Wednesday, June 25, 2014

हत्यारे...एक जैसे हत्यारे ....

बात ये नहीं की तुमने उसे कहाँ कैसे मारा
बात ये भी नहीं की मार देने के बाद
तुम्हें कितना अहसास हुआ की तुमने मार दिया ...

मार दिया एक बच्ची को माँ के पेट में
मार दिया उसे किसी पेड़ से लटकाकर
मार दिया उसे काल कोठरी में बंद करके
या मार दिया उसके अरमानो को


फर्क नहीं पड़ता की क्यों  मारा
फर्क नहीं पड़ता की मंशा क्या थी
पर जिस दिन तुमने उसे ये जानकर मारा
 की वो लड़की थी
तुम चाहे कितने ही ढोंग रचा लो
तुम्हारी नियत खराब ही है

तुमने अगर उसके अरमानों को मारा
बिना अपनी किसी मजबूरी के
सिर्फ इसलिए की वो लड़की जात है
उसे हक नहीं बराबरी से जीने  का
हसने मुस्कुराने ,सपने पूरे करने का
तो तुम भी गुनाहगार हो
क्यूंकि तुमने उसे जीते जी मार दिया

तुम सब ....हाँ सब बराबर के गुनाहगार हो
चाहे तुम माँ बाप हो अजन्मी बच्ची के
तुमने लड़की को रेप करके लटकाया फांसी  पर
या उसे जला दिया दहेज की आग  में
या मार दिया उसे जीते जी
सबके हाथ खून में रंगे हैं
तुम सब हत्यारे हो एक जैसे हत्यारे .....

आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

8 comments:

Vaanbhatt said...

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध...हाँ जो समाज अपने लोगों की हिफाज़त नहीं कर सकता वो अपराधी है...

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बेहतरीन प्रस्तुति

संजय भास्‍कर said...

Amazing Kanu ji emotions and respect clearly reflect in the poem :))

dr.mahendrag said...

हत्यारों का कोई वर्ग विभाजन नहीं हो सकता हत्यारा आखिर बस हत्यारा ही है अच्छी रचना

सुशील कुमार जोशी said...

सुंदर अभिव्यक्ति ।

कविता रावत said...

हत्यारे इंसानी दिलों से बहुत दूर बसते हैं उनका मुख्य धर्म यही है
संवेदनशील प्रस्तुति

Unknown said...

Behad sanvedansheel prastuti badhayi !!

dr.mahendrag said...

लोग तो लाखों है पर ,
क्या थोड़े से भी इंसान है
बहुत सुन्दर, आज इंसान व इंसानियत दोनों का ही टोटा है ,बाकि सब तो बहुतायत में उपलब्ध हैं.