Friday, September 16, 2011

कैसे रोकती तुम्हे....? kse rokti tumhe?

 आज अपने मिजाज से हटकर एक कविता लिखी है .एक प्रेम कहानी पढने के बाद ये कविता मन में आई ,इसका रंग रूप मेरी सारी पुरानी कविताओं से अलग है पर शायद कई प्रेम कहानियां एसे ही दम तोड़ देती होंगी ...कही ना कहीं....

किस्मत ने हमें मिलवा तो दिया पर मिला ना पाई
तुम आए और चले गए कही दूर मुझसे ,  मेरे प्रेम से
हमारे प्रेम की दुनिया से दूर कहीं दूर 
और में तुम्हे रोक भी ना पाई,पर कैसे रोकती तुम्हे ?


कैसे रोकती तुम्हे ? मेरा गाव बड़ा छोटा है
यहाँ के घर बड़े है ,दालान बड़े है ,कमरे बड़े है
पर दिल बड़े छोटे है....
हमारे जज्बातों के लिए इन छोटे  दिलों में कोई जगह नहीं

यहाँ की खिडकियों से झांकती आँखें बड़ी तेज है
हमें चीर देती बीच सड़क पर ,जड़ कर देती बीच बाजार में
हमारे पैरों को जकड लेती ये सांप की तरह....
और उसका दर्द मेरे -तुम्हारे घर वालों की झुकी नजरों में दिखता
तुम्ही बताओ कैसे रोकती तुम्हे....

यहाँ के नाम बड़े है,इज्जत बड़ी है ,रुतबा बड़ा है
पर इन सब के साथ मेरे गाव की चुगलियाँ भी बड़ी हैं
कानाफूसियाँ करते लोग,मुह फेरती चाचियाँ,मामियां,बुआएं
हमें अपनी ही नजरों से गिरा देते ,जीने नहीं देते
सोचो सिर्फ हम दोनों के लिए
 मै हमारे घर वालों को इस आग में कैसे  झोक देती....
तुम्ही बताओ कैसे रोकती तुम्हे....

जानती हू मेरे सीने का दर्द तुम्हारी आँखों से लावा बनकर बह रहा था
तुम्हारे दिल की जलन सारी दुनिया से बचा कर ले जाती मुझे कही दूर
पर मुझे घर आँगन चाहिए था स्वछंद आकाश नहीं ...
जानती हू तुम्हारे प्रेम का झरना उमंग भर देता मेरे जीवन में
पर वो प्रेम अपनों के बिना जीवन जीने का खालीपन नहीं भर पाता

इसीलिए मैंने जाने दिया तुम्हे दूर खुद से,अपने प्रेम से...
इस खिडकियों ,दीवारों ,गलियों,सडको बाजारों से दूर
इन कानाफूसियों ,चुगलियों ,चुभती आँखों,सबसे दूर
तुम यहाँ रहते तो तुम्हारा आकाश तुमसे छूट जाता 
कैसे छीन लेती तुमसे तुम्हारा आकाश ?
तुम्ही बताओ कैसे रोकती तुम्हे....?


आपका एक कमेन्ट मुझे बेहतर लिखने की प्रेरणा देगा और भूल सुधार का अवसर भी

18 comments:

Bharat Bhushan said...

स्वछंद आकाश और स्वछंद प्रेम बड़े भाग्य से मिलते हैं. घर-आंगन की मर्यादा की पीड़ा का सुंदर वर्णन किया है आपने.

Anonymous said...

ऑनर किलिंग जैसे विषय पर लिखी ये पोस्ट वाकई शानदार है|

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।

kanu..... said...

.thanks sanjay ji.इमरान जी ओनर किलिंग जेसे शब्द सिर्फ अख़बारों में पढ़े हैं आम जिंदगी में हर किसी के पल्ले कहा पड़ते है ये शब्द.मेरी कविता की नायिका सेल्फ किल टाइप की है जिसे सामाजिक मर्यादाओं की जकडन ज्यादा भली लगी. जानती है की उसका एक कदम उसे कुछ समय की ख़ुशी दे सकता है पर उसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं....शायद ये सिर्फ उसका डर हो ,उसके साथ कोई दुर्व्यवहार ना हो पर प्रेम एसा भी होता है या शायद विछोह भी कई बार प्रेम को पूर्ण बनाता है .....

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत ही बेहतरीन।

सादर

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।

S.N SHUKLA said...

KANU JI, सुन्दर रचना प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें /
मेरी १०० वीं पोस्ट पर भी पधारने का
---------------------- कष्ट करें और मेरी अब तक की काव्य-यात्रा पर अपनी बेबाक टिप्पणी दें, मैं आभारी हूँगा /

रविकर said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||

आपको हमारी ओर से

सादर बधाई ||

Suresh kumar said...

बहुत ही खुबसूरत रचना ....

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सोचने को विवश करती कविता।

हार्दिक बधाई।

------
कभी देखा है ऐसा साँप?
उन्‍मुक्‍त चला जाता है ज्ञान पथिक कोई..

virendra sharma said...

विछोह ही प्रेम को आइन्दा के लिए बनाए रहता है .खोज बनी रहती है इसमें भी तू उसमे भी तू.सुन्दर विचार कविता ,रागात्मकता पर विवेक का प्रत्यारोप लगाती ,समझाती बावरे मन को .

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर और प्यारी रचना | बधाई |
मेरे ब्लॉग में आपका सादर आमंत्रण है |
मेरी कविता


काव्य का संसार

Rakesh Kumar said...

आपका लेखन प्रभावशाली है.
गहन भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए आभार.

मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.

अजय चावड़ा said...

बहुत ही अच्छा लिखा है आपने। मेरे ब्लॉग पर आप का स्वागत है http://ajaychavda.blogspot.com/

Baghel's said...

बहूत ही बेहतरीन अल्फाज और सुन्दर अभिव्यक्ति है| लगा जैसे हमे हमारे अनुत्तरित सवाल का जबाब मिल गया हो और शायद पुराने सच से दुबारा रु-बरु हो हो गया हूँ|

arun gupta said...

Nice post.. :)

संजय भास्‍कर said...

सुंदर अभिव्यक्ति...बेहतरीन पंक्तियाँ

संतोष पाण्डेय said...

भावपूर्ण कविता के लिए बधाई स्वीकार करें. लेखन में निरंतरता बनाये रखें.बढ़िया लिखती हैं.