Thursday, May 26, 2011

कहाँ से लाऊं

तू चाँद का टुकड़ा और में अँधेरे की खुरचन
तुझे अँधेरे से बचा ले वो दीपक कहाँ से लाऊं

तू सुंदरवन का फूल ,मैं बीहड़ो का कंटक
तुझे दर्द से बचा ले वो दामन कहाँ से लाऊं

तू शीतल पुरवाई,मैं विध्वंसकारी आंधी
तुझे कष्ट से बचा ले वो घर आँगन कहाँ से लाऊं

तू शरद पूर्णिमा की चांदनी , मैं सूर्य का प्रचंड ताप
तुझे ताप से बचा ले वो चन्दन कहाँ से लाऊं

तू सुघढ़ नृत्यांगना मैं बंजारा नर्तक
हमें इक ताल पर नचा ले वो नर्तन कहाँ से लाऊं

तू पूजा की ज्योति, मैं  विद्रोह की चिंगारी
तेरी पवित्रता बचा ले, वो प्रेम पावन कहाँ से लाऊं

Tuesday, May 24, 2011

अधूरा साथ

उसकी उम्मीद का हम इन्तेजार करते रहे
उनके ऐतबार पर हम ऐतबार करते रहे
 न जाने किस बेकरारी  मैं वो बेक़रार थे पल पल
और हमे भी यूँही बेक़रार करते रहे

वो खोए रहे खुद में ही हर पल
हम खुद को मोहब्बत भरी नजर पे निसार करते रहे....
वो बढ़ते रहे न जाने किन रास्तो पर
हम बस उनके कदमो के निशानों पे चलते रहे.....

बड़ी खामोश नजरो से वो तकते रहे आसमां
और हम ताउम्र उस नजर का इन्तेजार करते रहे
हम साथ रहकर भी साथ न रहे कभी
पर हम इसी अधूरे  साथ पर जीवन गुजार करते रहे

Wednesday, May 11, 2011

वो चेहरा

वो चाँद सा चेहरा मेरी बरसो की मन्नत था
सारी दुनिया जहन्नुम थी बस वही एक जन्नत था
वो उसकी इक हँसी की खातिर मैं कर देता था सौ  सजदे
वो उसका मुस्कुराना ही, मेरे लिए इबादत था


वो उसके गेसुओं की लट में सुबह से शाम होती थी
उसकी जुल्फों  का साया ही जेसे खुदा की नेमत था


लोगो ने खूब बातें की उसकी मोहब्बत के किस्सों की
मेरे लिए सब अफसाना था  बस उसका प्यार हकीक़त था

Monday, May 9, 2011

संस्कारों की कहानी तो यही से शुरू होती है

क्या सिखाते है संस्कार...
बचपन से पापा ने सिखाया बेटा संस्कारी बनो,जेसे हर माता पिता अपने बच्चे को अच्छा बनाने की कोशिश करते है वेसे ही या शायद उससे कुछ ज्यादा ही मेरे मम्मी, पापा ने अपनी तरफ से खूब जमकर संस्कारों की घुट्टी पिलाई पर एक फर्क ये था की उन्होंने हम तीन भाई बहनों की आँखों पे पट्टी नहीं बांधी.
संस्कार दिए तो साथ मैं ये भी सिखाया की गलत बात का विरोध करो,अपने विचार खुलकर सामने रखो , अन्याय को  सहन मत करो क्यूंकि अन्याय करने वाले से ज्यादा अन्याय सहन करने वाला दोषी है .उन्होंने सिखाया की किसी गलत प्रथा ,रीती का हमेशा विरोध करो चाहे उसको मानने वाले तुम्हारे माता पिता ही क्यों न हो ,गलत विचार का समर्थन कभी मत करो.
हमारे संस्कारो की नीव इतनी मजबूत बनाई की आदर सम्मान जेसे शब्द सिखाए पर साथ ही विद्रोह जेसे शब्दों का भी ज्ञान दिया .

