Wednesday, April 24, 2013

भूख बस एक आवाज़ सुनती है रोटी की आवाज़

वो पकड़ता है वो  रुपैये भीचकर मुट्ठी में
सोचता है दे मारू मुनीम के मुह पर अभी 
कर दू हड़ताल और मांगू  अपने हिस्से के पूरे पैसे 
फिर याद आता है ठंडा पड़ा चूल्हा ,
रोटी और नमक का भाव 
घर में भूखे  बैठे  बीमार माँ बाप 
और तभी उसकी क्रांति के लाल और काले झंडे 
बदल जाते है शांति  के सफ़ेद कबूतरों में 
और वो भींच लेता है उन रुपयों को हाथों में जोर से 


वो सोचती है अभी गाली  दू कहु "दे मेरे हिस्से के सारे पैसे "
फिर याद आता है घर पर रोता दुधमुहा बच्चा 
और याद आता है वो खाना जो इस पैसे से खरीदा जाएगा 
तभी उसकी सूखी छातियों में दूध उतरेगा 
बच्चे को पिलाने के लिए , जिन्दा रखने के लिए 
और फिर सारा हिसाब किताब किनारे रख 
वो चल पड़ती है पैसे लेकर लाला के पास 

वो मुनीम भी सोचता है की इन्हें इनका हक मिलना चाहिए 
पर वो जानता  है वो भी नौकर है किसी  का 
और ये भी जानता  है की वो भी अपने हक के लिए नहीं लड़ पाया 
क्यूंकि किताबों में लिखी कई सारी  बातें 
असल जिंदगी में फेल हो गई 
मुन्नी के स्कूल की फीस देना बाकि है अभी 
और हर बार ऐसी  ही कोई न कोई बात रोक लेती है 
उसे भी विद्रोही हो जाने से 

वो  सब कभी न कभी सोचते है विद्रोही हो जाने के बारे में 
पर वो सब कभी न कभी मजबूर होते हैं 
वो सब जानते हैं सही क्या है ,क्रांति क्या है 
पर वो सब जानते हैं चूल्हों की धधकती आग 
किसी लाल सलाम से लाल नहीं होती 
वो सब जानते हैं क्रांति खून मांगती है 
पर ये भी जानते हैं की भूख ये सब नहीं समझती 

भूख बस एक आवाज़ सुनती है रोटी की आवाज़ 
क्रांति की आवाज़ भूखे पेट नहीं सुनाई  देती 
उनके लिए पसीना देना आसान है ,शायद खून  देना भी 
पर मुट्ठी में भींचे हुए पैसे देना नहीं .............


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Monday, April 22, 2013

क्या तुम सुनते हो

ये कविता शुरू किसी अन्य  भाव से हुई थी ख़तम दुसरे भाव पर हुई . कोई फेरबदल न करते हुए इसे पोस्ट कर रही हूँ आशा है दोनों भाव पाठको तक पहुंचेंगे


तुम नर्तन के अनन्य भक्त से 
मुझको जीवन नाच नचाए 
जितना ज्यादा गहरा उतरु 
उतना फंदा कसता जाए 

तुम वैभव के स्वामी हो 
मैं अंधियारे का बंधक सा 
तुम कनक कंचन के रखवाले 
मैं अकिंचन बंजर मरघट सा 

तुममे सारा जगत समाया 
मुझमे एक रोटी की भूख 
तुम प्रसादों में रहने वाले 
मुझे टूटी छत का भी दुःख 

तुम रखो कर्मो का लेखा 
मैं कर्मसागर मैं उलझ गया हूँ 
तुम मन ही मन  मुस्काते 
मैं  नैनों से बरस गया हूँ 

तुम अनंत सारी दुनिया में 
मैं  पत्थर पूज पूज कुम्हलाया 
जब आत्मा में बसे बेठे हो 
तो इतना रास क्यों रचाया 

तुम भी मुझसे बात करो न 
इतना क्यों इतराते हो 
जब मेरे मन में रहते हो 
तो मंदिर क्यों बुलवाते हो 

मुझे क्यों दी खुद्दारी इतनी 
अब देकर क्यों पछताते हो 
मैं तो तेरे दर पर आता हूँ 
तुम मेरे घर  क्यों नहीं आते हो 


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Monday, April 1, 2013

जीव हत्या :धर्म की रोटी से बोटी मत तोडिये

गौ हत्या को लेकर हमेशा से तरह तरह के विवाद उठते रहे हैं कई संगठन और व्यक्ति समय समय इस मुद्दे अपनी बात रखते रहते है और विराध किया भी जाना चाहिए क्योंकि किसी  भी जीव की हत्या किया जाना मानवीय और नैतिक रूप पूरी तरह सही है।
सामान्य तौर पर देखा जाए तो हमेशा से ये लड़ाई कभी धर्म या कभी शाकाहार -माँसाहार के मुद्दे के नाम पर लड़ी जाती रही है या अपनी धार्मिक रीतियों का और पूजा इबादत का हवाला देकर गौ हत्या सम्बन्धी तर्क रखे जाते रहे हैं . सरसरी तौर पर देखा जाए तो तो ये सारे तर्क सही प्रतीत होते  हैं।
जब मुद्दे की गहराई में जाएँगे तो देखेंगे धर्म के नाम पर गौ हत्या का विरोध करने वाले, दिन भर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस तरह के फोटो शेयर करने वाले लोगो में से बड़ी संख्या असे लोगो की है जो हजारो लाखो मुर्गो बकरों के क़त्ल के जिम्मेदार हैं इनमे से कितने ही लोग ऐसे हैं जिनके 2,3 दिन भी चिकन मटन खाए बिना नहीं गुजरते .

