Friday, October 18, 2013

हत्यारे हो जाने से विधर्मी कहलाने में भले ......


तुम लाशों के ढेरों पर तिलक लगाकर खुश होगे
या खून की नदियों को अज़ान सुनाकर खुश होगे
तुम धर्म के रंगों से मरघट में होली खेलोगे
या बच्चो के सर से माँ का आँचल चुराकर बहलोगे


तुम संगीत की ध्वनि में करूणा का रस भर दोगे
या बचपन के कन्धों पर बारूद की बोरी धर दोगे
तुम सावन की बूंदों  में जहर की धारा  घोलोगे
जब बोलोगे तब बस नफरत की बोली बोलोगे

तुम धर्म की ठेकेदारी में जीवन को कमतर समझोगे
प्रेम और अपनेपन  के बंधन को कमतर समझोगे
तुम आत्मप्रशंसा में सारी दुनिया में परचम फैला दोगे
जो खून बहा है रास्तों में उसका  जवाब कहाँ दोगे ?

हम धर्म की नहीं ,ठेकेदारों के अंधत्व की निंदा करते हैं
आस्था के ,अपनत्व के हत्यारों की निंदा करते हैं
गर यही धर्म है यही नीति तो हम हाथ छुड़ाकर लो चले
हत्यारे हो जाने  से विधर्मी कहलाने में भले ......

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