शायद सही संस्कार यही है... या शायद और भी कुछ पर मैं इतना जानती हु की एक माँ बाप अपनी संतान को जितना प्यार अपनापन ,स्वतंत्र विचारधारा ,और आत्मसम्मान की भावना दे सकते है उसका एक बड़ा हिस्सा हमें धरोहर के रूप मैं मिला.
शायद सभी माँ बाप यही सिखाते है आप सोच रहे होंगे इसमें नया क्या है? और अपने ब्लॉग पर ये सब लिखकर आखिर मैं कहना क्या चाहती हु?

पर कहानी तो यही से शुरू होती है ...सही है हर माँ बाप यही संस्कार देते है,सब अपने बच्चो को अच्छा सिखाते है ,पर ये सिक्के का १ पहलु है दूसरा पहलु सब जानते है पर कोई बोलता नहीं हम आज उसी पहलु पर  बात करेंगे .
हम में से हर कोई कुरूतियों को तोड़ने,गलत के विरोध मैं आवाज उठाने की बातें करते है पर कितने लोग ऐसे है जो खुद किसी  परंपरा को मानते आ रहे है और १ दिन जब उनके बच्चे उस कुरूति का विरोध करते है तो खुले दिल से उस विरोध को स्वीकार कर पाते है?
 
कितने लोग है जो संस्कारो को, परम्पराओं को धरोहर के रूप मैं देते है, पर धीरे धीरे खुद भी लकीर के फ़कीर की तरह उस कुरूति को अन्धो की तरह मानने लगते है और अपने बच्चो को कभी संस्कार, कभी बड़ो का सम्मान और कभी पूर्वजो के बने नियम के नाम पर मानने के लिए मजबूर कर देते है.
कभी कोई विरोध की चिंगारी उठती है तो भी उसे दबा देते है ये कहकर की बड़े जो कहते है बच्चो के भले के लिए ही कहते है....वेसे इस बात मैं कोई दौमत नहीं की हर माँ बाप अपने बच्चो का भला ही चाहते है और जो कहते है भलाई के लिए ही कहते है ,पर ये भी सच है की बदलते समय के साथ कभी कभी पुराने नियम कानून नासूर बन जाते है और बेहतर यही है की  कोई नियम नासूर बने उससे पहले उसे छोड़ दिया जाए .

कभी कभी इंसान नहीं समझ पाता की वो जो सिखा रहा है या जो करने के लिए मजबूर कर रहा है वो या तो गलत है या पूरी तरह सही नहीं है. ऐसे समय मैं जरुरी है बच्चे उसका विरोध करे और ये तभी संभव है जब माता पिता बचपन मैं बच्चो में इस तरह के संस्कार डालें की वो सही का साथ दे सके और गलत का विरोध कर सके .वो गलत चाहे खुद माता पिता ही क्यों न हो.

बच्चो की जड़े मजबूत बनाना ज्यादा जरुरी है ताकि वो अपनी पूरी उम्र मजबूत  रहे और अपने आस पास के लोगो को भी संबल प्रदान करें...

ये तो हुई ज्ञान की बातें .पर, ज्ञान यही खतम नहीं होता ज्ञान तो यहाँ से शुरू होता है......

अगर बच्चो को कुछ   सिखा रहे है तो खुद भी उसका पालन करने की हिम्मत रखना जरुरी है खुद भी अपने व्यवहार मैं वो सब ले जो आप ज्ञान की घुट्टी के रूप मैं अपने बच्चो को दे रहे है.
हाथी के दाँतों की तरह करने और दिखाने मैं अंतर रखना बेवकूफी है...बच्चो को  बड़ो का सम्मान सिखाइए तो ये भी सिखाइए की जब कुछ गलत हो रहा है तो उसका विरोध केसे किया जाए....

 जब आपके बच्चे आपके दिए संस्कारों पर चलने लगे तो उन्हें रोकिए मत हाँ अगर वो गलत ढंग से विरोध कर रहे है तो उन्हें सही रास्ता दिखाए और खड़े हो जाइये उनकी ढाल बनकर पर हाँ ये बात आप पर तब भी लागु होगी जब बच्चे गलत कर  रहे  हो तो  उसका भी विरोध करिए




Sunday, May 8, 2011

मेरी माँ

जब भी आँखों में आंसू आते है पल्लू से पोंछ देती है
         मेरी माँ हरदम मेरे साथ साथ रहती है .