ये बात सच है की हिन्दू धरम के अनुसार गाय मत के समान है परन्तु धर्म ने ये भी कहा है की सभी जीवो पर दया की जानी चाहिए . धर्म ने ये कभी नहीं कहा की गाय के अलावा अन्य जीव प्राणवान नहीं हैं और उनकी हत्या करना क्षम्य है।
मैं इस बात से सहमत हु की हिन्दुओं की बड़ी संख्या शाकाहारी है सभी प्रकार की जीव हत्या को गलत मानती है पर यकीन मानिये इस बड़ी संख्या का लगभग प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी किसी न किसी प्रकार से गौहत्या के लिए जिम्मेदार रहा है।

यही इस सिक्के का दूसरा पहलु है हम सभी जानते हैं की हिन्दू धर्म में हम लोग चांदी  के वर्क का प्रयोग शुभ मानते हैं तथा इसे अपनी मिठाइयों पर लगाने को महत्व देते हैं साथ ही साथ अपने देवताओं को भी चांदी के वर्क से श्रंगारित करते आए हैं . तकनिकी के बढ़ते प्रचार और ज्ञान प्रसार के कारण हम में से कई लोग ये बात जानते हैं की चांदी का ये वर्क बनाने की प्रक्रिया में गाय की आँतों  का इस्तेमाल  किया जाता है और चमड़े के पाउच में इस वर्क को पीट पीटकर पतला किया जाता है , पर सब कुछ जानते समझते हम लोग सोशल नेटवर्किंग साईट पर गौ हत्या का विरोध भी करते हैं और मंगलवार को जाकर हनुमान जी को चांदी के वर्क का चोल भी चढाते हैं।और गणेश जी को वर्क लगे लड्डुओं का भोग भी लगते हैं।तब हमें न गौ मत याद आती हैं न शाकाहार ?फिर  गौ मांस का सेवन करने वाले ही क्यों हम लोग भी तो जिम्मेदार हुए गौ हत्या के ?

सब जानते हुए भी हम ये सब करते हैं और इसका कारण ? कारण बस एक ही है की हम धर्म को समाज को अपनी सहूलियत के हिसाब से एडजस्ट कर लेना चाहते है अपनी सुविधा और स्वाद के हिसाब से ये निर्णय लेते हैं की मुर्गी खाना या बकरा खाना ठीक है और गाय खाना पाप क्योंकि  गाय हमारी माता है .
पर उसी माता को बुचद्खाने में मार दी जाने के बाद मिले उत्पादों की सहायता से बने चांदी के वर्क से  मिठाई खाते हैं और अपने इश्वर को अर्पण करते हैं .और फिर जब मन होता है धर्म के नाम पर तलवारें निकालकर दौड़ पड़ते हैं।
पर दूसरों पर उँगलियाँ उठाते समय सभी भूल जाते हैं की बुराइयाँ ,कुप्रथाएँ हर जगह है  और हमाम में सब एक जेसे ही हैं और अन्दर से सभी खोखले हैं .

ये सच है की जब लोग बुरे का विरोध नहीं कर सकते ,गलत प्रथाओं और रीतियों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते अपनी सुविधा के हिसाब से ये निर्णय लेते हैं की कौन से जीव की हत्या उचित हो सकती है ,जो लोग सभी जीवों के प्राणों को सामान नहीं मान सकते या असा कोई भी व्यक्ति जो प्रत्यक्ष रूप से मांसाहारी है उसे गौ हत्या के लिए किसी  भी धरम विशेष पर अपने धरम की आड़ लेकर विवाद खड़ा करने का हक नहीं है।याद रखिए जीव हत्या किसी भी रूप में क्षम्य नहीं होनी चाहिए चाहे वो आप करे या कोई और करे   ।

जो लोग मांसाहार करते हैं ऐसे किसी व्यक्ति को हक नहीं की वो धार्मिक कलह को बढ़ावा दे क्यूंकि या तो सभी जीवों पर दया करिए ,मानव धर्मी बन जाइये किसी भी तरह का मांसाहार मत करिए और जीव हत्या में से पूरी तरह तौबा कर लीजिए या फिर धरम को खिलौना बनाकर अपनी सुविधा के हिसाब से तोडना मरोड़ना बंद करिए और जो खाना है खाइए ये आपका निर्णय है पर फिर धरम के नाम की रोटी से बोटी मत तोडिये 
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(लेखिका सवयम पूरण शाकाहारी है और इस लेख को लिखने के लिए किए गए अध्यन के बाद चांदी के वर्क से हमेशा के लिए तौबा करती है )

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