी पोस्ट भावुक कर गई. एक पुराने गीत की पंक्तियाँ याद आ गई :-
कल चमन था आज क्यूँ सहरा हुआ
देखते ही देखते ये क्या हुआ.
सोचता हूँ अपने घर को देख कर
हो न हो ये है मेरा देखा हुआ
कनु जी, जिस प्रवाह के साथ आपने यादों को शब्दों में बांधा है, वो काबिले-तारीफ़ है...बधाई.
यहां तक कि...
वर्तनी की कुछ त्रुटियां भी सहज रूप में नज़र अंदाज़ हो जाती हैं. :)
भूली-बिसरी यादों और दर्द को उभार दिया .अच्छा लिखा है.
सच कहा कनु, एक बार मोह में पड़ जाओ तो निकलना मुश्किल हो जाता है,पर न जाने क्यूँ मेरा मन ये नहीं मानता कि मोह ख़राब चीज़ होती है...क्योंकि वो मोह ही तो है जो हमें जुड़ना सिखाता है,स्नेह देना सिखाता है...और सबसे बड़ी बात ये मोह नहीं होता तो आपकी ये खूबसूरत पोस्ट हमें पढने को कैसे मिलती.
पोस्ट अच्छी लगी...फिर आऊंगी.
दीवाली मेरा भी प्रिय त्योहार है। इसमें घर के उन जगहों की भी सफ़ाई हो जाती है जहां साल में एक बार भी शायद ही हुई हो।
♥
प्रिय कनुप्रिया जी
सस्नेहाभिवादन !
सबसे पहले दो पंक्तियां …
यादों का इक झोंका आया , जाने कैसे बरसों बाद
पहले इतना रोये नहीं थे , जितना रोये बरसों बाद
आपकी पोस्ट पढ़ते हुए आधी रात के इन नीरव पलों में पलकें नम हो आई हैं …
मैं अपने उसी घर में हूं , जहां जन्मा … , बड़ा हुआ… , और अब अपनी धर्मपत्नी और संतानों सहित बहुत सुख से जीवनयापन कर रहा हूं …
बचपन और किशोरावस्था की अनुभूतियां आप जैसी ही रही मेरी भी … बहुत शिद्दत से याद हो आया वह ज़माना… … …
…और दरवाज़ों के पीछे दीवारों पर आप द्वारा अपना नाम लिखना , फिर … आपके विवाह के लिए दूजे शहर जाना , नारियल … , सब परिवार वालों का ही घर छोड़ देना , शहर ही छूट जाना …
सब कुछ मुझ जैसे भावुक हृदय को रुलाने के लिए पर्याप्त है …
…फिर घर छोड़ कर अनजान घर-परिवार के साथ सामंजस्य बिठाना तो हर लड़की , हर औरत की नियति है न !!
नारी तू सचमुच महान है !
इस पोस्ट के लिए मेरा कमेंट कितना भी विस्तृत हो जाए … अधूरा ही रहेगा … … …
हृदय की गहराई से मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
पर्व-त्यौहार में जब भी पटना से दूर रहता हूँ तो घर की तमाम बातें, पुरानी यादें याद आती हैं..
बहुत अच्छे से अपनी यादों को संजोया है आपने!!
Hi.. very informative post.
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