उसकी हाथों की छुअन  आज भी जगा देती है मुझे रातों  मैं
           वो मुझे याद करके बिस्तरों मैं चुपचाप रोती है .

उसका आँचल हर धूप से छाव था मेरे लिए
          वो आज भी मेरे इंतज़ार मैं उस छाव को समेटी है.

मेरा हाथ थामकर चलती रही वो रहो मैं
         मेरी माँ सारे कांटे अपने पैरों मैं ले लेती थी .

मेरे हर दुःख  दर्द की गवाह है मेरी  माँ
        और अपने हर दर्द को मुस्कुराहटों से छुपाती है .

हर पल मुझे तेरी बहुत याद आती है
         माँ मुझे रह रह कर बहुत रुलाती है .


Thursday, May 5, 2011

मेरे मन का वसंत

खेत खलियानों मैं, नदियों विहानो मैं ,घर की मचानो मैं ,
नजर नजरानों मैं ,शीतल बयारों मैं,जल की फुहारों मैं,दिल के विचारों मैं बागरो  बसंत आयो ....
   कितना प्यारा होता है न वसंत एक दम मन को भाने वाला पर कभी कभी इस वसंत का अहसास ही नहीं होता या तो मन बंजर हो जाता है या अहसास  अंगडाइयांनहीं ले पाते.
      मेरा बसंत आया और चला भी गया.
कोयल की कूक,ठंडी हवा ,मदमस्त  करने वाला मौसम ,आम के बोर ,पीपल की छाव ,सरसों का पीलापन ये सब या तो नाना दादा के गाव मैं देखा या कभी कभी अपने प्यारे शहर भोपाल के आस पास के इलाकों मैं .पर जब से मुंबई मैं कदम रखा लोगो की भीड़,अजीब  सी भाग दौड़ ,हर किसी का अकेलापन ,न जाने कहा जाने की हड़बड़ी बस यही सब देख रही हु, महसूस कर रही हु, और शायद खुद भी कुछ इसी ढंग से व्यवहार करने लगी हू....इसीलिए शायद लोग कहते है ये है मुंबई मेरी जान .
सच है यहाँ पेट भरा जा सकता है मन नहीं ,पैसा कमाया जा सकता है प्यार नहीं,और सोने के सिक्के जोड़े जा सकते है दिल नहीं.......
हाँ तो कहा थे हम  ? देखिए न मुंबई की बातों ने फिर मुझे मेरे वसंत से दूर कर दिया ...........
हाँ तो यहाँ आने के बाद वसंत कभी कभी अख़बारों के पन्नो मैं या कभी किसी मित्र के ब्लॉग पर देखने मिल जाता है.
किसी मौसम का कोई मजा नहीं या यूं कहिये की हर मौसम मैं मजा है .चाहे गर्मी मैं आइसक्रीम खाओ या ठण्ड मैं कोई फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि मौसम हमेशा लगभग एक सा ही रहता है,न ठण्ड से कुद्कुदाने  का मजा ,न बारीश मैं भजिए खाने का ,न भरी गर्मी मैं बर्फ का गोला खाने का .जब जो मन चाहे खाओ पियो क्योंकि हर मौसम एक ही अहसास देता है जल्दी का,भाग दौड़ का,समय की कमी का और सबसे बड़ी बात अकेलेपन का........
मेरे दो वसंत यहाँ आए गए हो गए बिना कोई अहसास दिए ,बिना किसी आहात के वो व्यस्त दिनचर्या के बीच कब आए कब चले गए मुझे भनक तक नहीं लगी....आज जब कही वसंत का नाम देखा कही तो मुझे मेरा भोपाली वसंत आ गया ,कितने खुशनुमा हुआ करते थे वो दिन जब ठण्ड जाने वाली होती थी ,घर मैं बसंत  पंचमी की पूजा ,और फिर होली की तैयारियां ,फूलों  से रंग बनाना ,पिचकारियों भर के हर आने जाने वाले पर रंग डालना ,गुजिया,पपड़ी,सेव ,मिठाई और न जाने क्या क्या भोपाल की पहाड़ियों पर पीले फूल खिल जाते थे और मन आने वाली गर्मियों की छुट्टियों को लेकर उत्साहित हो जाता था ,पर अब तो बस फ़ोन पर ही सुन पाती हू की पापा ने पलाश के फूलों का रंग बनाया,और ढेर सारे फूल इकट्ठे किए होली खेलने के लिए ....
पापा कहा करते थे तुम लोगो ने असली त्यौहार के रंग देखे ही कहा है असली होली तो हम खेलते थे  खेतों  मैं,नदी के पास और भी न जाने क्या क्या और हम मन मसोसकर  रह जाते थे की भोपाल जेसे मेट्रो कलचर के पीछे भागते शहर मैं रहकर हम शायद बहुत कुछ मिस कर रहे है....पर मुंबई आने क बाद इस बात की तो ख़ुशी मिली की हमने बहुत  कुछ असा देखा जो मेट्रो सिटी मैं रहने वाले लोग नहीं देख पाते.....
बस अब तो यही ऐसे  ब्लॉग पर लिखकर मन बहला लेते है बसंत को याद कर लेते है की शायद फिर मेरा खोया वसंत वापस आए और खिला  दे मेरे मन के मुरझाए हुए फूलों को  ........


 

Wednesday, May 4, 2011

आगे बढिए : बढाइये कदम महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ



आगे बढिए : बढाइये कदम महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ

तू कितनी अच्छी है,तू कितनी प्यारी है न्यारी न्यारी है ओ माँ मेरी माँ !

अच्छा लगता है न ये गाना मुझे लगता है सबको अच्छा लगता होगा.

पर उन अजन्मी बच्चियों के बारे मैं सोचिये जो सिर्फ माँ के गर्भ मैं कभी एक आध बाद इस गाने की धुन भी महसूस नहीं कर पाई होंगी और इस दुनिया मैं आने से पहले ही दूसरी दुनियां मैं चली गई .आज न जाने क्यों एक तीस सी उठ रही है मन मैं की काश वो भी मेरी तरह ये दुनिया देख पाती.वो भी अपने माँ के कोमल अहसास को महसूस कर पाती.

पर न जाने क्यों उसकी अच्छी प्यारी और न्यारी माँ उसे इस दुनिया मैं लाने की हिम्मत नहीं कर पाई ,जाने किसके दबाव मैं उसने अपनी बच्ची को अपने से दूर कर दिया.या खुद को आधुनिका कहने वाली उसकी माँ खुद ही अपनी दकियानूसी सोच नहीं बदल पाई.

अजीब है ये देश जहा इतनी उन्नति के बाद भी लोग लिंगभेद करते है भारत की हाल ही मैं हुई गिनती के अनुसार भारत मैं महिलाओं एवं पुरुषों का अनुपात ९३३ प्रति १००० हो गया है और सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात ये है की शहरी क्षेत्रो मैं ये अनुपात ९०० महिलाएं प्रति १००० पुरुष है जबकि गावों मैं ये अनुपात ९४६ प्रति १००० पुरुष है.स्वतंत्रता के बाद ये पहली बार है जब महिला पुरुष अनुपात मैं इतना अंतर आया है.
शर्म आती है मुझे ये सोचते हुए भी की पढ़े लिखे लोग तकनिकी का किस तरह फायदा उठा रहे है .
जब भारत स्वतंत्र हुआ था तब लोगो ने शायद ये सोचा होगा की जेसे जेसे शिक्षा का प्रसार होगा लोगों मैं जागरूकता आएगी और महिला भ्रूण हत्या कम होगी पर सेंसेक्स की रिपोर्ट देखकर लगता है शेहरी लोगो ने तकनिकी का महिला भ्रूण हत्या मैं भी जमकर फायदा उठाया है .बढती महंगाई ने शहर के लोगो इस बात के लिए तो मानसिक रूप से तैयार कर दिया की उन्हें १ या २ ही बच्चे चाहिए पर गिरती हुई मानसिकता कहिये या जड़ मैं बेठी हुई सोच की अब वो १ ही बच्चा उन्हें लड़का चाहिए .मतलब साफ़ है जनसँख्या चाहे उस तेजी से न बढे पर लड़कियों की संख्या तेजी से कम हो रही है.

हम क्यूँ अपने आप को पढ़ा लिखा कह रहे हैं?क्या लोग पढाई सिर्फ इसलिए करते है की वो पैसा कमा सके ?क्या शिक्षा अपने साथ सोच मैं बदलाव नहीं कर रही ? क्या शिक्षा गुणात्मक फायदा नहीं दे रही ?

एक बार सोचकर देखिये नए ढंग के कपडे पहनना ,बड़े होटलों मैं खाना,वीकेंड पर बाहर जाना ,कंप्यूटर,लैपटॉप,आई -फ़ोन ,इन्टरनेट,वेबकैम और न जाने कितनी तकनिकी सुविधाओं का उपयोग करना ,माल्स मैं शौपिंग करना,गावों के लोगो को दकियानूसी कहना ,नौकरी करना ,पैसे कमाना ,और हमें सिर्फ १ बच्चा चाहिए या हमें सिर्फ दो बच्चे चाहिए जेसी बातें करके फॅमिली प्लानिंग की डींगे हांकना क्या यही सब शहरीपन है? क्या फायदा असी पढाई लिखाई का जो हमें सही रस्ते पे चलना भी नहीं सिखा रही.....

पढ़ी लिखी लड़कयाँ और महिलाएं क्या सिर्फ इसलिए पढ़ रही है की वो अपने आप को साबित कर सके,पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला मिला सके ,या आज की शहरी भाषा मैं कहे तो घर की अर्निंग मेम्बर बन सके ,क्या वो अभी भी इतनी समझदार और परिपक्व नहीं हुई की अपनी बच्ची को दुनिया मैं लाने के लिए आवाज उठा सके? और खुद को प्रबुद्ध कहने वाला पुरुष वर्ग क्या अब भी नहीं समझ पा रहा महिलाओं की ये घटती संख्या देश मैं १ दिन कुवरो पुरुषों की भीड़ बढ़ा देगा.

इस देश मैं सब समझदार है सरे लोग क्रिकेट पर टिपण्णी करना जानते है,सब ओसामा की मौत पर बातें करते है,अमेरिका के बारे मैं बोलते है,मुफ्त के रायचंद काफी है यहाँ. पर महिला भ्रूण हत्या के virodh मैं आवाज uthane walo की संख्या कम है kyonki सब जानते है ये galat है पर सब darte है bolne से .
मेरी बस लोगो से यही ummeed है की वो पढ़े लिखे है तो अपनी शिक्षा का सही उपयोग karein और अपनी taraf से poori koshish karein की वो कभी महिला भ्रूण हत्या मैं shamil न हो साथ ही अपने aas pass के लोगो को भी asa karne से rokein.yuwa हो तो yuwa hone के uttardayitwa को samjho ,भीड़ मैं shamil हो jao पर भीड़ का hissa bankar gandagi को साफ़ karo....

so spread this msg.......and try your best......

I request to all my friends please share this note with all your friends,if you want to add somthing then please add as comment and please request to all your friends to share this note,main chahti hu ki ye mgs har user tak pahunche aur wo ek baar ise jarur padhe.aur apne dosto se bhi share kare...please help for this noble cause

Tuesday, May 3, 2011

हम बंजारे हो गए

कुछ काफिला ऐसा मिला कुछ रास्ते ऐसे मिले
      घर बार होते हुए भी हम बंजारे हो गए

इस समुन्दर की रेत पर, पैरों क निशान तो नहीं बने
    पर कदम दर कदम साथ चलकर हम तुम्हारे हो गए

कुछ तो लहरों का जोर था, कुछ किनारों की खामोश आवाज़
      कुछ ख्वाब देखे दिन में, वो मंजिल क नज़ारे हो गए

 कुछ वक़्त का असर था कुछ माहोल भी ऐसा बना
        खुद पर विश्वास करने वाले भी,खुदाई क सहारे हो गए

  पेड़ों की छाव में भी धूप सी लगने लगी
        बारिशों के पानी में भी सूखे के नज़ारे हो गए

    वो मुस्कुराहटों का दौर था आता रहा जाता रहा
         चेहरे पत्थरों में बदले और जज्बात हवाओं में खो  गए